Saturday, February 13, 2010

भाषा और संस्क्रति

बोली संस्क्रति का एक महत्वपूर्ण भाग है,संस्क्रति जानने के लिये भाषा और बोली के महत्व से इन्कार भी नही किया जा सकता है अर्थात प्रुरातात्विक मानवशास्त्री खुदाई से प्राप्त बस्तुओं से जीवन शैली का अन्दाजा भले ही लगालें मगर उस वक्त बोली कैसी रही होगी यह तो कठिन ही होगा ।

इतना तो निश्चित है कि ,भाषा और बोली का प्रभाव आम जन पर साहित्य की अपेक्षा सिनेमा का ज्यादा रहता है भाषा के साथ हमारे ही घर मे हमारे ही द्वारा क्या हो रहा है ?भाषा के उपयोग, और उसके प्रचार के लिये सिनेमा से सशक्त माध्यम दूसरा नही है ,इसमे उपयुक्त डायलाग और भाषा तुरन्त ग्रहण कर ली जाती है ।लगे रहो मुन्नाभाई फ़िल्म बनी ।गांधीगिरी शब्द पर आपत्तियां हुई , जबकि इससे बहुत बहुत सालो पूर्व 1968 में श्रीलाल जी शुक्ल ,रागदरबारी मे गांधीगिरी शब्द प्रयोग कर चुके है उस जमाने मे इस शब्द पर आपत्ति क्यों नही हुई , मतलब साफ़ है उपन्यास या साहित्यिक पत्र पत्रिका ,कहानी आदि से ज्यादा प्रभावकारी यह माध्यम है सिनेमा ।यह बात जुदागाना है कि उपन्यासों पर फ़िल्म बनाई जाती है ।बात सिनेमा मे प्रयुक्त भाषा के सम्बन्ध मे है ।इस माध्यम के माध्यम से हमारे नौनिहाल भी ऐसी भाषा से परिचित हो रहे है जिसका अर्थ वे स्वं नही समझते है ।

जिस तरह किसी अभिनेत्री से पूछा जाये कि आपके वस्त्रों का बजन कम क्यो हुआ -बोली ,वह सीन की मांग थी , कमाल है सीन भी माग करता है । मुझे ऐसा कुछ लिखना पड रहा है जिसकी वजह से मैं शर्मिंदा हूं और दुखी भी मगर लेख की माग है मै अत्यंत क्षमा प्रार्थी हूं ।

फ़िल्म आन मे परेश रावल के मुंह से कहलवाया गया जब इनकी (शत्रुघ्नसिन्हा की ) ’ इनकी मोटर सायकल जिधर से निकल जाती थी लोगों की फ़ट जाती थी’ । खोसला का घोसला फ़िल्म मे नवीन निश्चल से कहलवाया गया ’मेरी फट रही है यार’, फ़िल्म अपहरण मे अजय देवगन से कहलवाया गया ’हमारा आवाज ऊंचा होगया तो लोगों का फट जायेगा’ ।मुन्नाभाई एम।बी.बी.एस मे संजयद्त्त कहते है ’इतने लोग एक बाडी को घेर कर खडॆ है क्या घंटा दिखाई देगा’ ।लगे रहो मुन्नाभाई मे जब देश की तरक्की की बात चलती है तो संजयदत्त कहते है ’’अरे क्या घंटा तरक्की हो रही है ’ । फ़िल्म ओंकारा ,गंगाजल मे तो खैर गालियो की भरमार है ही ,कुछ डायलाग भी अभद्र । एक और फ़िल्म बनाने वाले आये थे उन्होने एक फ़िल्म बनाई अन्धेरी रात मे दिया तेरे हाथ मे -द्विअर्थी संवादों के परिपूर्ण । लेखक ने यदि लिख दिया है तो अभिनेता बोलने से मना नही कर सकता वहां पैसे का सबाल है ,असलियत दर्शाने की बात है , और उस पर तुर्रा यह कि जनता जो देखना चाहती है वह दिखाते है जो सुनना चाहती है वो सुनाते है ।

स्वर्गीय राजकपूर की फ़िल्म सत्यं शिवम सुन्दरम को लेकर उन पर जब मुकदमा चला तब उन्होने यही प्ली ली कि इसे तो सेंसर बोर्ड पास कर चुका है उस वक्त न्यायाधिपति श्रीयुत क्रष्णा अइयर ने यह कहने के साथ कि A view of the film may tell more than volumes ot evidence यह भी कहा था कि सेंसर वोर्ड विधि-विधान से ऊपर नही होता । क्या ऐसा नही लगता कि फ़ूहड और अश्लील भाषा संस्कार मे नही आरही है ,शोले फ़िल्म - हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर है , हमारा नाम सूरमा भोपाली ऐसे ही नही है , अरे ओ साम्भा आज भी प्रयोग मे लाये जा रहे है तो क्या यह संभव नही कि ५-६ साल का बच्चा अपने घर,मम्मी पापा की मौजूदगी मे वगैर उसका अर्थ जाने उपर्युक्त भाषा प्रयोग करे ।

।और यदि कुछ टिप्पणीकार यह मानते है कि मेरे लेख के पद क्रमांक चार मे कुछ भी अभद्र या असभ्य नही है तो मै निवेदन करूंगा कि यदि उनका छै या सात साल का बच्चा यह कहता है ,कि पापा, मम्मी के मारे आपकी फ़टती क्यों है या यह कि आपने तो मुझे मात्र पांच रुपये दिये है इनसे मे क्या घंटा नाश्ता करूंगा तो बतलाइये आपको कैसा लगेगा ।

23 comments:

kshama said...

Aapke har shabd se sahmat hun!

देवेन्द्र पाण्डेय said...

संस्क्रति=संस्कृति
..सुधार लें, पढ़ते समय अच्छा नहीं लग रहा.
पोस्ट के भाव अच्छे हैं.

राज भाटिय़ा said...

आप ने सही लिखा, लेकिन यह तो हम सब के हाथ मै है हम जब ऎसी फ़ुलहड फ़िलमो का बहिषकार करे गे तो यह खुद ही अच्छी फ़िल्मे बनायेगे, आप की बात से सहमत हुं

Amitraghat said...

"धन्यवाद सर, आगे भी आपके मार्गदर्शन की आवश्यकता रहेगी "
प्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com

दिगम्बर नासवा said...

आपकी चिंता वाजिब है और संदेश भी सार्थक है ... आज बहुत सी बातें सिनेमा से हो कर घर में आ रही हैं और अक्सर हम घर पर इसलिए भी स्वीकार करने लगे हैं क्योंकि आधुनिकता का जामा जो ओढ़ रक्खा है .. अफ़सोस तो इस बात पर ज़्यादा होता है की सेंसर बोर्ड क्यों अपनी आँखे बंद किए बैठ है ... क्या पिछले १५-२० वर्षों में नियमों में कुछ बदलाव आया है ..? या हमारी मानसिकता भी बदल रही है .....

Alpana Verma said...

आप की चिंता बहुत सही है..आज कल फिल्मों में तो ऐसे शब्द और द्विअर्थि संवादों की भरमार है ही..साथ ही टी वी कार्यक्रमों ने भी यह सब दिखाना शुरू कर दिया है.
१९५६ की सी आई डी फिल्म के एक गीत के बारे में पढ़ रही थी की उस में एक शब्द की वजह से वह गाना ही फिल्म में नही रखा गया था.
और आज यह हालत है कि गानो की तो बात ही ना करें फिल्मों में टी वी शो में अभद्र भाषा का खूब प्रयोग हो रहा है जिसे समय पर नियंत्रित नहीं किया गया तो परिणाम अच्छे नहीं होंगे.
-अच्छा आलेख.

रंजना said...

बहुत सही बात पकड़ी है आपने...
सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जो समाज के किसी भी तबके को सबसे अधिक प्रभावित करने में समर्थ होता है....और इसमें यदि भाषा की दुर्गति की गयी तो वह सहज ही आम जुबान पर चढ़ने में सफल हो जाया करती है....
यह सही है कि आम जनजीवन में सहज रूप में अनेक अपशब्दों(गलियों ) का साधारण बोलचाल में इस्तेमाल किया जाता है,परन्तु उसे कथा के दृश्य श्रव्य माध्यम में यदि प्रयुक्त कर दिया गया ,तो वह एक प्रकार से संरक्षित हो जाता है...
संरक्षण अच्छे चीजों का हो तो वह सदा कल्याणकारी होता है पर बुरे चीजों का सदा बहिष्कार ही होना चाहिए...

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आपने रावण के समबन्ध में जो कुछ भी कहा मेरे पोस्ट पर टिपण्णी में, मैं उससे पूर्ण सहमत हूँ...
आपके सार्थक समालोचनात्मक टिप्पणी की मुझे सदा प्रतीक्षा रहती है,क्योंकि ये सोच को दिशा दे जाया करती है...मैं आपकी बहुत आभारी हूँ..

Abhishek Ojha said...

अभी तो सल्फेट चल रिया है मार्केट में.

Satish Saxena said...

बहुत बढ़िया लेख !
लोगों को समझ आना चाहिए कि वे आने वाली पीढ़ी को क्या दे रहे हैं, बहुत से बच्चों को इनके अर्थ तक नहीं मालूम और बिना जाने इन शब्दों का उपयोग करते हैं ! शुभकामनायें भाई जी !!

शरद कोकास said...

सही बात है ऐसी भाषा बच्चों को बच्चों को बचपन में नहीं सीखना चाहिये ( बड़े होकर सीखना चाहिये )

ज्योति सिंह said...

bhasha ke upar mili jaankariya achchhi lagi ,sundar post

kshama said...

Holi kee anek shubhkamnayen!

Alpana Verma said...

Brij Sir,
आपको सपरिवार रंगोत्सव की हार्दिक शुभकामनाये.
regards

Amitraghat said...

"होली की ढेर सारी शुभकामनाएँ......."

प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com

कडुवासच said...

.....होली की लख-लख बधाईंया व शुभकामनायें!!!!!

विनोद श्रीवास्तव said...

जबतक द्विअर्थी संवाद या कथन शालीनता के दायरे में सिमटा होता है तब तक वह आनंद और चुलबुलेपन का पुट देता है. लेकिन जब शालीनता की सीमायें पार होने लगती हैं तो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का आपत्ति जताना स्वाभाविक है.
बृजमोहन सर, समयाभाव के कारन ब्लॉग्गिंग के लिए समय निकलना मुश्किल हो रहा है. कृपया अपना स्नेह और मार्गदर्शन जारी रखियेगा.

विनोद श्रीवास्तव said...

होली की ढेर सारी शुभकामनाएं

Alpana Verma said...

Sir,
यह तो पता नहीं आबू धाबी में कब से हैं मगर यहां की होली का कभी आनंद लिया होगा तो इस दिन को बहुत याद किया होगा '
****आप ने यह सवाल किया था--इसका जवाब यहीं दे रही हूँ--
हमें यहाँ रहते कोई १३ से उपर हो गया है..और यह सच है कि त्योहारों के समय घर की याद बहुत आती है.
होली भारत में मनाए इतने ही साल भी ..क्योंकि छुट्टियाँ जुलाई - अगस्त में पड़ती हैं ..और हर साल भारत जाना संभव भी नही हो पाता.
होली यहाँ सिर्फ़ एक बार ही मनाई थी...अब तो रंग का टीका लगा लेते हैं.
-आप हर बात को बहुत ही बारीकी से समझते हैं अच्छा लगता है.
आप का आभार

Alpana Verma said...

**Correction---UAE mein 13 plus years..and since 92 out of india hain...

कडुवासच said...

...कहां गुम/व्यस्थ हो गये हो श्रीवास्तव जी , दिखते/लिखते नहीं हो !!!!!!

makrand said...

great lines started again

Amitraghat said...

"शुक्रिया सर, कई दिनों से आपकी कोई पोस्ट नहीं दिखाई दी। इन तीनों शब्दों को मैने शब्दकोश से लिया था ठकमुर्री का अर्थ स्तब्धतता पेशल का मनोमुग्धकारी
और सारल्य का सरलता ..आपके मार्गदर्शन की अपेक्षा रहेगी........"
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com

पूनम श्रीवास्तव said...

aadarniya sir main bhi aapake vicharon ke saath hun .aapaki soch chintaniya hai .
poonam