tag:blogger.com,1999:blog-3446197224747427862024-03-12T21:26:32.916-07:00S H A R D ABrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.comBlogger85125tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-86968740794419734492015-12-14T07:03:00.001-08:002015-12-14T07:03:28.688-08:00Notations of songs Gane ki Lyrics v Sargam ya Swarlipi ya Notes: Lata ke 51 geeton ki sargam लता के 51 गीतों की सरगम<a href="http://vinodnotations.blogspot.in/2015/05/lata-ke-51-geeton-ki-sargam-51.html">Notations of songs Gane ki Lyrics v Sargam ya Swarlipi ya Notes: Lata ke 51 geeton ki sargam लता के 51 गीतों की सरगम</a>BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-83022634218754637952011-07-21T22:17:00.000-07:002011-07-21T22:19:43.059-07:00सबसे पहले और सिर्फ "हम "एक छोटे से ब्रेक के बाद हम पुन हाजिर होते है कही भी मत जाइयेगा । इस ब्रेक के बाद हम बतलायेंगे आपको एक ऐसे कुआ के बारे में जिसका पानी पीते ही आदमी हिंसक हो जाता है।<br /><br /> केवल हम ही बतला रहे है पहलीबार आपको। जी हां यह कुआ है मध्यप्रदेश के चंम्बल संभाग में । इस कुये ने पैदा किये है अनगिनत डाकू। इस कुये का पानी पीते ही आदमी का खून खौलने लगता है , उसमें बदले की भावना जाग्रत होजाती है और उसके साथ किये गये लोगों के दुर्व्यवहार इस जन्म के और पूर्व जन्म के सभी उसे याद आने लगते है । कुये का पानी पीते ही सबसे पहले उसका ध्यान जाता है बन्दूक की ओर ,और फिर अपने दुश्मन से बदला लेकर कूद जाता है चम्बल के बेहडों में । वह या तो किसी गिरोह में शामिल हो जाता है या फिर अपना स्वयं का गिरोह बनालेता है। जबकि इस कुये का पानी पीने के पहले ऐसी कोई भावना नहीं होती । आदमी सज्जन होता है व्यवहार कुशल होता है , सबसे हिलमिल कर रहता है किन्तु पानी पीते ही उसे क्या हो जाता है यह जांच का विषय है।<br /><br /> पानी जो जीवन है पानी जो नदी में जाता है तो गंगाजल बन जाता है ,पानी जो समुद्र में जाकर खारा हो जाता है कोई चमत्कार हो जाये तो मीठा भी हो जाता है , पानी जो प्रकृति की अनुपम देन है और 15 रुपये में एक बोतल मिलता है , वही पानी इस कुये में पहुंच कर कितना घातक रासायन बन जाता है , अफसोस इस पानी का अभीतक वैज्ञानिक परीक्षण व विश्लेषण नहीं किया गया । इस कुये के पानी का यदि चिकित्सा वैज्ञानिको व्दारा अनुसंधान किया जाता तो इससे डिप्रेशन और फोविया जैसी बीमारियों की दबायें तैयार की जासकतीं थी। मगर हम इस ओर जागृत नहीं है । जी हां यह वही कुआ है जिसका पानी पीते ही आदमी की नसों मे रक्त तेजी से दौडने लगता है । कई आदमी प्यास लगने पर कुआ खोदते है मगर यह पहले से ही खुदा हुआ है कितना प्राचीन है इस पर भी शोध होना जरुरी है।<br /><br /> इस कुये का पानी पीते ही डकैत बनकर उसका ध्यान जाता है अमीरों की ओर उन्हे लूटने का , गरीबों की ओर उन्हे कुछ मदद करने का ताकि बदले में वे उसकी मदद करते रहे । उसकी नजर में आजाते है ऐसे अमीर लोग जिनसे फिरौती बसूल की जा सकती है।<br /><br /> जीं हां ये जो आप देख रहे है यही है वह कुआ । चम्बल के खतरनाक पानी का कुआ । इस कुये ने कई मानसिंह पैदा किये, कई लाखन पैदा किये , कई लहना पैदा किये , कई पुतली बाई पैदा की और निश्चित ही इसी कुये के पानी की नहर गई होगी फूलन के गांव में ।<br /> <br /> आइये हम अब इस कुये के पास निवासी लोगों से आपको मिलवाते है कि क्या कारण है कि लोग इस कुये का पानी पीने से कतराते है, क्यों नहीं चाहते कि वे स्वम और उनके बच्चे इस कुये का पानी पियें । इसी गांव के निवासी हैं ये बुजुर्ग , इनसे पूछते हैं -<br /> आप इसी गांव में रहते है - जी हां<br /> क्या उम्र होगी आपकी -- यही कोई 50-60 वर्ष<br /><br /> क्या आप बतलायेंगे कि आखिर क्या बात है ऐसा कौनसा कारण है कि आप इस कुये का पानी पीने से परहेज करते है।<br /> बुजुर्ग - जी कुये में पानी ही नहीं है वर्षो से सूखा पडा हुआ है।BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com59tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-17449264693683438462011-07-14T08:07:00.000-07:002011-07-14T08:08:34.406-07:00हाई अलर्ट और बरसात<span style="font-size:130%;"> बरसात का पानी कालोनी में घुटने घुटने भर गया और वह फिल्मी गाना "बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम" व्यर्थ हो गया तो नगरनिगम जाकर निवेदन किया कि वे अलर्ट घोषित करदें ताकि नगर के कर्मचारी अलर्ट हो जायें और पानी के निकास की व्यवस्था करदें। वे नाराज होकर बोले पिछली साल ही तो आपकी कालोनी के लिये अलर्ट घोषित किया गया था । आपको कुछ काम तो है नहीं चले आते हो मुंह उठाये ,और आपको पानी से दिक्कत क्या होरही है। हमने निवेदन किया कि सर सडक दिखाई नहीं देती है । बोले -क्यों देखना चाहते हो सडक ? निवेदन किया कि सडक मे जगह जगह गडढे होरहे है जब वे दिखाई नहीं देंगे तो उनसे बच कर कैसे चलेंगे। बोले -गडढे दिखने लगेंगे तो फिर आजाना कि अलर्ट घोषित करके गडढे भरवा दो।हमें और भी कोई काम है या नहीं या फिर आपका ही काम करते रहे। और आप तो बहुत अच्छी स्थिति में हो , दूसरी कालोनियों में तो कमर कमर पानी भरा हुआ है वे तो नहीं आये शिकायत करने आप बडे जागरुक नागरिक बने हुये है।<br /> खैर साहब किसी तरह पानी के निकास की व्यवस्था तो हो गई परन्तु पुन पानी बरसने तक कालोनी की सडक की "आज रपट जायें तो हमे न उठइयो " वाली स्थिति बनी रहीं ।<br /> <br />प्यारी अंग्रेजी भाषा में एक बहुत प्यारा सा ,दुलारा सा शब्द है ’अलर्ट ’ जो हम होश सम्हाला है तब से(:यदि वास्तव में सम्हाला हो तो:) सुनते आरहे है, जिसके हिन्दी शब्दकोष में भी बहुत प्यारे प्यारे दुलारे दुलारे पर्यायवाची शब्द हमें मिल सकते है मसलन फुर्तीला ,चौकन्ना, तेज, प्रसन्नवदन, जागरुक, सतर्क, आदि इत्यादि।<br /> शब्दकोष में हाइअलर्ट शब्द उपलब्ध नही हो सका । परन्तु प्यारे शब्दों के साथ 'कुछ' लगाने की आवश्यकता हमेशा महसूस की गई जिसे हम विशेषण भी कह सकते हैं की प्रथा बहुत प्राचीन होने से,यथा महान आत्मा, महान पुरुष तो इस अलर्ट के साथ भी एक विशेषण लगाया गया, महान चौकन्ना ,महान जागरुक । चूंकि अलर्ट अंग्रेज़ी का शब्द है तो इसके साथ महान के बदले में हाई का प्रयोग किया गया ।<br /> हाइ अलर्ट होता नहीं है इसे घोषित किया जाता है। इस महान अलर्ट को कब घोषित किया जाना है यह महापुरुष ही तय करते है। जब कोई घटना घटित होजाती है तो इसे घोषित कर दिया जाता है। फिर यह हाइ अलर्ट घीरे धीरे या एकदम कब लो- अलर्ट में परिवर्तित हो जाता है इसका पता ही नहीं चलता । जब पुन हाई अलर्ट घोषित होता है तब पता चलता है कि यह हाइ अलर्ट ,लो अलर्ट हो चुका था । स्वभाविक ही है यदि हाइ अलर्ट चल ही रहा होता तो फिर मोस्ट हाई अलर्ट होना चाहिये था । और चूंकि जब पुन हाई अलर्ट घोषित किया गया है तो इसका अर्थ यही है कि हाइ अलर्ट लो अलर्ट में परिवर्तित हो चुका था ।<br /> यदि अलर्ट का अर्थ जागरुक या सावधान से लगाया जाये तो स्वाभाविक है कि हमेशा कोई भी सावधान नहीं रह सकता उसे विश्राम की आवश्यकता होती है।<br />अति सर्वत्र वर्जयेत का सिध्दान्त भी लागू होता है जो अति करता है उसकी जगह या तो अस्पताल है या फिर तिहाड।<br /> बचपन मे बच्चे शैतानी करते है दिनभर उधम किया करते है मां चिल्लाती रहती है परन्तु जैसे ही बाप घर में आता है हाइ अलर्ट घोषित हो जाता है। इसी तरह की कुछ कार्यालयों की भी स्थिति होती है।अत कुछ हद तक अलर्ट के लिये बाप बॉस ,बाढ और बरसात का आना जरुरी है। लेकिन अलर्ट होता है इन सब आने के बाद ही। यदि बाढ आने के पहले ही बाढ का इन्तजाम कर लिया तो ?, अब्बल तो बाढ आयेगी ही नहीं और अगर आ भी गई तो कर क्या लेगी । फिर अलर्ट और हाइ अलर्ट का मलतब ही क्या रह जायेगा । अत इस शब्द की सार्थकता बनाये रखने के लिये आवश्यक है कि बाढ , बाप और बॉस और बरसात के आने का इन्तजार किया जाये।<br /> <br /></span>BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-61994322233537729652011-06-26T21:29:00.000-07:002011-06-26T21:32:46.106-07:00कवि की कविता शायर के शेर'नाना भाति राम अवतारा रामायण सत कोटि अपारा' की भाति नाना प्रकार की कवितायें और नाना प्रकार के कवि । दौनो आकृति में, प्रकृति में भिन्न आकार प्रकार में भी ।<br /><br /> कोई श्रंगार रस में तो कोई हास्य रस मे ही डूबे रहते है। कुछ कवि चुटकुलों को कविता के सांचे में ढाल देते है । कुछ कवि आशु कवि होते है इधर कोई बात सुनी उधर कविता तैयार ।<br /><br /> कुछ कवि फुल टाइम और कुछ पार्ट टाइम कवि होते है। सर्विस करने वाले इतवार को कविताऐं करते है वह उनका छुटटी का दिन होता है कविता लिखने का दिन होता है।<br /><br /> एक कविवर के पिताजी का देहान्त हुआ था तो शोक पत्र उन्हौने अपनी स्वरचित कविता में ही छपवाया था।<br />कुछ कवि बहुत ज्यादा भावुक होते है कवि के सफेद बाल देख कर चंद्रवदनि मृगलोचनी ने बाबा का सम्बोधन कर दिया ,दिल में टीस लगी और कविता प्रारम्भ।<br /><br /> कुछ कवियों की कवितायें समझने मे थोडी देर लगती है । कवि कह रहा था कि' जब भी वह आती है एक रौनक आजाती है और जब भी वह जाती है मायूसी छा जाती है' ये बात वे लाइट के वारे में कह रहे थे।<br /><br /> कुछ लोग कहते है कवि पैदा होता है बनता नहीं है लेकिन यह भी देखा गया है कि बनते भी है और बन भी सकते है" मै कही कवि न बन जाउ तेरी याद में ओ कविता" । और" मै शायर तो नहीं जबसे देखा मैने तुझको मुझको शायरी आगई।"<br /><br /> कुछ कवि पैसे के लिये लिखते है तो कुछ नाम के लिये। कविता के साथ पत्रिका में नाम ओ फोटो भी छप जाना चाहिये । कुछ का कहना है कि नाम से पेट नहीं भरता।<br /><br /> पुराने जमाने में कई कवियों का कविता पर ही गुजारा होता था। वे आश्रयदाता की तारीफे करते रहते थे जैसे भूषण आदि वे राजकवि कहलाते थे । एक कवि प्रथ्वीराज चौहान के पास थे शायद चंद वरदायी या ऐसे ही कुछ उन्हौने प्रथ्वीराज रासो लिखा बिल्कुल आल्हखण्ड की तरह और 11 साल की उम्र होते होते प्रथ्वीराज की 14 शादियां करादी। कवि कविता पढ कर सुना कर जाने लगता था तो राजे महाराजे उसे विदा स्वरुप राशि दिया करते थे यदि किसी को नही देना होता तो वह कवि से कहता महाराज इस कविता का अर्थ बताओ और केशवदास की कविता दे देता था ।" कवि को देन न चहे विदाई पूछो केशव की कविताई "। केशवदास को कठिन काव्य का प्रेत कहा गया है इतनी क्लिष्ठ कि क्या बतायें आपको। उस जमाने की कवितायें राजनीति को भी प्रभावित करती थीं ।कवि ने जब देखा राज्य की व्यवस्था बिगड रही है और राजा रासरंग में डूवा है तो एक दोहा लिख कर राजा तक पहुंचाया ""......अली कली हीं सों लग्यों आगे कौन हवाल"" राजा होश में आगया और राज्य का विधिवत संचालन करने लगा । आज आप कविता क्या एक खण्ड काव्य लिखदो महा काव्य लिखदो कोई फर्क नहीं । हां उसका विमोचन करने आजायेंगे मगर पढेंगे नहीं, फुरसत ही नहीं है<br />""तुमने क्या काम किया ऐसे अभागों के लिये जिनके वोटों से तुम्हे ताज मिला तख्त मिला<br /> उनके सपनों के जनाजे में तो शामिल होते तुमको शतरंज की चालों से नहीं वख्त मिला ।""<br /><br /> पुराने कवि बडे रसिक भी होते थे । उनकी नायिका झूला झूल रही है । कैसे ? वह वियोग में इतनी क्षीण हो गई है सांस लेती है तो 7 कदम पीछे और सांस छोडती है तो 7 कदम आगे उसका शरीर आजा रहा है। डर है बेचारी अनुलोम विलोम न करने लगे ,बहुत प्रचार प्रसार है इसका।<br /> एक तो बेचारे दूध पीने को तरस गये<br />'प्रिया के वियोग में प्रियतम बेहाल थे<br />अन्दर से सांस बहुत ठंडी सी आती थी<br />दूध का भरा गिलास कई बार उठाया पर<br />सांसों के लगते ही कुलफी जमजाती थी।'<br /><br />आदि काल से जितने कवि,शायर ,गीतकार हुये सभी ने बरसात के मौसम पर कुछ ज्यादा ही लिखा है। बादलों पर , रिमझिम फुहारों पर,मोर ,पपीहा सब पर -<br />यही मौसम क्यों रास आया कवियों को? क्या इस मौसम में बच्चों व्दारा कापी किताब,एडमीशन डोनेशन फीस की मांग नहीं की जाती थी।क्या पत्नियों की ओर से अचार के लिये कच्चे आम और तेल की फरमाइश नहीं की जाती थी? क्या इस मौसम में उनके मकान में सीलन नहीं आती होगी,छत न टपकती होगी? क्या कमरे में पंखे की हवा में कपडे सुखाने ,डोरी बांधने मकान मालिक कील ठोंकने देता होगा ? आखिर इस मौसम पर और इस मौसम में कवितायें ज्यादा रची जाने का कुछ तो कारण होता ही होगा।<br /><br /> हाँ इस मौसम में कवित्व भाव जागृत करने उन्हे वातावरण भी मिलता होगा क्योंकि इन्ही दिनों कीट पतंगे रौशनी की ओर चक्कर लगाते है कवि सोचता होगा एकाध पोस्ट निकलने पर शिक्षित बेरोजगार अपने अपने प्रमाणपत्रों का बंडल लिये हुये चक्कर लगा रहे है।<br /><br /> जगह जगह गडढों में ऐकत्रित हुये पानी को देख कवि सोचता है ऐसे ही कर्मचारी के टेबिल पर फाइले इकटठा होती रहती है। बिजली की चमक ऐसे दिखती होगी जैसे किसी सभा में नेताजी उदधाटन चाटन उपरांत दांत दिखा रहे है या कोई अभिनेत्री किसी टूथपेस्ट का विज्ञापन दे रही हो। बादल की गरज एसी जैसे कोई क्रोधी व्यक्ति पाठ कर रहा है । बडी बडी बूंदे बॉस के गुस्से की तरह और धूप का अभाव जैसे आउट डोर में डाक्टर। कपडे सुखाने तरसते लोग ऐसे दिखते होगे जैसे महगाई भत्ते को कर्मचारी तरसते है।<br /><br /> कवि की तबीयत भी बरसाती हो जाती है वह बूंदों के साथ ऐसे नाचने लगता है जैसे पडौसी के नुक्सान पर पडौसी नाच रहा हो वह मस्त होकर ऐसे गाने लगता है जैसे परीक्षा के दिनों में माइक लगाकर किसी मोहल्ले में हारमोनियम तबला के साथ रात भर अखंड पाठ हो रहा हो। बादलों के साथ उडने लगता है जैसे चुनाव जीत कर लोग हवाईजहाज में उडते है। मोरो के साथ वह ऐसे झूमने लगता है जैसे अपराधी लोगों का कोई बॉस जेल से रिहा हो गया हो। कभी बादल इतने नीचे आजाते है कि आने लगे ' एसी कार से उतर कर मोहल्ले में कोई वोट मांग रहा हो।<br /><br /> बरसात पर सारे गाने लिखे जा चुके और कुछ न बचा तो ""छतरी के नीचे आजा""। आपको तो अनुभव होगा तब का जब आपके पास कार नहीं होती होगी ,छाते खोते बहुत हैं । पानी बरसते में छाता लेकर गये दोपहर बाद पानी बन्द होगया । रोजाना की तरह छै बजते ही दफतर छोड कर भागे छाता भूल गये । दूसरे दिन आकर तलाश करते है। फिर मिलता है क्या ।<br /><br /> मेरे मित्र छाते पर नाम लिखवा रहे थे बोले खोयेगा नहीं । मैने कहा जब कोई इसे ले जायेगा तो यह तेरा लिखा हुआ नाम क्या चिल्ला कर कहेगा कि यह मुझे ले जारहा है। मगर नहीं माने लिखवा ही लिया नाम ।BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-6713601725353824302011-06-10T10:29:00.000-07:002011-06-10T10:32:56.932-07:00कवि और कविताकभीss कभीsss मेरे दिन मेंeeeee खsयाsल आताs है। कभीनहींभीआता है। एसा खयाल क्यों आता है कि पहले की अपेक्षा अब कवितायें ज्यादा लिखी जारही है।<br /><br /><div> शायद पहले कविता लिखना कठिन था बिल्कुल गणित के सवालों की तरह। कविता एक लेकिन उसे कितने भागों मे विभक्त कर रखा था दोहा, चौपाई, सोरठा, छंद, सवैया, कुण्डलियां और उस पर भी तुर्रा ये कि उनकी मात्राऐं गिनो। अब कैलकुलेटर थे नहीं तो अंगुलियों के पोरों पर मात्राओं की गिनती किया करते थे। दोहा एक दो लाइन का, लेकिन उसके चार भाग । दो भाग मे 11 और दो में 13 मात्राऐं होना आवश्यक । कितनी परेशानी । आधी जिन्दगी तो मात्राऐं गिनने में ही निकल जाये। आपको तो पता नहीं होगा पहले एक रुपया भी कई भागों में विभक्त था । रुपया,अठन्नी,चवन्नी, दुअन्नी, इकन्नी, पैसा, धेला और पाई ।<br /><br /> दूसरी बात पहले शिक्षा का भी अभाव था। कोई बी ए पास हो जाता था तो उसे हाथी पर बिठा कर जलूस निकाला जाता था और वह अपने नाम के साथ बीए लिखता था। आज देखिये एम ऐ पी एच डी शिक्षाकर्मी है और उनको 3500/रुपये तनखा तब मिलती है जब अंगूठा लगा प्रमाणपत्र हैड आफिस पहुंच जाता है कि हां इसने महीना भर डयूटी दी।<br /><br /></div><div> किसी कवि से अपने समय की वातावरण की अवहेलना तो होती नहीं है ऐसा वातारण भी होना चाहिये कि कवित्व भाव जाग्रत हो। उस जमाने में इतनी हत्याऐं, डकैती, इतने बलात्कार ,शोषण न थे । अपने समय की धार्मिक , राजनैतिक,सामाजिक , सांस्कृतिक बातों का प्रभाव रचना पर होता ही है इसलिये पहले कवित्व भाव कम था।<br /><br /></div>"जहां तक मेरा सवाल है मुझे न तो पहले की कविता---<br />केसव चोंकति सी चितवे छिति पाँ धरके तरके तकि छाहीं<br />बूझिये और कहे मुख और सु और की और भई छीन माहीं"<br /><br />समझ आती थी और न आज की कविता<br /><br />""मै सुनता था नूपुर धुनि<br />प्रिय<br />यध्यपि बजती थी चप्पल""<br /><br />समझ आती है।<br /><br /> तय शुदा बात है कि कार्यक्षमता की भी बृध्दि हुई है।पहले बुध्दि बर्धक टानिक यंत्र तंत्र न थे । आज तो पढाई मत करो यंत्र पहिन लो परीक्षा में सफलता सुनिश्चित है। पहले कोई कहानी लिखता रहता ,तो कोई कविता ही लिखता रहता था । आज विविधता है लेखक ने आज कहानी लिखी ,कल कविता और परसों गजल । कभी कभी तो एक ही दिन में एक कविता और एक गजल दौनो लिख लेते है। पहले कविता लिख कर गुरु को बताई जाती थी और वे यहां का शब्द वहां और यहां की लाइन वहां करवा दिया करते थे जिससे एक नई ही कविता तैयार हो जाती थी।<br /><br /> एक टेलर मास्टर अपनी खटारा सिलाई मशीन से सिलाई कर रहा था । खड खड की आवाज हो रही थी वहीं एक बन्दर वाला खेल दिखाने आगया डुम डुम बजाने लगा । टेलर ने उसे वहां से भगाना चाहा तो उसने अपने पेट का वास्ता दिया । टेलर का कहना था कि वह खड खड और डुम डुम के बीच असुविधा महसूस कर रहा है और काम नहीं कर पारहा है। बन्दर वाले ने उसे आपस में ताल मिलाने को कहा । कुछ मिनट में खड खड डुम डुम की ताल मिल गई दौनो अपना अपना व्यवसाय करते रहे। खेल खत्म करके बन्दर वाला जाने लगा तो बोला क्यों उस्ताद ताल मिल गई थी ? टेलर ने कहा ताल तो मिल गई- मगर शेरवानी की जगह सलवार सिल गई।<br /><br /> उस समय विदेशी साहित्य से भी कम परिचय था तो उनका अनुवाद कर अपनी कविता भी नहीं कह सकते थे। फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियां इनसे भी साहित्य सृजन की प्रेरणा मिली । आइ ए एस नौकरी छोड कर इन कम्पनियों में जाने लगे तो कवि हृदय में कवित्व भाव जाग्रत होता कि उफ कितनी योग्यता ,'कितनी क्रीम देश से बाहर चली जारही है।<br /><br /> मेरे नगर मे नदी नहीं है नाला है तो बरसात में जब नाला चढता है तो लोग उसे ही देखने जाते है ऐसे ही नाला उफान पर था और दर्शक एकत्रित थे एक सज्जन बार बार कह रहे थे उफ कितना पानी व्यर्थ चला जारहा है उफ कितना पानी व्यर्थ चला जारहा है । वे न तो कोई इन्जीनियर थे न जल संरक्षण समिति के सदस्य थे। असल में उनका दूध का व्यवसाय था।<br /><br />इन्टरनेट में एसी साइड भी है जिनके खुलते ही दर्शक मंत्र मुग्ध हो जाता है और उसमें ऐसा कवित्व भाव जागृत होता है कि कवितायें फूल जैसी झरने लगती है लेख तैयार होने लगते है। अब सम्पादक तो इन्हे पत्रिकाओं मे छापने से रहे और ब्लाग पर मोडरेशन सक्षम है तो फिर इनको कोयला हाथ में लेकर बस स्टेन्ड के बाथरुम और रेलवे के व्दितीय श्रेणी के डब्बे के शौचालयों में जाकर अपनी विव्दता का प्रदर्शन करना पडता है।<br /><br /> कुछ लोगों का यह मानना है कि आजकल साहित्य और सिनेमा में अश्लीलता प्रवेश कर गई है । लेकिन इसके विपरीत तर्क यह दिया जाता है कि अश्लीलता न तो शब्दों में होती है और न दृश्यों में । वह तो श्रोता और दर्शक की मानसिकता में रहती है , इसलिये श्रोता दर्शक और पाठक अनचाहे अर्थ निकाला करते है। ठीक है । जैसा भी है अरे भाई लिखा तो जारहा है यह क्या के है --बैटर दैन नथिंग।<br /><br />दो पुरानी सहेलियां मिलती हैं<br />कहो बहिन कैसी हो<br />अच्छी हूं<br />और बच्चे कैसे है<br />वे भी अच्छे है<br />और पतिदेव कैसे है<br />न होने से अच्छे है।<br /><br /> पहले ,अलंकारों का प्रयोग होता था फिर व्याकरण -बापरे- "कनक कनक ते सौ गुनी " "सारंग ले सारंग चली" , आज व्याकरण और अलंकारों का भी झंझट नहीं । हिन्दी हो या अंग्रेजी आप ""हू आर यू"" को ""आर यू हू"" बे-धडक लिख सकते है। कोई टोकने वाला ही नहीं है । पहले तो किसी ने दोहा सुनाया और जरा सी त्रुटि पर सुनने वाला बाल खीचने लगता था जैसे कोई गायक किसी गुरु के सामने हारनोमियम पर कोई राग निकाल रहा हो और गलती से एक भी अंगुली शुध्द स्वर की जगह कोमल स्वर को टच कर जाय तो सुनने वाला वहीं अपना सिर ठोकने लगता है। ऐसे ही कविताओं का हाल था।<br /><br />फिर लोग कहते है कि आजकल कैसा ?? लिखा जारहा है। अरे लिखा तो जारहा है -- कुछ तो लिखा जारहा है<br /><br />पहले बेटी पूछती थी मां मे जीन्स पहिनलूं<br />मत पहिन बेटी लोग क्या कहेंगे<br />आज बेटी पूछती है मां मै स्विम सूट पहिनलू<br />पहन ले बेटी कुछ तो पहन लेBrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com40tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-42017389212614705332011-05-20T06:17:00.000-07:002011-05-20T06:20:11.985-07:00पत्राचार<div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; font-size: medium; "><div>आज आदमी की सुविधा के लिये कितने साधन उपलब्ध है, एस. एम. एस, ई -मेल, फेसबुक और भी न जाने क्या क्या। पुराने लोगों ने इस खतोकिताबत के लिये कितने कष्ट झेले है इस सम्बंध में जब सोचता हूं तो आखों में आसूं आजाते है, दिल बैठने लगता है।</div><div><br /></div><div><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre; "> </span>बैठ जाता है साहब दिल बैठ जाता है आदमी खडा रहता है और उसका दिल बैठ जाता है, आदमी लेटा रहता है और उसका दिल बल्लियों उछलने लगता है, आदमी चुपचाप बैठा रहता है और उसके कान खडे होजाते हैं, बिना कैंची आदमी, आदमी के कान कतरता रहता है, आदमी ऊंचा रहता है और उसकी मूछ नीची हो जाती है, बिना चाकू छुरी की आदमी की नाक कट जाती है। सूर्पनखा की नाक थोडे ही न कटी थी, काटने वाले चाकू छुरी तलबार आदि कुछ लेकर ही नहीं गये थे वाण थे उनके पास । वाण से भी कहीं नाक कटती है । वो तो क्या हुआ उस रुपसी का- उस षोडसी का ,उस मृगनयनी, चन्द्रबदनी, सुमुखि सुलोचनि का प्रणय निवेदन दौनो भ्राताओं ने ठुकरा दिया तो उसकी घोर इन्सल्ट हुई गोया उसकी नाक कट गई । वो तो आइ.पी.सी. प्रभावशील नहीं थी वरना दफा 500 का दावा ठोंक देती। हां तो आदमी तना रहता है और उसकी गर्दन शर्म से झुक जाती है, महीनों से जो व्यक्ति बिस्तर से हिल नहीं सकता ....</div><div>""कल तलक सुनते थे वो बिस्तर से हिल सकते नहीं</div><div>आज ये सुनने में आया है कि वो तो चल दिये ""</div><div><br /></div><div> <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre; "> </span>कितनी परेशानी- कितनी मुश्किलें.-नहर के एक किनारे पर शाहजादे सलीम बैठे है एक कमल के फूल में चिटठी रख कर नहर में डाल देते है दूसरे किनारे पर अनारकलीजी बैठीं हैं इन्तजार कर रहीं हैं और देखिये ," आपके पांव देखे इन्हे जमीन पर मत उतारियेगा मैले हो जायेंगे " और उस चिटठी को पाकीजाजी चांदी की डिबिया मंगवाकर उसमें महफूज रखती हैं।</div><div><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre; "> </span>पहले पोस्ट आफिस का महा नगरों तक ही चलन था जिलों तक भी होगा ,और एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में चिटठी पहुंचाना, तो कोई पत्र बाहक थोडे बहुत पैसों की लालच में ऐसे काम के लिये तैयार होजाता था जो कासिद कहलाता था। बहुत सोच समझ कर लिखना पडता था जनाब , आज कल की तरह नहीं कि इन्टरनेट पर कुछ भी अन्ट बंट शंट लिख दिया बहुत सोचना पडता था साहब ,कोई व्दिअर्थी शव्द न लिखा जाय, कोई गलत शब्द न लिखा जाये। अन्यथा-</div><div>"क्या जाने क्या लिख दिया उसे क्या इज्तिराब में</div><div>कासिद की लाश आई है खत के जवाब में"</div><div><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre; "> </span> कुछ बच्चे भी इस काम को अन्जाम दे दिया करते थे।" नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुटठी में क्या है" बोले चिटठी है फलां अंकिल ने भिजवाई है फलां दीदी को देने जारहा हूं। फिर शिक्षा का प्रचार प्रसार हुआ तो कापी और किताबों इस हेतु प्रयुक्त होने लगीं।</div><div><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre; "> </span>आज की पीढी कुछ भी कहे मगर वह पीढी बहुत बुध्दिमान थी । इतने भविष्य का अन्दाज हमारे आज के बच्चे नहीं लगा सकते है। देखिये पत्र लिख दिया और भेजने के बाद पुन पत्र लिखने बैठ गये कान्फीडेन्स देखिये ,एक विश्वास ,आत्मबल -</div><div><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre; "> </span>"कासिद के आते आते खत इक और लिख रखूं</div><div><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre; "> </span>मै जानता हूं जो वो लिखेगे जवाब में "</div><div><br /></div><div>और संतोष देखिये आज की पीढी को बहुत जल्दी तो गुस्सा आता है, जरा में होशो हवास खो देता है । देखिये पत्र भेजा ,उसने पढा और गुस्से में टुकडे टुकडे करके ऐसे फैक दिया जैसे फिल्म सत्ता पे सत्ता में हेमाजी ने तरबूज फैका था । मगर देखिये सेकेन्ड स्टोरी से फैके गये खत के पुरजे बीन रहे है और कह रहे है</div><div><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre; "> </span>"पुर्जे उडा के खते के ये इक पुर्जा लिख दिया </div><div> लो अपने एक खत के ये सौ खत जवाब में "</div><div>चेहरे पर संतोष है कि कइयों के तो सौ पत्रों का एक भी जवाब नहीं आता और एक हम हैं जिसको एक खत के सौ जवाब आये है और पुरजे इकटठा किये जारहे है। है आजकल किसी में ऐसी गम्भीरता ?</div><div><br /></div><div> इसके और बहुत पहले ( लॉन्ग लॉन्ग एगो ) कही बादलों के साथ समाचार भेज रहे है, कहीं कबूतरों के साथ ,कितना कष्टदायक समय था फिर कबूतरों ने ये व्यर्थ के काम बन्द कर दिये तो खत में लिखने लगे "चला जा रे लैटर कबूतर की चाल" । कितनी भावुकता सज्जनता कितनी विनम्रता ,दया लिखी रहती थी पत्रों में ""खत लिख रही हूं खून से श्याही न समझना ""और मजा ये कि पत्र नीली श्याही से लिखा जारहा है। आजकल तो ऐसा कोई नहीं लिखता हाय हलो के जमाने में_ लेकिन पहले पत्र की शुरुआत इस शब्द से होती थी "" मेरे प्राणनाथ"" और पत्र का अन्त होता था"" आपके चरणों की दासी ""। मजाल क्या जो इसके विपरीत किसी ने प्रारम्भ"" मेरे चरणदास"" से किया हो और समापन ""आपके प्राणों की प्यासी" से किया गया हो।</div></span></div>BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com45tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-57421262858632582852011-05-07T09:42:00.000-07:002011-05-07T09:44:20.837-07:00शार्ट कट<span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; font-size: medium; "><div>शार्ट कट से भी शार्टकट, प्रारंभ से आदमी तलाश करता रहा है ,चलने में -बोलने में, लिखने में , और जिन खोजा तिन्ह पाइया ,उन्हे रास्ता मिला भी । जब आर से काम चलता है तो ए आर इ क्या मतलब। जब यू से काम चल सकता है तो वाय ओ यू का क्या मतलब । और इसी तरह पिताजी पापा होते हुये डैडी से डैड हो गये । शार्टकट रास्ते में कोई टेडा मेडा रास्ता नहीं देखता और शार्टकट भाषा में कोई शुध्दता अशुध्दता नहीं देखता। और वैसे भी शुध्द अंग्रेजी कोई बोल नहीं सकता और शुध्द हिन्दी कोई समझ नहीं सकता तो रोमन ही सही ।</div><div><br /></div><div><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre; "> </span>अभी शासकीय कार्यालयों में शार्टकट का प्रयोग शुरु नहीं हुआ है। इ मेल से भी डाक नहीं भेजी जाती फैक्स से भेज कर फिर कन्फर्मेशन कापी डाक से भेजी जाती है, वाकायदा ड्राफट तैयार होता है वह एप्रूव होता है, उंची कुर्सी वाला नीची कुर्सी वाले का ड्राफट एप्रूव करता है, वैसा का वैसा ही एप्रूव कर दिया तो मतलब ही नहीं, कुछ न कुछ गलती तो निकालना आवश्यक है ही। अच्छा एक मजेदार बात शासकीय शब्द कुल 100-150 है उन्ही से हजारों पत्र, परिपत्र, अर्धशासकीय पत्र, तैयार होते रहते है । एक भी विजातीय शब्द इसमें आजाये तो बात अखरनेवाली हो जाती है। ब्लाग पढता रहता हूं तो कुछ शब्द सामर्थ्य बढ गया है,मैने एक दिन एक शब्द का पर्याय बाची शब्द लिख दिया तो मेरी पेशी हो गई देखिये मिस्टर यह कार्यालय है कोई साहित्यिक संगठन या सभा नहीं है, शब्द वही प्रयोग करो जो शासकीय हो। और पता भी चलना चाहिये कि पत्र सरकारी है। अच्छा देखिये मुझे व् और ब का फर्क आज भी समझ नहीं आता लेकिन हजारों ड्राफ्ट ,एप्रूव किये </div><div><br /></div><div><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre; "> </span>भैया हम तो गांव के है वही बोली वही लहजा , यध्यपि बच्चों को पसंद नहीं है । मेरी खडी बोली इन्हें रास नहीं आती । हालांकि कुछ कहते नहीं मगर समझ में आही जाता है, इशारों को अगर समझो । और तो और ये भी बच्चों से कहती ही है बेटा तेरे पापा तो शुरु से ही गवांरों जैसा बोलते है भले आदमियों के बीच बिठादो तो नाक कट जाती है। वाह एक न शुद दो शुद .</div><div><br /></div><div><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre; "> </span>एक दिन पुत्र रत्न ने कह ही दिया आपकी बोली और लहजे पर मेरे मित्र हंसते है उसी दिन मैने तय किया कि बोलूंगा तो शुध्द हिन्दी ही बोलूँगा नहीं तो नहीं बोलूँगा । की प्रतिज्ञा । पुराने जमाने में लोग प्रतिज्ञा करते ही रहते थे उस समय जब हाथ उठा प्रतिज्ञा कर करते थे तब वादल गरजने लगते थे ,हवा की रफतार तेज हो जाती थी ,विजलियां कडकने लगती थी ,मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ ।</div><div><br /></div><div><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre; "> </span>एक दिन घर में मित्र मंडली जमी थी ,मैने पुत्र से जाकर कहा भैया मेरे व्दिचक्र बाहन के पृष्ठचंक्र से पवन प्रसारित होगया है शीघ्रतिशीध्र वायु प्रविष्ठ करवा ला ताकि मुझे कार्यालय प्रस्थान में अत्यधिक विलम्ब न हो। मै तो कह कमरे से चला आया किन्तु मैने सुनली- पुत्र का एक मित्र कह रहा था क्यों रे तेरे पापा का एकाध पेंच ढीला तो नहीं होगया ।</div><div><br /></div><div><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre; "> </span>मेरे पडौस में एक बहिनजी रहती है ठेठ देहाती ,प्रायमरी स्कूल में बहिनजी की नौकरी लग गई तो परिवार यहां आगया। एक दिन बहिन जी के स्कूल की अध्यापिकाऐं उनके घर आई तो तो बहिन जी बोलने का लहजा, शब्द सब बदले , बोली बिल्कुल शहरी हो गई, बहिन जी के छोटे भाई बहिन भोचक्के होकर दीदी को देखने लगे । आखिर सबसे छोटी से न रहा गया तो बोल ही उठी काये री जीजी आज तोय का हो गओ आज तू कैसे बोल रई है </div><div><br /></div><div>मजा तो अब है रोमन भी और शार्टकट भी </div><div>लिखा_ चाचा जी अजमेर गया है</div><div>पढा _ चाचाजी आज मर गया है</div></span>BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com26tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-40402605919213641052011-04-13T05:16:00.000-07:002011-04-16T07:17:29.076-07:00आयोजक की खैर नहींउस दिन मै बात तो कर रहा था कवि गोष्ठी की मगर न जाने कहां से शेर शायरी और पुराने फिल्मी गानों में उलझ गया ।<br /><br />जब मुझे जबरन कवि गोष्ठी का <b>श्रोता</b> बनाकर ले जाया जा रहा था तब मै उनसे यह भी न पूछ पाया कि आज की गोष्ठी किस संस्था या संगठन की ओर से है । बात यह है कि मेरे नगर में राजनैतिक दलों से ज्यादा साहित्यिक संस्थायें, संघ, संगठन , मंच इत्यादि है । हर संस्था में एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष , सचिव, कोष नहीं है फिर भी एक कोषाध्यक्ष तो होता ही है और यदि उस संस्था या संघ में चार से ज्यादा कवि हुये तो फिर एक सह सचिव एंक कोई बुजुर्ग हुआ तो संरक्षक इत्यादि इत्यादि ।<br /><br /><b> जबरन पकड कर लाये गये श्रोताओं के अला</b>वा अन्य श्रोताओं के अभाव में ऐसा प्रतीत होता है जैसे कवि गोष्ठीयों में दिलचस्पी रखने वाला साहित्य प्रेमी आज अनुपलव्ध है क्योंकि श्रोता स्वयं कवि हो चुका है और उसे फिर एक अदद श्रोता की आवश्यकता है।<br /><br />महत्त्व पूर्ण कवि साथी लगातार ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं क्योंकि वे अपनी बात कहना चाहते है वे उत्सुक है अपनी सुनाने को ,अपनी छपाने को साथ ही उसकी यह शिकायत भी है कि उनकी रूचि अनुकूल श्रोता नहीं मिल पाते हैं कवियों के पास विपुल सामग्री है नगर में साहित्यकारों की कमी नहीं फिर भी कवि गोष्ठियों में श्रोता दिखाई नहीं देते<br />साहित्य सृजन कर कवि उसे अभिव्यक्त करना चाहे और उसे उपयुक्त पात्र न मिले या मिलने पर उसके सराहना न करे तो साहित्यकार को मृत्यु तुल्य पीड़ा ( वह जैसी भी होती हो ) होना स्वाभाविक है -यही पीड़ा सम्पादकीय अनुकूलता न मिलने पर हुआ करती थी तो <span class="Apple-style-span" ><b>फिर कवियों या लेखकों को स्वांत सुखाय लिखने को विवश होना पडा </b></span>मैं भी पहले लेख लिख कर भेजता था और खेद सहित वापस आजाता था तो उसे स्वांत सुखाय के पैड में बाँध दिया करता था १५ साल पुराने स्वांत सुखाय वाले लेख जब आज पढता हूँ तो लगता है कि सम्पादक सही थे वे लेख पाठक दुखाय ही थे ।<br /><br />हर कवि कि इच्छा होती है कि वह अपने यहाँ गोष्ठी आयोजित करे मगर या तो वह किराये के मकान में रहता है या पुराने पुश्तैनी मकान में - जिनमें बड़े हाल का अभाव रहता है हालाँकि वह चाय पानी फूल माला सब की व्यवस्था अपनी आर्थिक तंगी के वावजूद करता है मगर उसके बच्चे बच्चियां इसे व्यर्थ का हुल्लड़ कहकर उसकी इच्छा को दवा देते हैं।पत्नियाँ तो खैर पतियों से नाराज़ रहती ही हैं क्योंकि वे गोष्ठियों से देर रात घर लौटते हैं और उनके दुर्भाग्य से और कवि पति के भाग्य से कोई श्रोता घर पर ही आजाय तो चाय बना बना कर परेशान हो जाती है।<br /><br />कवि गोष्ठियों में आयोजक समय देता है 8 बजे कवि एकत्रित होते हैं दस बजे तक । कुछ कवि तो इतनी देर से पहुँचते हैं के तब तक आधे से ज़्यादा कवि पढ़ चुके होते हैं ।इसमे एक फायदा भी है कि उन्हें ज्यादा देर इंतज़ार नहीं करना पड़ता और जाते ही सुनाने का नंबर लग जाता है ।<br /><br />गोष्ठियों में अब जो अपनी सुना चुके है वे वहाँ से <b>खिसकने</b> के मूड में होते है अध्यक्ष बेचारा फंस जाता है भाग भी नही सकता और उसे सब से अंत में पढ़वाया जाता है जब तक चार -पाँच लोग ही रह जाते है । मैंने देखा है अखंड रामायण का पाठ -१२ बजे रात तक ढोलक मंजीरे हारमोनियम ,,दो बजे तक तीन चार लोग रह जाते है अब एक जो व्यक्ति तीन बजे फंस गया सो फंस गया सुनसान सब सो गए इधर इधर देखता रहता है और पढता रहता है काश कोई दिख जाए तो उससे पांच मिनट बैठने का कहकर खिसक जाऊँ -मगर कोई नहीं =न बीडी पी सकता है न तम्बाखू खा सकता है ,तीन से पाँच का वक्त बडा कष्ट दाई होता है /<span class="Apple-style-span"><b>सच है भगवान् जिससे प्रेम करते है उसी को कष्ट देते हैं इससे सिद्ध हो जाता है की तीन बजे से पाँच बजे तक पाठ करने हेतु अखंड रामायण में फसने वाले और गोष्ठियों के अध्यक्ष से ही भगवान् प्रेम करते हैं ।</b></span><br /><br />कवि की कविता पूर्ण होने पर दूसरे कवि तालियाँ बजाते है और बीच बीच में वाह वाह करते रहते है वास्तव में तालिया इस बात का द्योतक होती है कि <b>प्रभु माइक छोड़ अपनी सिंहासन पर विराजमान होजाइये </b>मगर जब वह वहीं बैठ कर डायरी के पन्ने पलट कर सुनाने हेतु और कविताये ढूढने लगता है तो शेष कवियों के दिल की धड़कन बढ़ जाती है, उधर कवि भी तो कहता है कि एक छोटी सी रचना सुनाता हूँ और फ़िर शुरू होजाता है और उसकी छोटी सी रचना खत्म होने का नाम नहीं लेती।-शेष कवियों की भी कोई गलती नही वर्दाश्त की भी हद होती है ,क्योंकि कवि का जब तक नम्बर नही आता सुनाने का तब तक उसे बहुत उत्सुकता रहती है और ज्यों ही उसने अपनी सुनाई बोर होने लगता है दूसरे दिन समाचार पत्र में प्रकाशित होता है। कवि सबसे पहले उसमें अपना नाम देखता है इत्तेफाकन किसी कवि का नाम छूट जाए या उसके व्दारा पढी गई लाइन पेपर में न दी जाये तो <b>आयोजक की खैर नहीं ।</b>BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com32tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-76299861873751127622011-03-31T01:03:00.000-07:002011-03-31T01:05:56.118-07:00औरु करै अपराध कोऊएक दिन घर पहुंचने में <strong>जरा</strong> देर होगई ,लगभग एक बज गया होगा रात का । दरवाजा खुलवाया तो यू समझ लीजिये साहब कि बिल्कुल आग, और हमें गुनगुनाते हुये , मुस्कराते हुये देख लिया तो बिल्कुल ज्वाला । । टेन्शन में तो थीं ही , बिना बताये धर के बाहर चला जाना और रात एक बजे तक न लौटना गुस्सा स्वभाविक है। तो किसी को मुस्कराते गुनगुनाते देख कर चिढ जाना या और क्रोधित होजाना ,ये तो होना ही था।<br /><br />गये थे तो खाना खाकर पान खाने मगर कुछ कवित्त रसिक मिल गये मालूम हुआ कवि गोष्ठी रखी है हमसे ही पान खाये और हमे ही पकड लेगये भला इतना अच्छा श्रोता फिर कहां मिलेगा। मगर जैसा कि हर कवि सोचता है ‘<br /><br />‘झूंठी वाह वाह ही सही दिल तो वहल जाता है,,<br />वरना हम आपकी वाह वाह को नहीं जानते क्या<br /><br /> मगर उन्हे तो वाह वाह सुनना था ।घर पर फोन से सूचना भी नहीं देने दी भले आदमियों ने ।सोचा होगा सुनने को तो बुलाया ही है इसे भी चांस देदो तो और भी मन लगाकर सुनेगा । हमसे भी कहा कुछ सुनाओ । सुनाया ,तो और लोगों ने तालियां भी बजाई । लोगो ने वाह वाह भी की एसा लगा कि हम बडे कवि होगये इतने लोग हमे सराह रहे है जम कर तालियां बजा रहे है। चेहरे पर स्वाभाविक मुस्कान थी और थोडा थोडा गुव्वारे जैसा भी, तालियों की गडगडाहट से , फूल भी गये थे सो गुनगुनाते हुये घर पहुंचे थे यह जानते हुये भी कि <br /><br />सच है मेरी बात का क्या एतबार <br />सच कहूंगा झू्रंठ मानी जायेगी <br />फिर भी हमने मतलब मैने स्पष्टीकरण देना शुरु कर दिया । कवि गोष्ठी थी हमने रचना सुनाई तो लोगों ने जम कर तालियां बजाई वजाते ही रहे बजाते ही रहे। पूछा कहां थी कवि गोष्ठी , हमने कहा बापू पार्क में । बोली वहां तो मच्छर बहुत है।<br /><br />ठीक है भैया ऐसा ही सही वे मेरी कविता नही सराह रहे थे बस खुश और करे अपराध कोउ और पाव फल कोउ । गलती तो उन लोगों की है न जो कह गए <br />।ओ फूलों की रानी बहारों की मलिका तेरा मुस्कराना गजब हो गया। क्या जरुरत थी साहब । चौहदवीं का चाद हो या आफताव हो वाह साहब, अरे जब आफताब कह ही दिया था तो और स्पष्ट भी कर देते कि आफताब मई जून का, नौतपे का बिल्कुल रोहणी नक्षत्र का , मगर नहीं और इससे भी सब्र न हुआ तो कल चौहदवीं की रात थी शव भर रहा चर्चा तेरा ।इनको ऐसी चर्चाओं से ही फुरसत नहीं मिलती थी किसी से कोई मतलव ही नहीं था वस वालों को नागिन कह दिया घटा कह दिया सिमटी तो नागिन फैली तो घटा,और तो और एक शायर साहब पधारे वोले <br /><br />मेरे जुनू को जुल्फ के साये से दूर रख <br />रास्ते मे छांव पाके मुसाफिर ठहर न जाये<br /><br />क्या है ये । भैया जुल्फ हैं या बरगद का दरख्त । तसल्ली फिर भी न हुई तो कहा गया हंस गये आप तो बिजली चमकी कहने वाले यह भूल गये कि इसके बाद एसा डरावना गरजता है कि क्या बताये।घन घमंड नभ गरजत घोरा ...डरपत मन मोरा । गलतियां तो पुरानों ने बहुत की है उसका खामियाजा आज की पीढी भुगत रही है या उस को भुगताया जा रहा है अब उन्हौने गलती की या वह जमाना ही एसा था यह बात जुदागाना है मगर गलती की है तो मानी भी जारही है और फोरफादर्स के कर्मों की सजा अब दी भी,जारही है।BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-84209671393686732011-02-27T17:46:00.000-08:002011-03-18T02:05:26.250-07:00बुडढा मिल गयासंगम में एक गाना था ,हरिव्दार में नहीं बल्कि फिल्म संगम में <blockquote> मै का करूं राम मुझे बुडढा मिल गया</blockquote>।उस गाने को बार बार दुहराती है जब भी किसी बात पर इनका विरोध करो मै का करूं राम बहुत समझाया हंसी में मजाक में व्यंग्य में ताने के रुप में उलाहने के रुप में बार बार इस गाने को नहीं गाना चाहिये इससे पुरुष का मनोबल गिरता है वह मानसिक दुर्वलता का शिकार हो सकता है मगर नहीं साहब। एक बात तो है एक उमर के बाद आदमी सठिया तो जाता है।आश्चर्य तो होगा यह जानकर कि बुडठा बुडढो की बुराई कर रहा है ।तो मेरा कहना यह है कि <br /><br /> यूं .........कि जब धन्नो घोडी होकर तांगा खीच सकती है , वसंती लडकी होकर टांगा चला सकती है तो मै बुडढा होकर बुडढों की बुराई क्यों नहीं कर सकता । वैसे हकीकत वयान करना बुंराई करना थोड़े ही होता है ।<br /> असल में होता क्या है कि ये लोग एक उम्र के वाद सठिया जाते है । सठ को शठ भी सुविधा और संतुलन की दृष्टि से प्रयोग किया जासकता है । शठ सुधर नहीं सकते एसी बात भी नहीं है।<br />शठ सुधरहि सत संगति पाई कैसे वो ऐसे कि <br />पारस परस कुधात सुहाई । <br /><br /> मगर इन बुडढो का आलम यह है कि <br />तुलसी पारस के छुये कंचन भई तलवार <br />पर ये तीनो न गये धार मार आकार ।<br /><br />और उसका भी कारण है ये हमेशा अकडे ही रहे झुके तो केवल बास के सामने वाकी बीबी और बच्चों के लिये तो अकडे ही रहे कमर झुक गई मगर अकड जाती नहीं । रस्सी जल गई पर बल न गया।<br />वैसे सतसंगति के लिये यहां पारस की कमी भी नहीं है।सतसंगत के लिये टीवी चैनल है ,विगबास है, उसमें विदेश से पधारी हुई बाला एडरसन,बेचारी यहां आई अपना घर परिवार छोड कर सतसंगति देने और उनको मिला क्या मात्र सात करोड। सुना है उनका स्वागत करने एक झलक पाने बहुत तादाद में लोग हवाई अडडे पर गये थें ।फिर अपने यहां क्या कम पारस है अपने यहां भी इन्साफ वाली बाई,और भी अनेक हैं जिनकी विचारधारा यह है कि पुरुष जब कपडे उतार सकता है एक अभिनेता है वे इसी तलाश में रहते है कि कब बनियान फैक कर गाना गाने को मिले आखिर मसल्स बनाये किस लिये है जिम जा जा कर तो फिर लडके और लडकी यह भेद भाव क्यों यहां समानता क्यों नहीं । मगर बुडढों को ये बात समझ में नहीं आती क्योंकि उन्हौने वह जमाना देखा होता है जब बेटी पूछती थी मां जीन्स पहिन लूं क्या तो मां कहती थी मत पहिन बेटी लोग क्या कहेंगे । आज जब बेटी कुछ पहिनने को पूछती है तो मां कहती पहिन ले बेटी कुछ तो पहिन ले।<br /><br /> हां तो मै इन बुडढों की बात कर रहा था ये अकडूचंन्द सौने के होकर भी तलवार बने रहते है । इनकी बातें सुनो कुन्दनलाल और नलिनीजयवन्त की बाते करेंगे साथ ही हमारे जमाने में एक रुपये का सोलह सेर गेहूं आता था । अरे आता होगा हमे क्या लेना देना ।अर्ली टू बैड वाली बात करेंगे अरे इनको कौन समझाये जल्दी सोना जल्दी उठना उस जमाने की बाते हैं आज तो असल चैनल तो रात 12 बजे के बाद ही शुरु होते है। उस पर तुर्रा ये कि घर वाले हमको नजरअंदाज करते है हमारी उपेक्षा करते है और तो और वो भी सात फेरों वाली बच्चों की ही तरफ बोलती है । अरे भइया पहले वह डर के कारण तुम्हारी तरफ बोलती थी अब डर खत्म । बच्चे हो गये कमाने वाले और जमाने का कायदा है आपने भी देखा होगा गमले में पौधे लगाते है पानी डालने का ध्यान रखा जाता है मैने तो नहीं देखा किसी को कि किसी ढूंढ मे पानी डाल रहा हो तो ये समझते ही नहीं कि हम ठूंठ हो चुके है । <br /><br />और इनकी बाते देखों जैसे सारे संसार काअनुभव इन्हे ही हो और डाई करके कहेंगे ये कि ये वाल घूप में सफेद नहीं हुये कमाल है। जहां तक मै समझता हूं पुराने लोगो को न तो बात को समझने की क्षमता होती थी न बोलने का तरीका आता था । <br /> एक ही लेख में ज्यादा बुराई भी नहीं करना चाहिये शेष बुराई आगे के लिये छोडते है।BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-4716660077511602342011-02-19T21:55:00.000-08:002011-02-19T22:00:51.061-08:00गैर हाजिरी मुआफजब मेरा स्वास्थ्य खराब हुआ था तभी मै समझ गया था कि न जाने कितने हाथों से गुजरुगा रेल में खरीदे हुये अखबार की तरह और सच ही जो भी तबीयत देखने आया अपने अनुभव और दवाओं की जानकारी साथ लाया । बात मात्र इतनी थी कि पीठ में दर्द हुआ था लेकिन दुष्यंत कुमार जी की मानें तो ** पक्ष औ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं बात इतनी है कि कोई पुल बना है"। पैथियां इतनी प्रचलित है कि मरीज़ दुबिधा में ही रहता है मैं इधर जाउं या उधर जाउं ।और फिर सलाहकार । कहते है संसार में सबसे ज्यादा दी जाने वाली कोई चीज है तो वह है सलाह और सबसे कम ली जाने वाली कोई चीज है तो वह है सलाह <br /> ।<br /> वैसे तो दर्द सभी खराब होते है मगर पीठ का बापरे न उठ सकते न बैठ सकते चीख निकलजाये जरासी हरकत पर । उनका कहना था कि जल्दी से किसी डाक्टर को बतलादो एक्सरे करवालो । मगर तबीयत पूछने आये एक ने कहा भाभी जी इन डाक्टरों के चक्कर में पड मत जाना ।हमारे चाचाजी को ऐसे ही पीठ में दर्द हुआ था न जाने कैसा इन्जेक्शन लगाया कि लकवा हो गया आज तक घिसट रहे है और एलोपैथी में इसका इलाज है भी नहीं कहदेंगे स्लिप डिस्क है आराम करो दबायें खाओ।एक और ने समर्थन किया कि कि सही बात है एक को डाक्टर ने बतादिया वरट्रीब्रा कलेप्स हो गया है और आपरेशन कर दिया बेचारे ने पूरी जिन्दगी व्हील चेयर पर बिताई।मेरी मानो तो होमियोपैथ को दिखालो।<br /> सही भी है होमियोपैथी एक पध्दति है जिसकी दवायें निरापद होती है केवल दवा का नाम मालूम होना चाहिये लाते रहो खाते रहो। इसीलिये होमियोपैथी का डाक्टर कभी मरीज को पर्चा बना कर नहीं देता है न दवा का नाम ही बताता है नाम लिख दिया तो मरीज को जानकारी हो जायेगी और दस रुपये की दवा के पचास बसूल करने में दिक्कत होगी ।<br />होमियोपैथी है बडी विचित्र इसके नाम जितने अटपटे है उतने आश्चर्यजनक इनके तत्व होते हैं जैसे एक प्रकार का सर्प चेचक का बीज स्पेन का मकडा धतूरा आदि । घतूरा पर से याद आया एक मरीज के लक्षण मानसिक रोगी जैसे नजर आने पर चिकित्सक ने किताबों के अध्ययन से पाया कि इसे स्ट्रेमोनियम दी जाना चाहिये । चूंकि दवा उसके पास खत्म हो गई थी उस दबाई का कन्टेन्ट था धतूरा तो पास में लगे धतूरे के पत्ते निचोड कर मरीज को पिला दिये । इससे मरीज.......<span style="font-style:italic;">।कुछ बाते इशारे में कही जाती है जैसे कि एक युवक ने टंकी में यह देखने के लिये कि इसमें पैट्रोल है या नहीं । माचिस जलाई । पेट्रोल था। आयु 35 व</span>र्ष। धतूरे को कनक कहते है कहते है इसके खाने से आदमी पागल हो जाता है। स्वर्ण को भी कनक कहते है कहा है ‘‘कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय । ये खाये बौरात है वो पाये बौरात । खैर उस चिकित्सक का मुकदमा तो सुप्रिम कोर्ट तक गया <br /> <br /> <br /> <br /> एक सलाहकार और आये बोले बाबूजी कुछ नहीं तुमने कोई बजन उठा लिया होगा तो चोडरा कुसका चला गया है हमारे <span style="font-style:italic;">ग्रामीण क्षेत्र में पीठ के नीचे हिस्से यानी लम्बर रीजन में अचानक दर्द होने लगने को चोडरा चला जाना या कुस्का चला जाना कहा जाता है</span> । मै तलाश करता हूं अगर कोई व्यक्ति उल्टा पैदा हुआ होगा तो उससे आपकी कमर में लात लगवा देंगे दो दिन में आराम हो जायेगा । मुझे याद आया एक थानेदारसाहब का चोडरा चला गया था <span style="font-weight:bold;">तो शहर के जितने गुन्डे बदमाश थे सब पहुंच गये हुजूर हम उल्टे पेदा हुये है</span><br /> गरज यह कि जितने मुह उतनी दबायें।कहीं की मिटटी लपेटी न जाने कहां कहां के पानी से नहाये।जन्तर मन्तर जादू टोना । उसी बीच मालूम हुआ एक स्थान पर मेला लगा है मरीज इधर से खटिया पर लेटा हुआ जाता है और उधर से दौडता हुआ आता है वहां भी गये हालांकि वहां तो कुछ भेंट नहीं ली जाती थी परन्तु ठहरने की जगह व महगाई महानगर से भी ज्यादा ।<br />कृपया गैर हाजिरी को माफ़ करेंBrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-18719876469502278252010-12-04T22:49:00.000-08:002010-12-04T22:50:58.298-08:00सुन साहेबा सुनयदि अवकाश के दिन सबेरे सबेरे कोई किसी के घर चाय पीने आजाये और अपनी कवितायें ,गजल,लेख सुनाने लगे या फिर कोई सुबह सुबह अपने घर पर चाय के लिये आमंत्रित करे और उनका बेटा गाने लगे ’’उन्हे अपनी रचनायें सुनाना है इसी लिये डैडी ने मेरे तुम्हे चाय पे बुलाया है ’’ <br /><br /> सुनना कई प्रकार का होता है जिसमें ’’मन से सुनना’’ और ’’ बेमन से सुनना ’’ लोक में प्रचलित हैं । बेमन से सुनने वाला वर्षो तक याद रहता है और बेमन से सुनने वाले की क्या क्या गतिविधियां थी यह भी याद रहता है ’’बेरुखी के साथ सुनना दर्दे दिल की दास्तां और तेरा हाथों में वो कंगन घुमाना गुलाम अली साहब को आज तक याद है। सुनने वाला बार बार घडी देखने लगे जम्हाई लेने लगे तो सुनाने वाले को इस बात की परवाह नहीं होती है।वैसे यह सत्य है कि कभी अकारण सी वेचैनी होने लगे, जी घबराने लगे, किसी काम में मन न लगे, कुछ भी अच्छा न लगे, अनर्इजी फीलिंग होने लगे तो किसी को पकड कर अपनी रचनाये सुनाना एक ट्रेक्युलाइजर का काम करता है फिर चाहे सुनने वाले को चाय पिलाना पडे या जलेवियां खिलाना पडे।<br /><br />मैने सुना है एक सज्जन बीमार हुये, वैसे सज्जन लोग कम ही बीमार होते है,मगर हो गये क्या करे। डाक्टर ने आठ घन्टे खतरनाक बताये कहा आज की रात निकल जाये तो मरीज खतरे से बाहर हो जायेगा । रात कैसे निकले ।उन सज्जन का एक सज्जन बेटा भी था वैसे बेटे आज कल सज्जन होते नहीं है मगर होगया इत्तेफाक है तो उसने पापा के पुराने दोस्त को बुलाकर कहा अंकल किसी तरह रात निकलजाये । अंकल ने कहा यह कौनसी बडी बात है , मानवमस्तिष्क से परिचित वे जानते थे कि मरीज का ध्यान डायवर्ट करदो आधी बीमारी उसकी दूर हो जाती है । मित्र अंकल कमरे में गये और जाकर अपने मरीज मित्र से कहा यार वो भी क्या दिन थे जब तुम स्कूल में गजले लिखते थे फिर कालेज पहुंचते पहुंचते तो उनमें बहुत बजन आ गया था अव रिटायरमेन्ट के बाद उनका कुछ उपयोग करे । बीमार को करार आया बेबजह आया या बाबजह आया मगर आया।इशारे से उन्हौने अपनी पुरानी डायरियां निकलवाई । पहले मंद्र फिर मध्यम और फिर तारसप्तक में शुरु हो गये ।बेटे बेटी कमरे से बाहर बैठे आवाज सुनते रहे घडी देखते रहे वक्त गुजरता गया खतरे की अवधि समाप्त । कमरे में गये पिताजी जोर जोर से रचना पाठ कर रहे थे और वगल में मित्र अंकल मरे डले थे।<br /><br /> ये सुनने सुनाने का सिलसिला ’सुनो सजना पपीहे ने कहा सबसे पुकार के’ के पूर्व से चला आरहा है और सुन सुना आती क्या खण्डाला के बाद भी निरंतर जारी है।<br /><br />मेरे नगर में पैसेन्जर गाडी रात 12 वजे आकर रात्रि विश्राम करती है सुवह आठ बजे जाती है। जिस दिन स्टेशन पहुचने में जरा देरी हो जाये उस दिन बिल्कुल राइट टाइम चली जाती है, मगर देर नहीं हुई थी तो गाडी का लेट होना स्वाभाविक था । साडे आठ बज गये ,पौने नौ बज गये आज क्या बात होगई कही कोई क्रासिंग तो नहीं है। ये क्रोसिंग भी मजेदार चीज होती है इंशाअल्लाह कभी मौका लगा तो इस पर भी अर्ज करुंगा ।यात्री परेशान शीटी रेल की बज रही है एनाउन्स हो रहा है गाडी स्टेशन छोडने वाली है मगर हरी झंडी दिखाने वाले गार्ड साहब गायब है। तलाश की तो बडी देर बाद मिले गाडी के पीछे खडे हुये शेर सुना रहे हैं और कुली दाद दे रहे हैं ।<br /><br /> अदालत सुनी सुनाई बात पर विश्वास नहीं करती है। गुलाम अली साहब ने कहा सुना है गैर की महफिल में तुम न जाओगे किसी ने गाया सुना है तेरी महफिल में रतजगा है किसी वकील से पूछो यह हियर से की श्रेणी मे आता है ।<br /><br /> सुनना ठीक है कहते है जीभ एक और कान दो इसी लिये होते है मगर सुनना वाध्यकारी नहीं होना चाहिये सुन साहिबा सुन मैने तुझे चुन लिया तू भी मुझे चुन । मतलव यह तो दादागिरी होगई । तूने चुना तेरी मरजी मगर किसी पर यह क्यों थोपना कि तू भी मुझे चुन ।BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-3975957621945839792010-11-13T06:34:00.000-08:002010-11-13T06:40:06.099-08:00एडजस्टमेंट<span style="font-weight:bold;">मात्र काल्पनिक, किसी जीवित या मृत व्यक्ति का इससे कोई लेना देना नहीं है।</span><br /><br /> आफिस से आने में जरा देर क्या होगई देखा दरवाजे पर खडी खडी रो रहीं है ,देखते ही चेहरे पर एक सुकून आया ,एक तसल्ली हुई,, आज न जाने कौन से पुण्य उदय हुये कहकर और ,जाकर सीधे भगवानजी के चित्र के सामने साष्टांग दण्डवत , प्रभू तेरा लाख लाख शुक्र है ,बेटे को आवाज दी जा जल्दी से 21 रुपये की मिठाई ले आ भगवान को प्रसाद बोला था । मगर हुआ क्या ? एक तो आफिस से आने में देर करदी और फिर पूछते हो हुआ क्या । लेकिन इतनी घबराई हुई क्यों हो, रो क्यों रही थी ? अभी सामने वाले हैन्डपम्प पर कुछ औरते बातें कर रही थी कि एक बेवकूफ किस्म का पागल सा दिखने वाला आदमी बस से कुचल गया ऐसे में ही तुमने देर करदी अब तुम्ही बताओ ?<br /><br /> दौनों को तसल्ली थी एक को सोहाग बच जाने की और दूसरे को खुद के बच जाने की ,दौनो डबडबाई आंखों से एक दूसरे को देर तक देखते रहे तब तक बच्चा पूरी मिठाई खा गया ।<br /><br /> एडजस्टमेंट उसे कहते हैं कि<br />तू हंस रहा है मुझपे मिरा हाल देख कर-और फिर भी मै शरीक तेरे कहकहों में हूं<br />एडजस्टमेंट किया जाता रहना चाहिये ।कलम उठाई कुछ कविता लिखने के लिये लिखा जिये तो जियें केसे संग आपके इतने में ही वह चाय लेकर कमरे में आई फौरन "" संग"" शव्द काट कर "" बिन"" कर दिया । कौन क्या कहना चाह रहा था कौन क्या लिखना चाह रहा था और उसे क्या कहना पडा और क्या लिखना पडा यह हर कोई तो समझ नहीं पाता<br /><br /> सिर्फ शायर देखता है कहकहों की असलियत<br /> हर किसी के पास तो ऐसी नजर होती नही<br /><br />कभी कभी एडजस्टमेन्ट मुश्किल भी होजाता है। शिवचालीसा का पाठ कर रहा था। हर देवी देवता के चालीसा मौजूद है और कुछ भक्तों ने तो कुछ मुख्यमंत्रियों के चालीसा भी तैयार किये थे फिर पता नही कि बच्चों के कोर्स में वे रखे गये या नहीं। खैर तो शिव चालीसा में एक लाइन आती है ले त्रिशूल शत्रु को मारो इस लाइन पर आवाज जरा उंची होगई कि " ले त्रिशूल शत्रु को मारो" तो किचिन में से आवाज आई कुछ भी करलो मेरा कुछ नहीं विगड सकता हैं । कहा ये तुम्हारे वारे में नहीं है इसका तात्पर्य ये है कि तुम्हारे शत्रु को मारे फिर किचिन में से आवाज आई मतलब को एक ही हुआ , मै कहां फेमली पेन्शन के लिये दर दर भटकती फिरुंगी ।एसी ही आपवादिक परिस्थियों के लिये रहीम ने कहा होगा कह रहीम कैसे निभे केर बेर को संग होता है<br /><br />कभी कभी ऐसी परिस्थियां हो जाया करती है कि कहा भी न जाये चुप रहा भी न जाये' तब बडी दिक्कत हो जाती है क्योंकि डाक्टर बशीर बद्र साहेब का शेर है मै चुप रहा तो और गलत फहमियां बढीं,// वो भी सुना है उसने जो मैने कहा नहीं<br />l वैसे आमतौर पर एडजस्टमेंन्ट किया जाता है और क्या किया जाना चाहिये , अब यदि आफिस का बॉस कहे कि सुनो श्रीवास्तव जी मैने एक शेर लिखा है तो सुन कर यह तो नहीं कहा जासकता कि वाह हुजूर क्या लीद की है बल्कि यही कहा जायेगा वाह साहव क्या बात है एक बार फिर सुनाया जाय ।मुशायरे की भाषा में इसे मुकर्रर कहते है। एक शायर माइक पर आया और कहा हाजरीन अपनी गजल के चंद शेर पेशे खिदमत है तबज्जो चाहूंगा एक श्रोता ने पहले ही कह दिया मुकर्रर अपना सिर पकड कर शायर अपनी जगह पर जा बैठा।<br />lBrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-71788146434204019822010-11-08T04:19:00.000-08:002010-11-08T04:23:45.258-08:00चमत्कारचमत्कारों से अपरिचित लोग उन्हे कई नामों से से सम्बोधित करते है तथा कई दफे बहुत वारीकी से देखने के वाद भी कोई चीज समझ में नहीं आती तो उसे हाथ की सफाई, जादू, कालाजादू, मेस्मेरेजम, नजर बांधना, ट्रिक फोटोग्राफी कैमिकल्स का सम्मिश्रण आदि इत्यादि कह दिया जाता है - लेकिन चमत्कार वह होता है जिसे सभी प्रकार के लोग देखे भी और माने भी । मंत्र की शक्ति का तो पता नहीं मगर मंत्री में राजा को रंक और रंक को राजा बनाने की शक्ति जरुर होती है। मैने देखा है मंदिरों में ज्यादातर भगवान की मूर्तिया खडी निर्मित की जाती है ।मैने एक पुजारी से पूछा यार तुम्हारे भगवान हमेशा खडे क्यों रहते है उसने बडी सादगी से कहा वो क्या है साहब इधर मंत्री वगैरह आते रहते है '<br /><br />।मुझे पता नहीं कि मंत्र में इतनी शक्ति होती है या नही कि वह किसी चलती हुई मशीनरी को रोकदे।<br /><br /> ट्रेन जब स्टेशन से रवाना होने को हुई तो एक लंगोट धारी ??-उसमें प्रविष्ठ हुये । रेल में सफर करने वाले जानते है कि यात्रियों के टिकिट की चैकिंग कभी स्टेशन पर खडी गाडी में नहीं होती है -चलती गाडी में होती है क्योंकि एक तो लोग चढ उतर रहे होते है दूसरे कोई स्टेशन पर उतर कर सह सकता है कि मै बैठा ही न था। चलती गाडी में बिना टिकिट यात्री चैकर के पूर्णरुपेण वश में हो जाता है चलती ट्रेन में से उतर न सकने के कारण उसे चेकर की मन की मुराद पूरी करना पडती है। मगर उस दिन जो नहीं होता वह हुआ चेकिंग स्टेशन पर खडी गाडी में हुआ । चेकर को आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास था कि ??के पास टिकिट नहीं है और वास्तव में होता भी नहीं है। दो तीन मिनट रहगये थे गाडी रवाना होने में कि चैकर और ??में झगडा होगया ।चैकर अपनी जिद पर अडा था कि टिकिट लेना होगा और वे एक विशेष प्रकार की गाली जो आम तौर पर ये लोग उच्चारित करते हैं उच्चारित करते हुये कह रहे थे हमसे टिकिट मांगता है। बात में दम हो या न हो मगर आवाज में दम थी ।बात वढना थी सो बढ गई। ??रेल से स्टेशन पर उतर आये और जोरदार आवाज में कहा अब तू गाडी लेजाकर बतलादे ।<br /><br /> अब देखिये जनाब कि गार्ड हरी झंडी दिखा रहा है ट्रेन जोरदार शीटी की आवाज निकालती है स्टार्ट होती है और थोडा हिल डुल कर फिर रुक जाती है। उस में विभिन्न जाति, सम्प्रदाय के लोग थे -परम आस्तिक और घोर नास्तिक भी थे। मन्त्र शक्ति में विश्वास करने वाले और उनके विरोधी वैज्ञानिक भी उस गाडी में सवार थे । ट्रेन की आधी सवारी स्टेशन पर उतर आई थी । लोग आग्रह कर रहे थे कि चैकर माफी मांगले । मगर वह भी पक्का गवर्नमेन्ट सरवेन्ट था माफी क्यों मांगू मैं अपनी डयूटी देरहा हूं उसे तनखा इसी बात की मिलती है डयूटी न करुं तो सरकार तनखा देती है और करुं तो मजबूर यात्री और शौकिया यात्री सरकार से भी ज्यादा देते है। ड्राईवर ने हाथ जोडे भैया मांगले माफी क्या विगडता है गाडी लेट होरही है गार्ड ने हाथ जोडे मगर जिद यह कि इसने टिकिट मांगा तो क्यों मांगा । भीड व्दारा अनुनय विनय करने के बाद बमुश्किल-तमाम चैकर ने चरणों में गिर कर माफी मांगी ।और देखते देखते गाडी थोडी हिलडुल कर स्टार्ट होगई । ?? की जयकारे की आवाज गूंजने लगीं ।<br /> स्टेशन के पास ही शासकीय रिक्त पडी भूमि पर पहले कुटिया बनी फिर विशालकाय भवन, धर्मशालायें बनी ।लोगों की श्रध्दा धन के रुप में प्रकट हुई जो जितना श्रध्दावान था उसने उतना ही चढावा चढाया और सिलसिला सतत जारी रहा। अब ?? करोडों में खेल रहे है और बेचारे रेल के ड्राईवर गार्ड और चैकर को मात्र एक-एक लाख रुपये में ही संतुष्ट कर दिया गयाBrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com22tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-67959867578409076622010-10-15T07:39:00.000-07:002010-10-15T07:46:21.844-07:00समाचारहम समाचारों को चार वर्ग में विभक्त कर सकते हैं । अन्तर्राष्ट्रीय राष्ट्रीय प्रादेशिक और क्षेत्रीय ।क्षेत्रीय समाचार कुछ ऐसे होते है जिन्हे न समाचार कहा जा सकता है न अफवाह मगर इनमें से ही कुछ होती/होते है।ये अफवाह या समाचार न टीवी पर दिखाये जाते है न पेपर में छपते है लेकिन आदमी औरत बूढा बालक सबको मालूम रहता है । मै एसे ही दो क्षेत्रीय समाचारों से आपको अवगत कराना चाहूंगा।<br /><br /><br /><br /> एक वार सुनने में आया कि एक गिलकी सब्जीः से भरा हुआ ट्रक जारहा था । रात का वक्त था सडक पर नाग नागिन का एक जोडा था । ट्रक ने उन्हे कुचल दिया । तो साहब उस जोडे ने श्राप दिया कि गिलकी के पत्तों पर नाग नागिन की छवि उतर आयेगी । लोगों ने गिलकी के पत्ते देखे वाकई सफेद रंग की सर्प जैसी आकृति थी । मैने भी देखी ।यह समझ में नहीं आया कि उस जोडे ने मरने के वाद श्राप दिया या कि मरते मरते ।फिर गलती ड्रायवर की थी दण्ड उसको मिलना चाहिये था अब्बल तो आप रात में सडक पर गये ही क्यों मगर श्राप तो दे चुके तो दे चुके । अब साहब हालत ये कि सव्जी बेचने बाला कहे कि साहब एक रुपये की एक किलो ले लो तो भी कोई तैयार नहीं यहां तक कि कोई गिलकी मुफत में लेने को भी तैयार नहीं । जब तक कृषि विभाग यह तय करता कि यह कुछ नहीं एक कीडे का लार वा है इससे न तो फसल को कोई नुक्सान होता है न सब्जी खाने वाले को कोई नुक्सान है तब तक तो आलू का स्टाकिस्ट जिसके दो साल से आलू कोल्ड स्टोर में पडे थे और कोई खरीददार नहीं मिल रहा था उसके पास एक किलो आलू भी न बचे।<br /><br /> एक वार जब मै अपने नगर गया तो क्या देखा कि सभी के मकानों पर दरवाजे के दौनो तरफ हल्दी के हाथ के निशान बने थे । पूछा भैया ये क्या है तो मालूम हुआ कि एक चुडैल याने भूतनी भिखारन बन कर आयेगी ,वह प्याज और रोटी मांगेगी । जिसके दरबाजे के दौनो ओर ऐसे हल्दी के हाथ बने होंगे उस घर नहीं जायेगी। मै अपने मित्र के घर गया तो वहां भी । मै जानता था वे एसी बातों में विश्वास नहीं करते तो मैने पूछा भाई ये क्या बोले मै इन बातों में विश्वास नहीं करता । मैने पूछा फिर ये हल्दी के हाथ दरवाजे पर \बोले उसमें हर्ज ही क्या है ।कुछ दिन रह कर मै तो वापस आगया फिर पता नहीं चुडैल आई या नही हो सकता है आई हो तो हाथ के निशान देख कर वापस लौट गई हो परन्तु इतना अवश्य पता है कि एक माह वाद होने वाले चुनाव में कांग्रेस उस क्षेत्र से भारी बहुमत से विजयी हुइ थी ।<br /><br /> चलते चलते एक बात और वता दूं कि कुछ लोग भूतों पर विश्वास नहीं करते कहते है यह वहम है लेकिन हुजूर<br /><br /> <br /><br /> एक दिन भूत के बच्चे ने भूत से कहा<br /><br /> पापा आज मुझे आदमी दिखा<br /><br /> भूत ने कहा बेटा आदमी वगैरा कुछ नहीं होता है<br /><br /> यंे अपन लोगों का वहम होता है<br /><br /> मै तो दिन में रात में<br /><br /> हाट में बाजार में<br /><br /> राज में दरवार में<br /><br /> गली और मैदान में<br /><br /> खेत और खलिहान में<br /><br /> संसद और विधान में<br /><br /> हर तरफ रहता हूं फिरता<br /><br /> मुझको तो कभी कोई आदमी नहीं दिखताBrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com29tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-76171403514083592682010-09-23T10:58:00.000-07:002010-09-23T11:10:52.014-07:00यक बंगला बने न्याराब्लॉग बना लेना जितना सरल है ब्लॉग पर निरंतरता बनाये रखना उतना ही कठिन है और भी सांसारिक परेशानियाँ है मै इतनी लम्बी अवधि तक अनुपस्थित रहा उसकी वजह और परेशानियाँ आप से शेयर करना चाहूंगा यह/ जानते हुए भी कि आजकल कौन किसके गम शेयर करता है| मैंने बहुत पहले हाऊसिंग बोर्ड में एक मकान बुक किया था कुछ नगद वाकी सब फाइनेंस , आजकल फाइनेंस इतना सरल हो गया है कि कुछ न पूछो यद्यपि जितना स्वीकार होता है उससे कम मिलता है मगर यह क्या कम है कि वगैर महनत के मिल जाता है, और भुगतान करेंगे तब देखा जायेगा|रीणम कृत्वा घृतं पिवेत तो साहब मुझे सूचना मिली कि आकर मकान का आधिपत्य प्राप्त करें | उस दिन पूरा घर चहक रहा था आपने मकान की लालसा हर किसी को रहती है कुंदन लाल सहगल ने गाया करते थे " यक बंगला बने न्यारा" ग़ालिब साहेब के पास तो पैसों की ही तंगी रहती थी मगर इच्छा तो उनकी भी थी तो उन्होंने यूं किया " बे दरो दीवार का इक घर बनाया चाहिए" काहे का कारीगर काहे का सीमेंट एक तो गाता ही रह गया " इक घर बनाऊंगा तेरे घर के सामने" क्या पता बेचारा बना भी पाया या नहीं तो साहब उस खुशी के माहोल में मैंने " पिय तन चितहि भोंह कर वांकी" वाले अंदाज में बेटे से कहा भैया अपन नए घर में चल रहे हैं पुरानी चीजें यहीं छोड़ चलेंगे | मै मुस्करा भी नहीं पाया था कि " हाँ छोड़ तो जाओगे तुम भी तो पुराने हो गए हो तुम भी मत जाओ" |<br /> <br /> सब सदस्य सामान को नए घर में व्यबस्थित करने लगे थे मुझे फुर्सत थी सो मैंने टीवी खोल लिया एक चेनल रत्नों की जानकारी दे रहा था, चैनल बदला तो दूसरा ग्रहों की शांति के उपाय बतला रहा था, तीसरा चैनल खोला तो उसने बताया कि आपका मकान दक्षिण मुखी नहीं होना चाहिए सुनते ही मैं घबरा गया| बेटे को आवाज़ लगाईं भैया उत्तर किधर है ? वह बोला प्रश्न किधर है? मैंने कहा नहीं रे उत्तर दिशा किधर है उसने कहा आपकी पीठ तरफ | अरे ये तो बड़ा अनर्थ हो गया दक्षिण मुखी मकान ले लिया उत्तर दिशा में तो दरवाजा निकलवा भी नहीं सकते थे क्योंकि वहां तो मात्र तीन फिट की गली थी|<br /><br /> मै दरवाजे पर बैठा सोच में डूबा था और सोच रहा था कि मोहल्ले वाले मेरे सोचने के वारे में क्या सोच रहे होंगे तभी एक लड़का आया उसके पास पांच हरी मिर्च नीचे बीच में नीबू और पांच हरी मिर्च ऊपर ऐसे कई यंत्र थे उसने एक यंत्र मेरे दरवाजे पर टांग कर दस रूपये मांगे मै कुछ कहूं इससे पहले ही बोला आपकी लाइन में सबके यहाँ लगाता हूँ इससे दक्षिण मुखी का दोष मिट जाताहै पूछा ये यंत्र कितने दिन चलेगा बोला चोवीस घंटे मैंने कहा मतलब तीन सौ रुपया माह्बार तू लेगा| बोला नहीं, अगर आप एक माह का एडवांस देंगे तो ढाई सौ ही लगेंगे| मैंने अपने एक मित्र को फोन लगाया कहा यार यहाँ तो तीन सौ रूपये का अतिरिक्त खर्च बढ़ गया है, तो उसने कहा कहीं से काले घोड़े की नाल लाकर टांग दो हमेशा के लिए दोष दूर |<br /><br /> यहाँ तक तो ठीक मगर इस मकान में तो सारा ही काम उल्टा था| चेनल ने बताया फलां साइड में किचिन होना चाहिए वहां बाथरूम था था | नल की फिटिंग वरुण देव के बिलकुल विपरीत दिशा में थी| एक मित्र बोले चलो रसोई घर की समस्या मै मिटा देता हूँ| हम किचिन में पहुंचे तो मित्र एकदम उदास हो गए पूछा क्या हुआ ? बोले यार क्या बताएं चूल्हा होता तो उसके मुह की दिशा बदल देते मगर यहाँ तो गैस है| मुझे अपनी का वक्त याद आगया खांसी ज्यादा थी तो डाक्टर बोला एक्सरे निकलवा लो रिपोर्ट जब मिली तो सबसे पहले एक्सरे उलट पुलट कर मेने देखा उसमे कुछ धब्बे से दिखे | मरीज ही क्या जो डाक्टर ko बताने से पहले खुद एक्सरे न देखे| डाक्टर ने एक्सरे प्लेट देखी और एक दम गंभीर हो गया मेरा दिल धडकने लगा| डाक्टर ने गंभीरता पूर्वक पूछा सिगरेट पीते हो? मैंने कहा नहीं डाक्टर गम्भीर से गंभीरतम हो गया | मैंने पूछा क्या बात है साब? तो डाक्टर बोला अगर तुम सिगरेट पीते होते, तो, सिगरेट छोड़ने से तुम को बहुत फायदा हो सकता था|<br /><br /> खैर मेरी समस्या ज्यों की त्यों बनी है ""और करे अपराध कोऊ और पाव फल कोऊ"" की तर्ज पर हाऊसिंग बोर्ड वालों ने की गलती और फल मुझे भुगतना pad रहा है| थोड़ी इतनी भी खुली जगह न दी कि एक नीबू का पेड़ लगा सकूं मिर्च बो सकूं मेरा तीन सौ रुपया मासिक बच तो सकता है मगर घोड़े की नाल नहीं मिल पा रही है|BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-86096696367038578282010-04-24T18:56:00.000-07:002010-04-24T18:58:48.855-07:00मां का नाममैंने अपनी आँखों से देखा है और अपने कानो से सुना है कि .......(पहले मैं अपना वाक्य ठीक करलूं )अपनी आँखों से देखा है क्या मतलब ?आदमी अपनी ही आँखों से ही देखता है यहाँ अपनी शब्द महत्वहीन है तो आँखों का भी क्या मतलब ?आँखों से नहीं तो और काहे से देखता है ? ऐसे ही कानो से सुना है क्या मतलब ? तो अपन ऐसा करते है "" मैंने देखा और सुना है"" <br /><br />सदियों से देखता,सुनता चला आ रहा हूँ ( पुनर्जन्म में विश्वास होने के कारण ) कि हर जमाने में पुत्र की पहिचान पिता के नाम से ही होती चली आ रही है |विश्वामित्र ने जनक को राम लक्ष्मण का परिचय दिया ""रघुकुल मनि दशरथ के जाए ""| परशुराम आये तो भयभीत राजा लोग "पितु समेत कहि निज निज नामा "" उधर कवि केशवदास ने अंगद को रावण के पास पहुचाया तो रावण से कहलवाया ""कौन के सुत ? अंगद से जवाब दिलवाया ""बालि के "" तारा का नाम नहीं | अदालतों, तहसीलों में आवाजें लगती है फलां बल्द फलां हाजिर हो ,पक्षकार को माँ के नाम से नहीं बाप के नाम से पुकार लगती है ऐसे एक नहीं सैकड़ों ,हजारों ,लाखों ,करोड़ों (इससे आगे कहाँ तक लिखूंगा ) उदाहरण है | वैसे कुछ अपवाद भी है जैसे यशोदा नंदन ,देवकी सुत ,कौन्तेय , सुमित्रा नंदन , लेकिन ये अपवाद अँगुलियों पर गिने जाने लायक है |<br /><br />माँ का दर्ज़ा पिता से ज़्यादा है सब जानते हैं | पिता की अपेक्षा शिशु की देखभाल लालन पालन बेहतर तरीके से माँ ही कर सकती है क़ानूनविद मानते है |महिला पुरुष सामान है संविधान विशेषज्ञ मानते है |क्वचिदपि कुमाता न भवति कहने वालों ने पिता के बदले माँ का नाम लिखने की न तो परंपरा डाली और न ही बदलते परिवेश में किसी ने ऐसी पहल की | पुराने समय पर दोषारोपण अलबत्ता किया जाता रहा है कि भाई पहले स्त्री को संपत्ति समझा जाता था उसका क्रय विक्रय किया जाता था ,इसलिये उसका नाम लिखना उचित नही समझा गया । तो,भैया पहले तो आदमियों का भी क्रय विक्रय होता था |शैव्या अकेली नहीं विकी ,रोहिताश्व बिका ,हरिश्चंद्र भी बिके ,यूसुफ़ बिके और जमीदारी प्रथा की समाप्ति तक खेतिहर मजदूर बिकते थे रहन रखे जाते थे | (बिक तो वैसे आज भी रहे है पहले गरीब विकता था अब छत्रप,हमारे आका ,देश के कर्णधार बिक रहे है ।<br />|<br />अच्छा दूसरी बात ,पिता के देहावसान के बाद बचपन से लेकर युवावस्था तक माँ ने नाना प्रकार के त्याग करके ,मेहनत मजदूरी करके ,दूसरों के कपडे सिल कर ,अपने पुत्र को पढ़ाया लिखाया वही पुत्र जब नौकरी के लिए आवेदन देता है तो लिखता है 'पुत्र स्वर्गीय श्री या सन आफ लेट श्री सो एंड सो’ क्या उस माँ का सारा त्याग तपस्या ,उसकी साधना इस बात की भी हकदार नहीं कि पुत्र माँ का नाम लिख कर उसे गौरवान्वित कर सके और खुद भी गौरव का अनुभव कर सके | माँ की मेहनत मजदूरी पर पढ़ लिख कर कोई प्रसिद्धि प्राप्त कराले या उच्च पद पर पहुँच जाए तो तो कहा जाता है पिता का नाम रौशन कर दिया | माँ भी खुश कि बेटा पिता का नाम रौशन कर रहा है {अरे भैया कछू बेटा तौ का करत हैं कै ट्यूब लाईट पै बाप कौ नाम लिखा देथें कैन लगे के बाप को नाम रौशन कर रये हैंगे |}<br /><br /><br />अच्छा एक बात और, पिता ने पिता होने का कर्तव्य नहीं निभाया हो |जुआ और शराब की लत के कारण बेटे सहित उसकी माँ को गालियाँ और मारपीट के अलावा कुछ भी न दिया हो ,अपनी पुश्तेनी जायदाद बेच कर जुआ शराब के हवाले कर दी हो , और इतने पर भी संतोष न हुआ हो तो स्वर्ग सिधार गया हो |( इसीलिये मेरा मानना यही रहता है कि लड़की की उम्र कितनी ही क्यों न हो जाए ,जब तक वह अपने पैरों पर खड़ी न हो जाए या आर्थिक रूप से समर्थ न हो जाये उसकी शादी नहीं की जाना चाहिए) | पुरुष प्रधान समाज से इनकार तो नहीं किया जा सकता ,प्राचीन काल में भी और वर्तमान समय में भी | आपको याद होगा झांसी की रानी लक्ष्मी बाई , क्रांति के अग्रिम पंक्ति की नायिका ,जब कालपी पहुंची तब वहां तात्या टोपे (रामचंद्र पांडुरंग राव )बांदा के नवाब ,शाहगढ़ ,बानपुर के राजा लोग और दमोह के क्रांतिकारी मौजूद थे उन सब में लक्ष्मी बाई सबसे योग्य थी लेकिन तांत्या टोपे को छोड़ कर सबने महिला के नेतृत्व तले काम करने से इनकार कर दिया था |<br /><br />आज भी यदि लड़की डिप्टी कलेक्टर है और लड़का तहसीलदार है ,तो अव्बल तो सम्बन्ध होगा ही नहीं लड़का लड़की दोनो ही मना कर देंगे और किसी कारण बश ( मसलन मंगल ,शनी ,या छत्तीस गुण मिले वगैरा वगैरा,, वैसे मेरा मानना है की लड़के लड़की के गुण नहीं अवगुण मिलाये जाना चाहिए मसलन लड़का पीता हो लडकी न पीती हो ,लड़का जुआ खेलता हो लड़की न खेलती हो लड़के की गर्ल फ्रेंड हो लड़की के बॉय फ्रेंड न हो तो कुण्डली कैसे मिलेगी और जहा तक मै समझता हूँ मेरी नजर में ये अवगुण है तो मिलान अवगुणों का होना चाहिए ) रिश्ता हो जाए तो उम्र भर लड़का हीन भावना से ग्रस्त रहेगा |होता है पत्नी पति की तरक्की देख कर खुश होती है और पति पत्नी की तरक्की पर हीन भावना से ग्रस्त हो जाता है ,फिल्म अभिमान के द्वारा आप सब लोग इस मानसिकता से परिचित हैं ही = तो ऐसे माहौल में पुरुष यह कैसे वर्दाश्त कर पायेगा कि उसका बेटा या बेटी उसके बदले माँ का नाम लिखें | यह तो उसके खिलाफ खुली बगावत हुई उसका पौरुष उसे यह सहन करने ही नहीं देगा जबकि जनाब हकीकत तो यह है (माफ़ करना ) कि मातृत्व स्वयम सिद्ध है और पितृत्व अनुमान है "| माँ के साथ तो बच्चे की जन्मत: अनिवार्य पहिचान स्थापित है ही, यदि उसका पिता अपने को प्रकट न भी करे तो समाज में उस बच्चे की पहिचान का संकट खडा नहीं होना चाहिए |<br /><br />यही आशय दर्शाता एक लेख मैंने पहले भी लिखा था सन १९९३ में | इंदौर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र "" नई दुनियां ""में दिनांक २१ फरवरी को कुछ जगह बच रही होगी तो मेरा लेख प्रकाशित कर दिया और पाठकों को शायद फुर्सत रही होगी तो उन्होंने पढ़ लिया ,बात ख़त्म |""बात तो आज की भी ख़त्म हो ही जायेगी गुड बैटर ,वेस्ट ,नाइस आदि लिख कर ।एकाध सदी बाद फ़िर कोई ऐसा ही लेख लिख जायेगा ,लोग पढ कर लिखेगे बहुत बढिया लिखा है लिखते रहिये ।BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com31tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-23152057482846218982010-04-06T02:07:00.000-07:002010-04-06T02:10:11.405-07:00हाथ से गयाएक दिन कड़ाही मांजते हुए ,अचानक आकर मेरे लेखन कार्य में व्यवधान करती हुई बोलीं -सुनोजी मैंने एक गजल लिखी है । मैं हतप्रभ ! कहा- देखो पहले उच्चारण सही करो | गाफ़ का 'ग' और जीम का 'ज' नहीं चलेगा | नाराज हो गईं। क्या आप भी बाबा आदम के ज़माने की बातें करते है और गाने लगी "मैं का करूं राम मुझे बुड्ढा मिल गया "" फिर स्वत: बोलीं सुनिए जनाब वह ज़माना कभी का लद गया जब दोहे और चौपाइयों की मात्रा गिना करते थे जब छंद के गति ,विराम ,तुक हुआ करते थे और गजल में काफिया ,मक्ता ,मतला आदि हुआ करते थे, इससे कवि के मन में जो प्राकृतिक विचार उठा करते थे उनमे बनावटी पन आ जाता था |तुम्हारे पुरानो की आधी जिन्दगी तो मात्राएं गिनने मे ही चली जाती थी तभी चार छ दिन मे एकाध दोहा या शेर लिख पाते थे ।आज देखो एक एक दिन में चार चार कवितायें ,चार चार गज़लें।एक एक कवि के हिस्से मे एक एक खण्डकाव्य और महाकाव्य आजाये ।<br /><br />गुस्सा तो मुझे भी आया किन्तु सांड को लाल कपड़ा न दिखाने के मद्देनज़र मैंने कह दिया’" इरशाद" |वो बोलीं =<br /><br />जो देर रात घर आने लगे <br />रचनाओं में सर अपना खपाने लगे <br />पत्र रिश्तेदारों के बदले सम्पादक को लिखने लगे <br />दाडी बढ़ाके कवि जैसा दिखने लगे <br />कभी गीत लिखने लगे कभी शेर लिखने लगे <br />कभी कभी तो व्यंग्य भी लिखने लगे <br />नाम का पति हर काम से गया <br />समझ लो वो आपके हाथ से गया <br /><br />मेरे मुंह से आह ,वाह कुछ निकले इससे पूर्व हे उन्होंने आदाब-अर्ज़ करने की स्टाइल में अपने सीधे हाथ से सर को दो बार छुआ |मेरी इतनी हिम्मत भी न हुई कि पूछूं यह ग़ज़ल है या कविता ? फिर एक दिन रोटी बेलते बेलते, बेलन हाथ में लिए हुए, अचानक भये प्रकट कृपाला की मानिंद प्रकट हुई और बोलीं अभी हाल ही हाल एक ताज़ा तरीन तैयार हुई है | दूध का जला छाछ को फूँक फूँक कर पीता है तथा कारे की पूंछ पर पांव नही धरना चाहिये के द्रष्टिगत मैंने मुक़र्रर इरशाद कह दिया |क्योंकि मैने एक श्रोता को कवि के हाथों पिटते देखा है जो कविता नही सुनना चाह रहा था ,और मैने एक कवि को भी श्रोता के हाथ से पिटते देखा है जो पूरी रचना सुन चुका था ।बोलीं=<br /><br />खुले आम रिश्वत और भ्रष्टाचार <br />एक स्वामी यौनाचार में गिरफ्तार <br />अखबार अस्पतालों की खोलते रहे पोल <br />नहीं जूँ तक रेंगी बहुत बजाये ढोल <br /><br />जब सब्र की इन्तहा हो चुकी तो मुझे कहना पड़ा यह कविता है या आप किसी समाचार पत्र की हेड लाइन पढ़ रही है |बोली यह कविता ही है और आधुनिक काल में इसे ही कविता कहते है ,कहकर मेरी तरफ हिकारत की नजर से देखते हुए ग़ालिब सा'ब का शेर पढने लगी "ग़ालिब वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात / दे उनको न दिल और ,तो दे ,मुझको जबां और ""एक पति और एक दफ्तर का मातहत दोनो मजबूर होते है कविता पर वाह वाह करने के लिए |यदि बॉस कहे सुनो श्रीवास्तव मैंने एक शेर लिखा है तो सुन कर बहुत जी चाहता है की कहें वाह हुज़ूर क्या लीद की है मगर कहना पडता है वाह साहब क्या बात है क्या तसब्बुर है क्या जज्वात है |<br /><br />एक दिन अचानक पूछ बैठीं क्यों जी नेताओं का गावों से कितना ताल्लुक रहता है ? मैंने कहा जैसा चन्द्र का चकोर से , जल का मछली से, तो बोलीं, लेकिन वे तो वहाँ तब ही जातें है जब कोइ घटना घटित हो जाती है | मैंने कहा जाना ही चाहिए वह उनका कार्य क्षेत्र है ,बोलीं यदि वहां कुछ न होगा तो नहीं जायेंगे ?मैंने कहा क्यों जायेगे , तो बोली समझलो वह गाँव उनके हाथ से गया | मैं झुंझला गया =यार ! ये हाथ से गया ,हाथ से गया तुम्हारा तकियाकलाम है क्या ? कवियों को दूसरों की बात सुनने में कम दिलचस्पी होती है अत: वगैर मेरी बात का कोइ उत्तर दिए कहना शुरू कर दिया =<br /><br />जो गावं ओलों की बर्बादी से बचा <br />जो गावं सूखा भुखमरी या बाढ़ से बचा <br />जिस गावं में कभी न कोइ हादसा हुआ <br />समझो वो गावं नेता के हाथ से गया <br /><br />धोखे से मेरे मुंह से निकल ही क्या वाह क्या बात है तो वे हाय मैं शर्म से लाल हुई वाले अंदाज में गुलाबी होती हुई बोलीं इसे कहीं अखबार में छपने भेज दीजिये न | मैंने कहा अब साहित्य अखबारों में नहीं छपता वहाँ अभिनेत्रियों के बड़े बड़े फोटो और विज्ञापन छ्पते है और साहित्यिक पत्रिका के पेज भरने के लिए लम्बी रचना की जरूरत होती है और आपकी कविता छोटी है |बोली और बड़ी कर दूंगी |चार लाइन वकील के लिए लिख दूंगी =<br /><br />नक़ल कहाँ पे मिलती है ,तलवाने कौन लेता है <br />मन चाही पेशियों के पैसे कौन लेता है <br />तामील कहाँ पे दबती है ,फ़ाइल कहाँ पे रुकती है <br />गर आपका फरीक बातें ये सब जान गया <br />समझो फरीक आप के हाथ से गया<br /><br />मैने चुनावी वादा किया ,अच्छा भेज देते हैं साथ ही शराबी फिल्म की अमिताभी स्टाइल में कहा "" या तो प्रसिद्ध लेखक छपे या सम्पादक जिसको चांस दे / वरना इन पत्रिकाओ मे छ्प भला सकता है कौन ""और साथ में समझाइश भी दी कि ये पत्रिकाओं में छापने वाले <br /><br />नए में नहीं प्रसिद्ध में विश्वास रखते है <br />सादा मे नही बोल्ड में विश्वास रखते है <br />छापने में कम, फ़ाड फैकने में विश्वास रखते है <br />खाने में कम लुढकाने में विश्वास रखते है <br />अगर यह बात सच है तो समझ लो मैडम <br />यह लिखा हुआ भी आपके हाथ से गयाBrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com26tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-41683076950923162922010-03-26T08:38:00.000-07:002010-03-26T08:41:18.245-07:00सर दर्ददुनिया में वैसे तो बहुत तरह के दर्द हैं ,मगर एक प्रमुख दर्द है सरदर्द | वैध्य तो यही कहेगा "अंत भारी तो माथ भारी "" मगर आजकल तो सरदर्द की गोलियां सरल , सुगम व् सस्ता इलाज़ है , एक दिन उन्होंने कहा गोलियां रिएक्शन करती है तो मैंने कहा चन्दन घिस कर लगाइए |बोले हमें मालूम है मगर "" दर्दे सर के वास्ते है अर्क संदल का मुफीद ,पर ,उसका घिसना ,घिस के मलना यह भी इक सरदर्द है |<br /><br />कभी कभी कोइ पड़ौसी भी पड़ौसी के लिए सरदर्द हो जाता है |एक दिन से वे एक पेंचकस लेकर आये बोले इसे आप रखलें ,पूछा क्यों ? तो बोले मै अपने सारे औजार एक ही जगह रखना पसंद करता हूँ |<br /><br />वैसे तो एक दिल का दर्द भी होता है ,बहुत शेर पढ़े गए बहुत कवितायें लिखी गई बहुत फ़िल्मी गाने बने |पुराने जमाने में दिल पर लिखे गए गानों का बड़ा क्रेज़ था यकीन मानिए ऐसे ऐसे गाने कि इस दिल के टुकड़े हज़ार हुए कोई यहाँ गिरा कोइ वहां गिरा । गोया दिल दिल न हुआ कार में लगा ग्लास हो जो एक्सीडेंट से बिखर गया हो |<br /><br />हकीकत यह भी है जिन्हें दिल में दर्द होता है वह तो कोइ एसीडिटी ,गैस वगैरा का होता है और जिन्हें वास्तव में दर्द होता है वे तो बतला ही कहाँ पाते है । सिर और दिल के अलावा भी कई दर्द होते है कोई कहाँ तक गिनाये |""वो मुझसे पूछते है दर्द कहाँ होता है ? अरे एक जगह हो तो बतादूँ कि यहाँ होता है ""दर्द का विवरण आयुर्वेदिक ग्रंथों में ज्यादा पाया जाता है ।उस जमाने में आलपरपज पेन किलर नहीं होते थे |हर दर्द की अलग दबा हुआ करती थी । उन ग्रंथों में लिखा है दर्द चौरासी प्रकार के होते है | पुराने ग्रंथों में चौरासी का बड़ा महत्त्व है ,चौरासी प्रकार की बात व्याधियां ,चौरासी आसन ,चौरासी प्रकार के चक्षु रोग | फिर भी चौरासी से काम न चला तो चौरासी लाख योनियाँ |भाई कमाल है |<br /><br />पुराना मरीज डाक्टर के लिये सर दर्द है ।जितनी दवाएं एक नया डाक्टर जानता है उससे ज्यादा तो पुराना मरीज सेवन कर चुका होता है सारी दबाओं के कंटेंट्स उसे याद होते है |इधर डाक्टर ने दबा लिखी उधर मरीज की प्रतिक्रया -सर इसमें तो डायजेपाम है या अल्प्राजोलम है दिन भर उदासी रहेगी ,सर इनमे तो आइब्रूफेन है जी मिचलायेगा |गजब है ,अभी गोली खाई नहीं है केवल पर्चा ही लिखा है और इनका जी मिचलाने लगा | होता है ,कुछ लोग ज्यादा सम्बेदनशील होते है वे पुस्तक या पेपर वगैरा में सब्जी आदि बनाने की रेसिपी पढ़ते है और उसमे पढ़ते है प्याज के बारीक टुकड़े करें ,तो उनकी आँखों में जलन होकर आंसू आने लगते है ।मैंने देखा है एक्स-रे डाक्टर को दिखाने के पहले मरीज सबसे पहले खुद एक्स-रे देख कर उसमे टूटी हड्डी तलाश करने की कोशिश करता है |वो तो यह अच्छा है कि एक्स-रे प्लेट पर नाम लिखा होता है मरीज का ,इसलिए वह प्लेट सीधी ही देखता है |मोडर्न आर्ट में चित्रकार का नाम लिखा होता है उससे ही तो समझ में आता है कि चित्र किधर से सीधा है |<br /> <br />एक और अजीब सरदर्द होता है बाबूजी आफिस से तो गुनगुनाते हुए चले आयेंगे और घर में प्रवेश करते ही ऐसी शकल बना लेंगे जैसे पहाड़ खोद कर आरहे हों ,सर पकड़ लेंगे ,धम्म से कुर्सी पर बैठ जायेंगे बेचारी बीवियां चाय बनाने चल देती है तो कहीं कहीं पर मैडम का सुबह सुबह भयंकर सरदर्द होता है पतिदेव चाय बना कर लाते हैं तब उन्हें दर्द से आराम मिलता है |पुराने ज़माने में तो चाय प्रयुक्त नहीं होती थी इसलिए बुजुर्ग कह गए "प्रभाते कर दर्शनम ""वरना वे भी यही कह जाते प्रभाते कप दर्शनम |<br /><br />क़ानून का जानकार फरीक वकील के लिए सर दर्द होता है |जिन कामों को आमतौर पर वकील के मुंशी करते है वह काम यह स्वम फरीक ही निबटाना चाहता है मसलन नक़ल की दरखास्त लगाना ,रिकार्ड रूम से फाइल निकलवाना ,तारीख पेशी बढ़वाना और ये होशियारचंद समझते है कि मुंशी के पैसे बचा लिए ,जबकि तीन गुना राशि खर्च कर चुके होते है | मुकदमा और मकान बनबाना इनसे जिन लोगों का वास्ता पढ़ा है उनके सरदर्द का तो कुछ पूछो ही मत | चौबीस घंटे मकान का नक्षा ही दिमाग में घूमता रहता है |और कारीगर इतना कम एस्टीमेट बतलायेंगे कि आदमी झट व्यवस्था करले | और ऐसे मुकाम पर लाकर छोड़ते है कि फिर रकम बेचना पढ़े ,कर्ज लेना पड़े मकान तो पूरा करवाना ही है वरना बरसात आगई सब किया कराया बेकार हो जाएगा |<br /><br />पुराना बाबू नए अधिकारी के लिए सर दर्द होता है ,ऐसे लोगों के खिलाफ कार्यबाही करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना जैसा है इसलिए वह दर्द निवारक गोली खाना ज्यादा उचित समझता है |,एक अधिकारी ड्रायवर से नाराज रहते थे ,टूर पर जाते समय घने जंगल में जीप विगाड दी ।इसीलिये कहा गया है कि जब तक पार न लग जाओ नाव वाले से झगड़ा नहीं करना चाहिए |गिरधर की कुंडलियों में हमें मिलता है किन किन से आपको बैर नहीं करना चाहिए |""बामन ,बनियां, वैध्य, आपको तपे रसोई आदि चौदह लोंगों से "" मै कहता हूँ भैया किसी से तो मत करो बैर ।BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-42694688543543575342010-03-10T22:20:00.000-08:002010-03-10T22:22:31.021-08:00दीवार के उस पारआज सुबह मै मध्यप्रदेश का समाचार दैनिक भास्कर पढ़ रहा था कि एक समाचार पर मेरी नजर गई ""दीवारों के आर पार देख सकेगा मोबाइल ""दीवार के उस पार कौन है और क्या हो रहा है यह मोबाईल के द्वारा देखा जा सकेगा इस तकनीक के उपयोग के लिए नोकिया कंपनी से समझौता किया गया है |<br /> <br />पहले तो दीवारों के कान होने से ही लोग परेशान थे और अब 'एक न शुद दो शुद ' | वैसे आपको ध्यान होगा दीवार के उस पार देखे जाने वाला यंत्र हम हज़ारों लाखो वर्ष पूर्व तैयार कर चुके और उसका नाम "खिड़की " रख चुके है | इतना तो विश्वास है कि जिनके पास ऐसे मोबाइल होंगे वे दूसरों के घरों में तांका झांकी नहीं करेंगे क्योंकि कहा गया है कि जिनके खुद के घर कांच के होते है वे दूसरों के घर पत्थर नहीं फैकते ,कहा तो यह भी गया है कि जिनके घर कांच के होते है वे लाईट बंद करके कपड़े बालते है |<br /><br />साहित्य दीवार से बहुत प्रभावित रहा है मसलन 'भाई मेरे हिस्से का आँगन भी तू ले ले मगर बीच की दीवार गिरादे ' किसी ने गाया 'दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है ' किसी ने ठंडी सांस लेकर आपबीती सुनाई 'दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की ,लोगों ने आने जाने के रस्ते बना लिए 'किसी ने तरस खा कर कहा 'वो धूप से बच कर चला आया तो है लिकिन ,गिरती हुई दीवार के साए में खडा है |ग़ालिब साहब कहा करते थे 'वे दरो दीवार का इक घर बनाया चाहिए ' उधर कोइ गाने लगा 'इस अंजुमन में आप को बार बार आना है ,दीवारों दर को गौर से पहिचान लीजिये 'किसी ने "दीवार "नाम के फिल्म ही बना दी तो कोई प्रेम में असफल दुखी हो गया 'चांदी की दीवार न तोडी प्यार भरा दिल तोड़ दिया '|<br /><br />साहित्य ही नहीं देख का प्रमुख स्तम्भ न्याय पालिका भी इससे प्रभावित है |पचास फी सदी दीवानी मुकदमो की बजह दीवारें है |रात दिन लेख ,समाचार, पत्र प्रकाशित होते है- अदालतों में इतने मुकदमे लंबित है यह भी कहा जाता है कि जस्टिस डिलेड -जस्टिस डिनाइड " हालांकि दीवारों के साथ न्यायाधीश गण की कमी भी इसका कारण हो सकता है आपको सं १९७१ का सेन्सस याद होगा जिसके अनुसार प्रतिमिलियन जनसंख्या पर जजेज का रेशो अपने यहाँ १०.५ था जबकि यह रेशो आस्ट्रेलिया में ४२.६,इंग्लेंड में ५०.९ .केनेडा में ७५.२ तथा यूनाइटेड स्टेट में १०७ था और वर्तमान में भी कोइ विशेष बढ़ोतरी इस क्षेत्र में नहीं हुई है |खैर यह अपना न तो सब्जेक्ट है न क्षेत्र |लेकिन इतना अवश्य है दीवारों को गिरा दीजिये मुकदमों की संख्या आधी रहा जायेगी ,इन दीवारों में पार्टीशन वाल .नफ़रत की दीवार चांदी की दीवार ,कुरीतियों की दीवार सब शामिल है |<br /><br />जहां तक नफ़रत की दीवार का ताल्लुक है - मैंने बचपन में एक एक कविता पढ़ी थी ""बीबी से शौहर ,शौहर से बीबी है बदगुमाँ, है बाप का बना हुआ बेटा उदूंजां , हिन्दोस्ताँ के घर हुए खाली सुकून से , हैं दीवारें रंगी हुई पड़ौसी के खों से " यह बचपन में पढ़ी थी आज मै रिटायर्ड हूँ कमोवेश वही हालात आज भी है | वैसे हम दुःख को रोकने अपने चारों ओर दीवार खडी कर लेते है वे दीवारें सुख को भी बाहर ही रोक देती है <br /><br />दीवार गिराते ही व्यक्ति पूर्णता शान्ति ,स्थिरता प्राप्त कर लेता है | जो आता है उसे आने दो जो जाता है उसे जाने दो .जो हो रहा है उसे देखते रहो गवाह बन कर | पुराने जमाने में लोगों को दीवारों में चुनवाया जाता था यह काम बड़े जोरशोर से होता था और दीवारों में धन गाढ़ने का काम चोरी छुपे होता था |कई जगह पुराणी इमारतों की दीवारे गिरतीं है तो धन निकलता है ,इसे दफीना कहा जाता है ,कई लोग पुराने मकान ,खंडहर महल में दफीना खोदने तैयार रहते है , त्तान्त्रिकों के चक्कर में दिन रात लगे रहते है ,इन्हें हर जगह दफीना ही नजर आता है ,सपने भी उसी के देखते है ,अगर इन्हें सपना आजाये कि दीवार में दफीना है तो यह माकन मालिक की चार इंची पार्टीशन की दीवार तोड़ डालें |<br /><br />लोगों ने गढ़ा धन देखने के काजल बना लिए है - अभी ये लोग काजल के वारे में कम ही जानते है |एक गाना है ""छुप गए तारे .........तूने काजल लगाया दिन में रात हो गई ""गोया काजल लगाते ही दिखना बंद . जब कुछ दिखाई नहीं देगा तो रात ही तो कहलायेगी |किसी सूरदास से पूछो भैया दिन है कि रात ?बोले -भैया हमें तो रात दिन एक से ही हैं | अत: ऐसा काजल न लगा लेना कि दिन में ही रात हो जाए |<br /><br />वैसे जब क़ानून बनाता है तो उसको तोड़ने के दस तरीके भी ईजाद हो जाते हैं , हो सकता है ऐसा सीमेंट ,बार्निश ,पालिश तैयार हो जाए जो इस तकनीक को विफल करदे |BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-82413532354415140832010-02-13T20:58:00.000-08:002010-02-13T21:00:49.189-08:00भाषा और संस्क्रतिबोली संस्क्रति का एक महत्वपूर्ण भाग है,संस्क्रति जानने के लिये भाषा और बोली के महत्व से इन्कार भी नही किया जा सकता है अर्थात प्रुरातात्विक मानवशास्त्री खुदाई से प्राप्त बस्तुओं से जीवन शैली का अन्दाजा भले ही लगालें मगर उस वक्त बोली कैसी रही होगी यह तो कठिन ही होगा ।<br /><br />इतना तो निश्चित है कि ,भाषा और बोली का प्रभाव आम जन पर साहित्य की अपेक्षा सिनेमा का ज्यादा रहता है भाषा के साथ हमारे ही घर मे हमारे ही द्वारा क्या हो रहा है ?भाषा के उपयोग, और उसके प्रचार के लिये सिनेमा से सशक्त माध्यम दूसरा नही है ,इसमे उपयुक्त डायलाग और भाषा तुरन्त ग्रहण कर ली जाती है ।लगे रहो मुन्नाभाई फ़िल्म बनी ।गांधीगिरी शब्द पर आपत्तियां हुई , जबकि इससे बहुत बहुत सालो पूर्व 1968 में श्रीलाल जी शुक्ल ,रागदरबारी मे गांधीगिरी शब्द प्रयोग कर चुके है उस जमाने मे इस शब्द पर आपत्ति क्यों नही हुई , मतलब साफ़ है उपन्यास या साहित्यिक पत्र पत्रिका ,कहानी आदि से ज्यादा प्रभावकारी यह माध्यम है सिनेमा ।यह बात जुदागाना है कि उपन्यासों पर फ़िल्म बनाई जाती है ।बात सिनेमा मे प्रयुक्त भाषा के सम्बन्ध मे है ।इस माध्यम के माध्यम से हमारे नौनिहाल भी ऐसी भाषा से परिचित हो रहे है जिसका अर्थ वे स्वं नही समझते है ।<br /><br />जिस तरह किसी अभिनेत्री से पूछा जाये कि आपके वस्त्रों का बजन कम क्यो हुआ -बोली ,वह सीन की मांग थी , कमाल है सीन भी माग करता है । मुझे ऐसा कुछ लिखना पड रहा है जिसकी वजह से मैं शर्मिंदा हूं और दुखी भी मगर लेख की माग है मै अत्यंत क्षमा प्रार्थी हूं ।<br /><br />फ़िल्म आन मे परेश रावल के मुंह से कहलवाया गया जब इनकी (शत्रुघ्नसिन्हा की ) ’ इनकी मोटर सायकल जिधर से निकल जाती थी लोगों की फ़ट जाती थी’ । खोसला का घोसला फ़िल्म मे नवीन निश्चल से कहलवाया गया ’मेरी फट रही है यार’, फ़िल्म अपहरण मे अजय देवगन से कहलवाया गया ’हमारा आवाज ऊंचा होगया तो लोगों का फट जायेगा’ ।मुन्नाभाई एम।बी.बी.एस मे संजयद्त्त कहते है ’इतने लोग एक बाडी को घेर कर खडॆ है क्या घंटा दिखाई देगा’ ।लगे रहो मुन्नाभाई मे जब देश की तरक्की की बात चलती है तो संजयदत्त कहते है ’’अरे क्या घंटा तरक्की हो रही है ’ । फ़िल्म ओंकारा ,गंगाजल मे तो खैर गालियो की भरमार है ही ,कुछ डायलाग भी अभद्र । एक और फ़िल्म बनाने वाले आये थे उन्होने एक फ़िल्म बनाई अन्धेरी रात मे दिया तेरे हाथ मे -द्विअर्थी संवादों के परिपूर्ण । लेखक ने यदि लिख दिया है तो अभिनेता बोलने से मना नही कर सकता वहां पैसे का सबाल है ,असलियत दर्शाने की बात है , और उस पर तुर्रा यह कि जनता जो देखना चाहती है वह दिखाते है जो सुनना चाहती है वो सुनाते है ।<br /><br />स्वर्गीय राजकपूर की फ़िल्म सत्यं शिवम सुन्दरम को लेकर उन पर जब मुकदमा चला तब उन्होने यही प्ली ली कि इसे तो सेंसर बोर्ड पास कर चुका है उस वक्त न्यायाधिपति श्रीयुत क्रष्णा अइयर ने यह कहने के साथ कि A view of the film may tell more than volumes ot evidence यह भी कहा था कि सेंसर वोर्ड विधि-विधान से ऊपर नही होता । क्या ऐसा नही लगता कि फ़ूहड और अश्लील भाषा संस्कार मे नही आरही है ,शोले फ़िल्म - हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर है , हमारा नाम सूरमा भोपाली ऐसे ही नही है , अरे ओ साम्भा आज भी प्रयोग मे लाये जा रहे है तो क्या यह संभव नही कि ५-६ साल का बच्चा अपने घर,मम्मी पापा की मौजूदगी मे वगैर उसका अर्थ जाने उपर्युक्त भाषा प्रयोग करे ।<br /><br />।और यदि कुछ टिप्पणीकार यह मानते है कि मेरे लेख के पद क्रमांक चार मे कुछ भी अभद्र या असभ्य नही है तो मै निवेदन करूंगा कि यदि उनका छै या सात साल का बच्चा यह कहता है ,कि पापा, मम्मी के मारे आपकी फ़टती क्यों है या यह कि आपने तो मुझे मात्र पांच रुपये दिये है इनसे मे क्या घंटा नाश्ता करूंगा तो बतलाइये आपको कैसा लगेगा ।BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com23tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-78894260127139687092010-01-23T05:55:00.000-08:002010-01-23T05:58:18.500-08:00तिलक समारोहतो साब लडकी पसंद आगई कुंडली मिल गई - अब आप शादी किस स्तर की चाहते है ?<br />अरे स्तर काहे का साहब -हम अपनी बहू थोड़े ही ,बेटी ले जा रहे है ।<br />मगर फिर भी<br />आपने भी तो कुछ संकल्प किया होगा<br />हमारा तो पाँच तक का इरादा है<br />अरे सा’ब पाँच में तो क्लर्क -पटबारी तक नहीं मिलते -<br />पाँच के साथ पूरा सामान भी तो दे रहे है ।<br />सामान तो अलग रहता ही है ।कौन सा नया काम कर रहे हो ।सामान दे रहे हो तो अपनी लड़्की को दे रहे हो । आप ऐसा करो, दस और सब सामान करदो<br />ज्यादा हो जायेगा साहब, इसके बाद मेरी दो बेटियां और है सर पर<br />ये आपकी समस्या है आप जाने<br />ठीक है साहब जैसी आपकी मर्जी<br />हां एक बात और हम बरात लेकर आयेंगे बस का ,ट्रेन का किराया स्वागत ,बरात ठहराना आपको मेह्गा पडेगा,आप एक काम करो लडकी को लेकर यही आजाओ अपन मैरिज हाल बुक बुक कर लेंगे एक डेड के आस पास खर्च आएगा वह आप वहन कर लेना और रिसेप्शन देंगे उसका आधा आधा अपन कर लेंगे ।<br /><br />मगर सा’ब आपके तो हजार पांच सौ आदमी होंगे हमारे तो दस बारह लोग ही इतनी दूर आपायेंगे<br />सो तो है मगर यही तो हो रहा है आज कल<br />ठीक साहब<br /><br />हां एक बात और कैश हमे एक मुश्त टीका मे चाहिये हमे भी तो कुछ बन्दोबस्त करना है<br />आपकी मर्जी ,हमको तो देना ही है कभी लेलो ।<br /><br />टीका बिभिन्न स्थानो में अलग अलग नाम से जाना जाता है कही तिलक समारोह, कही रिंग सेरेमनी,कहीं इंगेजमेन्ट , कही सगाई उद्देश्य सबका एक ही है कि शादी के पहले लडकी वालो से पैसे लेना ताकि रकम खरीदना और भी बहुत इन्तजाम करना । टीका में लड़के के पूरे परिवार को कपडे मगाये जाते है । मिठाई ,फल लड्की वाला स्वेच्छा से लाता है । टीका होते ही लडका दूल्हाराजा हो जाता है ।हर मां की इच्छा होती है कि उसका बेटा बड़ा अफ़सर बने ,अमीर घराने में उसका रिश्ता तय हो ,कैकैई ने भी तो हर मां की तरह अपने बेटे भरत को टीका ही मांगा था ।मगर देखिये आज लड़की का नाम सुमित्रा ,कौशल्या, जानकी मिल जायेगा मगर कैकैई नाम कोई नही रखता -ऐसा कौनसा गुनाह किया उसने ,बेटे का हित ही चाहा ,यह बात कही जा सकती है कि उसने दूसरे बेटे को बनबास मांगा ,जो आवाश्यक भी था राजा को हस्तक्षेप रहित राज्य करना चाहिये , उसने हमेशा के लिये नही केवल एक निश्चित अवधि के लिये मागा था क्योंकि १२ साल तक कोई, किसी स्थान पर ,स्थान के मालिक की जानकारी मे, कब्ज़ा रखता है तो विरोधी आधिपत्य ( एडवर्स पजैशन ) का अधिकारी हो जाता है ।<br /><br />मै कहां की बात कहां ले जाता हूं ,हां तो टीका मे सारे परिवार के कपड़े ,मिठाई,फल ,ड्राय फ्रूट ,के अलावा, लडके वालों के रिश्तेदारों से, लडकी के पिता की मिलनी करबाई जाती है ,गले मिलो और हाथ मे लिफ़ाफ़ा देते जाओ ,बेचारा डरता डरता लिफ़ाफ़ो की तरफ़ देखता रहता है कम न पड़ जाये ,पैसे तो है मगर लिफ़ाफ़ा खरीदने तो बाजार जाना पडेगा और लड़्के वाला ज्यादा से ज्यादा लोगों से मिलनी कराना चाहता है।हर पास या दूर के रिश्तेदार ,पहिचान वाले को बुला बुला कर मिलनी कराता है ।<br />मैने सुना है मिलनी पहले भी होती थी मगर पहले लडके के मामा से लडकी के मामा की , फूफा से फूफ़ा की ,चाचा से चाचा की , ,जीजा से जीजा की मिलनी कराई जाती थी । ऐसे ही एक आयोजन मे एक लडका नशे में बिल्कुल टुन्न हो रहा था मिलनी वाले स्थान पर पहुंचा और बोला में दूल्हे का यार ,दुलहन के यार को बुलाओ मै भी मिलनी करूंगा ।BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com28tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-83890387215058685852010-01-12T07:38:00.000-08:002010-01-12T07:45:00.391-08:00सरप्राइज इन्स्पेक्शनमै अज्ञातबास पर ,मध्यप्रदेश के गुना नगर मे, बोहरा बागीचा स्थित अपने घर मकान नम्बर १२१ में पन्द्रह दिन के लिये गया था ।कोई कह सकता है बल्कि कहना ही चाहिये कि यह कैसा अज्ञातबास ।<br /><br />यह उसी तरह का अज्ञात बास है जिस तरह आज-कल सरकारी कार्यालयों मे सरप्राइज इन्सपेक्शन होते है । पीए साहब का ( पिये हुये साहब का नही बल्कि उनका एक असिस्टेंट होता है उसका ) अर्ध-शासकीय पत्र आता है ( ईमेल की सुविधा होते हुए भी )कि सरकिट हाउस ( या डाक बंगला जो भी वहां पर उपलब्ध हो )मे दो कक्ष आरक्षित करा दिये जायें, बड़े साहब परिवार सहित सरप्राइज इन्स्पेक्शन को पधार रहे है ।लंच मे क्या क्या होना चाहिये यह या तो अर्ध-शासकीय पत्र मे ही लिख दिया जाता है अथवा फ़ोन पर सूचित कर दिया जाता है ।<br /><br />चूंकि चपरासी से लेकर छोटे साहब तक सभी को यह पता रहता है कि दिनाक इतने को आकस्मिक निरीक्षण होना है तो उसकी तैयारियां शुरू हो जाती है ।उस दिन चपरासी प्रोपर ड्रेस पहन कर आते है ,फ़ाइलों की धूल झाड़ी जाने लगती है ।बाबू साहेबान को एक टेबिल और टेबिलक्लाथ उपलब्ध होता है तो अक्सर गंदा रहता है उसे धुलवालिया जाता है और उसका फ़टा हुआ भाग अपनी तरफ़ कर बिछा दिया जाता है और बेतरतीब फ़ाइले ठीक से जमा दी जाती है ।<br /><br />बाबू साहबान को जो टेबिल उपलब्ध होती है उसमे दराज होती है जिसमे शामलाती पेपर भरे रहते है जिन्हे फ़ुरसत मिलने पर संबन्धित फ़ाइलों मे लगा देने का विचार रहता है और चूंकि फ़ुरसत कभी मिलती नही इसलिये इनकी संख्या बढ़्ती रहती है तो कागज दराजों मे रखे नही जाते बल्कि ठूंसे जाने लगते है । ,इन्स्पेक्शन की जानकारी मिलने पर सबसे पहले इन कागजों को एक पोटली मे बांध कर अदर्शनीय स्थल पर रख दिया जाता है क्योंकि ऐसा सुना गया है कि किसी जमाने में बड़े साहब ने दराज खुलवा कर पेंडिंग कागजात की लिस्ट बनवा ली थी और उन कागजात मे कुछ पांच पांच और दस दस के नोट भी मिले थे - जिसके वाबत उनका स्पष्टीकरण यह था कि यह रुपये उनकी तनखा के है जो वे अपनी पत्नी से छुपा कर दफ़तर में दराज मे रखते है ।भुक्तभोगी बडे साहब ने उनका स्पष्टीकरण मान्य किया था ।<br /><br />सरप्राइज इन्सपेक्शन कराना और पी एस सी की परीक्षा मे समानता इस मामले मे है कि कब क्या जानकारी मांगबैठें या कौनसा प्रश्न पूछ लें ।मध्यप्रदेश पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा मे रामायण और महाभारत सीरियल के निर्माताओं के नाम पूछे गये वहां तक तो ठीक था ,फ़िल्म शोले मे गब्बरसिंह के पिता का नाम पूछा गया, ऐसे ही इन्सपेक्शन मे हर जानकारी तत्काल उपलब्ध कराने के लिये तैयार रहना होता है ।बडे साहब आते है ,सर्किट हाउस मे विश्राम करते है लंच लेते है और जो भी दर्शनीय स्थल उस क्षेत्र मे हो ,के दर्शन कर सपरिवार वापस लौट जाते है और बाबूसाहबान उनके दर्शन लाभ से बंचित रह जाते है क्योंकि छोटे साहब डाक बंगले पर ही सारी जानकारी दे चुके होते है ।<br /><br />तो यह तो हुआ सरप्राइज ।इसकी हिन्दी होती है आकस्मिक ,औचक , अचानक । अचानक क्या क्या हो सकता है किसी को पता नही रहता है । अचानक पर से मुझे याद आरहा है कि एक खेल हुआ करता था आंख मिचौनी ।उसमे अचनक कोई पीछे से आकर आंखें अपने हाथो से बन्द कर लेता था ,और जिसकी आंखें बन्द की गई है उसके द्वारा आंखें बन्द करने वाले का सही नाम बतलाने पर ही वह आंख पर से हाथ हटाता था ।पति पत्नी के बीच हर प्रकार का हास परिहास हो सकता है लेकिन यह आंख मिचौनी का खेल पति पत्नी के मध्य वर्जित है ।क्यों है ? यह तो पता नही मगर हो सकता है कि ,इसलिये वर्जित किया गया हो कि मानलो पति ने आकर पीछे से आंखें बन्द की और पत्नी के मुह से कोई और नाम निकल गया तो ?BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-78143097064865296112009-12-17T04:56:00.000-08:002009-12-17T05:06:30.919-08:00साहित्यिक चोरीकिसी साहित्यिक पत्रिका मे लेख या कहानी भेजना और ब्लाग पर लिखने मे अन्तर सिर्फ़ यह है कि वहां संपादक का दखल रहता है और यहां परम स्वतंत्र न सिर पर कोऊ , न कोई दुरुस्ती करने वाला, न गलतियां निकालने वाला ,न रिजेक्ट कर खेद सहित वापस करने वाला ।अब तो खैर पत्रिका वाले भी रचना वापस नही भेजते है वे या तो छापते है या फाड़ फैंकते है ।रचनाये खेद सहित वापस की जातीं थी तब की बात है एक सम्पादक ने 'एक साहित्यकार की कहानी ,इस टीप के साथ वापस कर दी कि "चूँकि ऐसी रचना पूर्व में मुंशी प्रेमचंद लिख चुके हैं इसलिए वे इसे प्रकाशित नहीं कर सकेंगे -इस बात का उन्हें खेद है ।- वे साहित्यकार अभी तक यह नहीं समझ पाये की सम्पादक के खेद की वजह ==नहीं छाप सकना था =या ==मुंशी जी द्वारा लिखा जाना था<br /><br />।चोरियाँ नाना प्रकार की होती है और चोरी के तरीके भी भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं -रुपया पैसा जेवर आदि की चोरी के नए नए तरीके सिनेमा विभिन्न चेनल और सत्यकथाओं ने प्रचारित व प्रसारित कर दिए हैं -चैन चुराना दिल चुराना आदि पर जबसे फिल्मी दुनिया का एकाधिकार हुआ है -आम आदमी इस प्रकार की चोरियों से महरूम हो गया हैएक कवि ने एक कविता लिखी -उन्होंने प्रकाशनार्थ भेजने के पूर्व अपने मित्र को बतलाया -मित्र ने पूछा छप तो जायेगी -कवि बोले =यदि संपादक ने मेघदूत न पढा होगा तो छप जायेगी और अगर मेरे दुर्भाग्य से उन्होंने पढा होगा तो संपादक को बहुत खेद होगा<br /><br />।एक दिन एक मित्र मुझसे पूछने लगे -यार इन संपादकों को कैसे मालूम हो जाता है की रचना चोरी की हुई है क्या जरूरी है की सम्पादक ने कालिदास -कीट्स- शेक्सपीयर प्रेमचन्द- शरत आदि सभी को पढा हो। मैने कहा =जरूरी तो नही है मगर वे लेख देख कर ताड़ जरूर जाते हैं । रचना का लिखा कोई वाक्यांश चतुरसेन के सोना और खून से है या नहीं यह भलेही संपादक न बता पाएं मगर यह जरूर बतला देंगे की यह वाक्यांश इस लेखक का नही हो सकता ।<br /><br />चोरी के मुकदमे में चोर के वकील अक्सर यह प्रश्न पूछा करते हैं की इस प्रकार के जेवरात ग्रामीण अंचलों में पहने जाते है इससे यह सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है की जेवर फरियादी के नहीं वल्कि चोर के है -जेवरात की तरह साहित्यिक विचार एक दूसरे से मेल खा सकते है -बात वही रहती है और अंदाजे बयाँ बदल जाता है -दूसरों के साथ बुरा व्यबहार न करने की बात हजारों साल पहले विदुर जी ने कही अत्म्प्रतिकूलानी ......समाचरेत । फ़िर वही बात अंग्रेज़ी में डू नोट डू ..... अदर्स ।कही गयी । बात वही थी भाषा बदल गयी अंदाजे बयाँ बदल गया । क्या मुज़्तर खैराबादी और बहादुरशाह जफर के खयालात मिलते जुलते नहीं थे ? दोनों के कहे हुए शेर पढ़ कर देख लीजिये। क्या फैज़ अहमद फैज़ और मजरूह सुल्तानपुरी की रचनाओं में समानता नहीं है ? आदमी कन्फ्यूज्ड हो जाता है की ये लिखा किसने है ।<br /><span class=""></span><br />आम तौर पर चोर चोर मौसेरे भाई होते है और दिल के चोर आपस में रकीब होते है क्योंकी दिल एक चुराने वाले दो तो दुश्मनी स्वाभाबिक है -ऐसी बात साहित्य के मामले में नहीं है वे न तो आपस में मौसेरे भाई होते है न दुश्मन होते है वे तो आपस में प्रतिद्वंदी होते है -तूने हजार साल पहले की में से चुराया तो में ईसा पूर्व की में से चुराउगा ।और वैसे भी किसी एक किताब की नकल करदी तो वह चोर ग्रन्थ कहलाता है और अगर २५ किताबों मे से दो दो पेज लिये तो वह शोध ग्रन्थ कहलाता है ।<br /><br />अत: जो ग्रन्थ लुप्त हुए जा रहे है तो उनमे से कुछ लेकर हम अपने नाम से लिख कर पाठको पर उपकार ही तो करेंगे क्योकि साहित्य के अथाह भंडार से पाठक प्राय अनजान है और सबसे बड़ी बात कोई रोकने टोकने वाला नही है ।यह किसी पर व्यंग्य नही है ।न मेरा यह उद्देश्य है कि कोई ऐसा लिखता होगा ।लेकिन कभी कभी किसी किसी को बुरा लग जाता है<br /><br />पटैलों के एक सम्मेलन मे एक व्यक्ति ने कह दिया कि पटेल चोर है ।रामपुरा का पटैल उठा और उस व्यक्ति की पिटाई करने लगा _उसने कहा मैने किसी का नाम नही लिया किसी गांव का नाम नही लिया मैने तो केवल यही कहा था कि पटैल चोर है । पटैल ने कहा अच्छा बेटा जैसे कोई जानता ही नही है कि किस गांव का पटैल चोर है ।<br /><span class=""></span><br />इसीलिए कहा गया है ==यदि नहीं कहा गया हो तो अब में कह देता हूँ ==साहित्यिक चोरी चोरी न भवतिBrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-344619722474742786.post-4700843170923131992009-12-04T05:13:00.000-08:002009-12-04T05:16:43.159-08:00अन्ध विश्वासएक बिटिया मे मुझसे अन्ध-विश्वास पर लिखने को कहा । अपनी बात शुरु करने के पूर्व, मै इस विषय से असमबद्ध, दो बातें कहना चाहूंगा । बात है कब्रिस्तान/श्मशान की, । एक सज्जन की पत्नी का निधन (स्वर्गबास) हो जाने पर उसे दफ़नाया/जलाया जा रहा था ।पति फ़ूट्फ़ूट कर रो रहा था । उसकी हालत देखी नही जा रही थी । किसी ने उसके कन्धे पर हाथ रख कर कहा -हमे न मालूम था तुम इतना प्रेम करते थे कितना रो रहे हो -रोता हुआ पति चुप हो गया बोला -अजी यह तो कुछ भी नही है आप मुझे उस वक्त देखते जब घर से मैयत उठाई जा रही थी, उसके मुकाबले मे तो, ये कुछ भी नही है ,उस वक्त देखते मुझे, ये तो कुछ भी नही है ।<br /><br />दूसरी बात ,एक बाप अपनी म्रत नन्ही बालिका के लिये रोया करता था ।एक दिन बच्ची उसके सपने मे आई बोली हम सब सहेलियों के साथ खेलते हैं वहां परियां भी होती है रात को हम केंडिल लाइट मे स्वादिष्ट खाना खाते है किन्तु आप रोते हो वे आंसू मेरी मोमबत्ती बुझा देते है ,मुझे अंधेरे मे खाना पडता है और सब सहेलियां मुझ पर हंसती है ,मुझे बहुत कष्ट होता है । बाप ने उस दिन से रोना बन्द कर दिया ।<br /><br />विश्वास और अन्धविश्वास के मध्य कोई विभाजन रेखा खीचना मुश्किल है ,एक का अन्धविश्वास दूसरे का विश्वास हो सकता है क्योंकि यह दुनिया बडी विचित्र है ""किसी की आखिरी हिचकी किसी की दिल्लगी होगी ""की मानिन्द ।<br /><br />मै एक कव्वाली सुन रहा था ""तुम्हे दानिश्ता महफ़िल मे जो देखा हो तो मुजरिम हूं/नजर, आखिर नजर है ,बे इरादा फ़िर गई होगी।""कव्वाल के लिये बे-इरादा सही मगर जिसने उन्हे देखते हुये देखा होगा , उनकी नजर मे तो कव्वाल की नजर बा-इरादा हो सकती है ।<br /><br />और एक बात, मै लेख लिखूं , कुल मिला कर दस विद्वान पढेंगे और निश्चित ही वे सब अन्धविश्वासी नही होंगे ।मगर ये जो व्यापार बडे पैमाने पर जारी है ,बीमारियां मिटाने , बुरी नजर से बचाने , रोजगार मे सफ़लता दिलाने ,धन सम्पत्ति को घर मे स्थिर करने और भी न जाने क्या क्या करोडों का व्यवसाय, लाखों लोग प्रतिदिन देख, सुन व समझ रहे है और (तथा कथित ) लाभ भी ले रहे है । उसमे मेरा लेख "नक्कार खाने मे तूती की आवाज " नही हो जायेगा ? ये नक्कारखाना क्या ?तबला तो आप सब ने देखा है उसी का बडा भाई होता होगा नगाडा, उसे ही नक्कार कहते होगे और तूती बिल्कुल छोटी सी बांसुरी से भी छोटी होती होगी । खैर ।मै एक बार पहले भी निवेदन कर चुका हूं कि धन वर्षा करने वाले यंत्र ,मैने बहुत अध्ययन किया है , असर कारक होते है ,हन्ड्रेड परसेन्ट ये आपके घर धन की वर्षा कर सकते है बशर्ते कि आप इन्हे बना कर बेचें ।<br /><br />ओशो से किसी ने पूछा बिल्ली रास्ता काटे तो क्या समझना चाहिये । बोले-यही समझना चाहिये कि बिल्ली कहीं जा रही है ।बात खत्म ।अन्धविश्वास कोई नया नही है बहुत गहरी जडे हैं इसकी । बिल्ली, सर्प, नेवला, अंग का फ़रकना , छिपकली का ऊपर गिरना, कौआ का सिर पर बैठ जाना ,घोडे की नाल की अंगूठी ,नीबू मिर्च घर के दरवाजे पर टांगना (बोले इसमे अपना नुक्सान क्या है ),और भी न जाने क्या क्या । जिसमे सर्प को लेकर तो खूब दोहन किया फ़िल्मों ने । नाग एक जाति होती है ,उस जाति मे राजा भी हुए है "नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ।सर्प को नाग भी कहा जाता है तो इस सर्प को उस नाग जाति से जोड दिया ।जैसे नामो के आगे "सिंह " लगता है सिंह शेर को भी कहते है ।पुराने लोगों को मालूम होगा आजकल तौल का माप किलो होता है वैसे ही पहले सेर होता था , पहले क्विंटल नही मन होता था तो लोग कहा करते थे चालीस सेर का एक मन होता है , मन बडा चंचल है,चंचल मधुवाला की बहिन है, मधुवाला को दिल का दौरा पडा था ,दिल एक मंदिर है ,मंदिर हरिद्वार मे बहुत हैं ,हरिद्वार मे संगम है ,संगम मे राजकपूर है ,राज हिन्दी मे शपथ लेने मना करते है आदि इत्यादि । देखो कहां से कहां पहुंच गये ।<br /><br />हां तो अन्धविश्वास- जो बीमारियों को दैवीय प्रकोप समझते थे अब धीरे धीरे दूर होता जारहा है ,सर्प के बारे मे भी भ्रांतियां नही के बराबर है ,बिल्ली वगैरा को आजकल कोई मानता नही । कुछ दिन पहले मैने पढा एक पुराने नीम के पेड मे से दूध गिररहा है ,लोग इकट्ठा हो गये मेला लग गया किसी जन्मांध की आंख अच्छी हो गई ,किसी ने गले पर लगा लिया तो उसका केंसर अच्छा हो गया,कमाल है ।एक दिन वे कहने लगे साह्ब बडा चमत्कार है इधर से मरीज को खटिया पर डाल कर ले गये थे उन्होंने जल छिड्का ,उधर से मरीज दौडता हुआ आया ,मेला लग रहा है चमत्कार हो रहा है तुम भी चलो । अब मै उनसे कैसे कहूं कि मैने तो ऐसे-ऐसे चमत्कार सुने है कि "" कल तलक सुनते थे वो विस्तर पे हिल सकते नही/आज ये सुनने मे आया है कि वो तो चल दिये।<br /><br />एक व्यक्ति श्रद्धा और विश्व्वास से एक ग्रंथ पढता है दूसरे के लिये वही अंध विश्वास हो सकता है ।स्वर्ग नर्क को अन्ध विश्वास कहने वालो के बुजुर्ग आज भी स्वर्गबासी या स्वर्गीय हैं ।किसने देखा, किसकी मानें, किसकी नही ""उतते कोउ न आवही जासे पूछूं धाय /इतते सबही जात हैं भार लदाय लदाय ""<br />अदालत मे गवाह पेश होते है वे तीन तरह के होते है एक पूर्ण विश्वसनीय , दूसरे पूर्ण अविश्वसनीय और तीसरे वे जो न पूरी तरह से विश्वसनीय है न अविश्वसनीय है ,ये बडे तकलीफ़देह होते है इनकी बातो से सच निकालना वैसा ही है जैसे भूसे के ढेर से दाने चुनना ।विश्वास और अन्धविश्वास के मध्य भी कुछ ऐसी ही स्थिति है ।BrijmohanShrivastavahttp://www.blogger.com/profile/04869873931974295648noreply@blogger.com12