Sunday, May 10, 2009

टिप्पणीकार (२)

(एक मई को टिप्पणीकार का पहले भाग लिखा था / पेश-ए-खिदमत है दूसरा भाग /जब गलियां ही खाना है तो यह क्रम तो निरंतर चलेगा ही )



टिप्पणीकार को टिप्पणियाँ देकर, साहित्यकार का, उत्साहवर्धन करना ही चाहिए /जब हम क्रिकेट खिलाड़ियों का हौसला बढाने हजारों मील दूर जा सकते हैं , और यह जानते हुए भी कि , मैच-फिक्सिंग में, हमारा कोई शेयर नहीं है , खिलाडियों का उत्साह बढाते हैं ,वहां न जा सके तो घर में ही टीवी के सामने बैठ कर उत्साह बढाते है /वाह यार क्या (चौका छक्का जो भी हो ) मारा है ,तुझसे यही उम्मीद थी / उनका तो बस नहीं चलता वरना टीवी में घुस कर खिलाडियों की पीठ ठोंक आयें / और वही बैठ कर चाय की फरमाइश करेंगे ,सोफा पर बैठ कर ही रोटी खायेंगे ,टीवी के सामने से नजर नहीं हटायेंगे /बीबियाँ झल्लाएं नहीं तो क्या करें ?



जब पीडा से बाल्मीकि और प्रेरणा से तुलसी बना जा सकता है तो प्रोत्साहन से साहित्यकार क्यों नहीं बना जा सकता ?



और छोटे छोटे बच्चे बच्चियां २२-२२-२४-२४ साल के अपनी पढाई छोड़ कर या पढाई से ध्यान हटा क़र ,कैरियर की परवाह न करते हुए ,या उधर रूचि कर दिखलाते हुए ,यहाँ आकर चाँद -तारों ,हुस्नो-इश्क ,गुलाब जैसा चेहरा गोभी के फूल जैसा चेहरा ,वगैरा वगैरा लिख रहे हैं, बेचारे कितने परेशान हैं दिन-दिन भर कम्प्यूटर पर बैठना पड़ता है और इस वजह से नल, बिजली का बिल जमा करने ,चक्की पर गेहूं पिसवाने, बूढे बाप को भेजना पड़ता है , क्या प्रोत्साहन के हकदार नहीं है ? इन्हें रात दो दो बजे तक इंटरनेट पर बैठना पड़ता है और सुबह नौ बजे तक सोना पड़ता है /बार बार ब्लॉग खोल कर देखना पड़ता है कि कोई टिप्पणी आई क्या और खास तौर पर ........की आई क्या ? होबी अच्छी बात है मगर जीवन पर ,नौकरी पर ,विद्यार्जन पर हावी नहीं होना चाहिए /

यह जानते हुए भी कि सौ ब्लॉग की रचनाएँ पढने पर भी संघ लोक सेवा आयोग या राज्य लोक सेवा आयोग का एक भी प्रश्न हल नहीं कर पायेंगे /अरे, आई-ए-एस और आई-पी-एस की परीक्षा में भारतीय संबिधान के ४२ वे संशोधन ,नौवीं अनुसूची वाबत पूछा जायेगा या यह पूछा जायेगा कि मेडम क्युरी ने कितनी शादियाँ कीं थी /मगर पढ़ते हैं बेचारे कमेन्ट देते हैं कि कोई आकर हमारी कविता को सराह जाये ,क्या सराहना के हकदार नहीं ?

अपनी कविता सबको प्यारी लगती है ,तारीफ़ चाही जाती है =
निज कवित्त केहि लाग न नीका
सरस होइ अथवा अति फीका

वैसे कहते भी हैं अपनी अकल और दूसरों का पैसा ज्यादा दिखता है /कहते तो यह भी है अपना बच्चा और दूसरे की बीबी अच्छी लगती है(मैं नहीं कहता )मैंने तो सुना है पड़ोस के दो छोटे छोटे बच्चे झगड़ रहे थे =


पहला --मेरा डॉगी (कुत्ता ) तेरे डॉगी से सुंदर है /
दूसरा-- नहीं है /मेरा ज्यादा सुंदर है /
पहला - मेरी डॉल तेरी डॉल से सुंदर है /
दूसरा- नहीं है ,मेरी डॉल ज्यादा सुंदर है /
पहला - मेरी मम्मी तेरी मम्मी से सुंदर है

दूसरा - हाँ यह हो सकता है ,पापा भी यही कहते रहते हैं /

तो अपनी कविता सबको प्यारी लगती है और सराहना की हकदार है

वैसे यदि देखा जाय तो कमेन्ट करना सुबोध भी है और सरल भी क्योंकि इसमें जो भाषा ज्यादातर प्रयोग में लाई जाती है वह न तो हिंदी है, न इंग्लिश है न हिंगलिश है =रोमन लिपि कहा जाता है इसे / दादाजी से पूछना (अगर हों तो ? अगर हों तो ईश्वर उन्हें शतायु करे ) वे बतलायेंगे पुराने ज़माने में टेलीग्राम (तार ) इसी लिपि में भेजे जाते थे /अब तो यह टिप्पणी आदि के साथ मोबाईल में एस एम् एस के काम में आती है ,मगर है लिपि भ्रम उत्पादक /


उन्होंने लिखा ==चाचाजी अजमेर गया है
इन्होने पढ़ा == चाचाजी आज मर गया है
रोना धोना कोहराम (कोहराम फिल्म नहीं ) शुरू हो गया /

Friday, May 1, 2009

टिप्पणी कार

एक दिन मैंने ,अपने एक टिप्पणीकार मित्र से पूछा कि कल तुमने जिस कविता पर टिप्पणी दी थी कि ""अति सुंदर भावः प्रधान रचना ""उसमे क्या खासियत थी ? बोले -ध्यान नहीं आ रहा है /मैंने कहा भैया कल ही तो तुमने टिप्पणी की है / बोले - की होगी यार ,भैया रोजाना पचासों कविताओं पर टिप्पणी करना पड़ता है /

वैसे टिप्पणीकार का काम कठिन तो होता है /उसे रचना दो तीन मर्तवा ध्यान से पढना होता है ,उसमे गलतियाँ निकलना ,आक्षेप करना ,कटाक्ष ,आलोचना समालोचना ,करना होती है /उससे मिलते शेर ,शायरी ,कविता ,लेख का हवाला देना होता है और स्वम का मत देना होता है /

यह भी सही है कि आलोचना से साहित्यकार घबराता भी है और डरता भी है /

एक शायर ने कहा है "" हुस्नवाले ( माफ़ करना शायर ने यही शब्द प्रयोग किया है किन्तु किसी को नागवार गुजरे इस लिए शेर में उस शब्द का स्थान में रिक्त छोड़ रहा हूँ ) हां तो -
...........,हर मोड़ पे ,रुक रुक के सम्हालते क्यों हैं
इतना डरते है तो फिर, घर से निकलते क्यों हैं

साहित्यिक पत्रिकाओं में तो टिप्पणी की कोई गुंजाईश ही नहीं होती /ज्यादा से ज्यादा संपादक के नाम पत्र भेजदो ,तो वह तीन माह बाद की पत्रिका में छपता है ,वह भी संपादक की मर्जी छापे या न छापे /मगर यहाँ तो पूरी स्वतंत्रता है /लेखक भी तैयारी के साथ आता है और टिप्पणीकार भी तैयारी के साथ आता है / दौनों ही पक्ष आये हैं , तैयारियों के साथ
हम गर्दनों के साथ हैं ,वो आरियों के साथ

कुछ सज्जन केवल लेखक होते है और कुछ केवल टिप्पणी कार होते है ( वैसे टिप्पणी कार भी टिप्पणी करते करते अन्ततोगत्वा लेखक हो ही जाते है ) और कुछ दोनो ही होते है लेखक और टिप्पणी कार भी /

एक उल्लू बेचने वाला उल्लू बेच रहा था /बडा उल्लू पचास का बच्चा उल्लू पॉँच सौ का / कारण ? उसने बताया कि साहब बडा तो केवल उल्लू ही है और छोटा तो उल्लू भी है और उल्लू का पट्ठा भी /(मै लिखता भी हूँ और टिप्पणी भी करता हूँ कोई अपने ऊपर न ले )

कुछ विद्वानों का मानना है कि टिप्पणी से साहित्यकार का उत्साह वर्धन होता है /यदि किसी ने तारीफ (झूंठी ही सही ) करदी तो उत्साहित होकर लिखने लगा और किसी ने बुरी करदी तो हतोत्साहित हो गया / वह क्या साहित्यकार हुआ ? किसी ने मुझे गधा कह दिया और मैं फ़ौरन दुल्लती मरने लगा तो मैं क्या आदमी हुआ ?

यद्यपि ,आमतौर पर साहित्यकार खुद्दार होता है और होना भी चाहिए

जो सर से लेकर पांव तक खुद्दार नहीं है
हाथों में कलम लेने का हकदार नहीं है

पुरानी बात है ,एक शायर महल (किला ,कोठी जो भी हो ) में जाया करते थे ,बादशाह भी शायर थे ,खूब पटती थी /एक दिन बादशाह सलामत ने शायर से पूछा " किवला ,कितने दिन में शेर कह लेते हो ? ( कह लेते हो मतलब लिख लेते हो ,यह शायरों की भाषा है ) शायर बोले ,हुजूर ,जब तबीयत लग जाती है तो एक दो माह में दो चार शेर कह लेता हूँ /बादशाह ने हंसकर फरमाया -जनाब दो चार शेर तो मैं यूं , पैखाने में बैठ कर ही, रोज़ कह लिया करता हूँ /शायर ने तुंरत कहा कि हुज़ूर उनमे वैसी बू भी आती है / और शायर महल छोड़ कर आगये और फिर कभी नहीं गए /

भगवती चरण जी ने जब चित्रलेखा लिखा तो कहा गया कि यह तो एक अंग्रेजी उपन्यास की नक़ल है /अभी दो तीन माह पूर्व एक विद्वान ने ""पाखी "" पत्रिका में लिखा कि मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'फूस की रात 'संसार की सबसे घटिया कहानी है /अब क्या कहें ,है तो है ,भैया अब तुम लिखदो संसार की सर्वश्रेष्ठ कहानी /

खैर लेखक और टिप्पणी कार या आलोचक यह तो साहित्य जगत के दो पहिये हैं ,दो पहियों के बिना गाडी नहीं चल पाती है /पहिये शब्द पर से मुझे याद आरहा है -

जब मेरी शादी हुई थी तब हमारे पंडित जी हमें उपदेश देने लगे -देखो बेटा ,यह गृहस्थी एक गाडी है ,इसमें स्त्री पुरुष दो पहिये हैं इनमे सामंजस्य होना चाहिए /मैंने पूछा पंडित जी यह बताओ कि गाडी में एक पहिया सायकल का और दूसरा ट्रेक्टर का लगा हो तो ? मुझे याद है ,पंडितजी ने मेरी पत्नी की ओर देखा ,मुस्कराए ,और चुप हो गए /