Saturday, April 24, 2010

मां का नाम

मैंने अपनी आँखों से देखा है और अपने कानो से सुना है कि .......(पहले मैं अपना वाक्य ठीक करलूं )अपनी आँखों से देखा है क्या मतलब ?आदमी अपनी ही आँखों से ही देखता है यहाँ अपनी शब्द महत्वहीन है तो आँखों का भी क्या मतलब ?आँखों से नहीं तो और काहे से देखता है ? ऐसे ही कानो से सुना है क्या मतलब ? तो अपन ऐसा करते है "" मैंने देखा और सुना है""

सदियों से देखता,सुनता चला आ रहा हूँ ( पुनर्जन्म में विश्वास होने के कारण ) कि हर जमाने में पुत्र की पहिचान पिता के नाम से ही होती  चली आ रही है |विश्वामित्र ने जनक को राम लक्ष्मण का परिचय दिया ""रघुकुल मनि दशरथ के जाए ""| परशुराम आये तो भयभीत राजा लोग "पितु समेत कहि निज निज नामा "" उधर कवि केशवदास ने अंगद को रावण के पास पहुचाया तो रावण से कहलवाया ""कौन के सुत ? अंगद से जवाब दिलवाया ""बालि के "" तारा का नाम नहीं | अदालतों, तहसीलों में आवाजें लगती है फलां बल्द फलां हाजिर हो ,पक्षकार को माँ के नाम से नहीं बाप के नाम से पुकार लगती है ऐसे एक नहीं सैकड़ों ,हजारों ,लाखों ,करोड़ों (इससे आगे कहाँ तक लिखूंगा ) उदाहरण है | वैसे कुछ अपवाद भी है जैसे यशोदा नंदन ,देवकी सुत ,कौन्तेय , सुमित्रा नंदन , लेकिन ये अपवाद अँगुलियों पर गिने जाने लायक है |

माँ का दर्ज़ा पिता से ज़्यादा है सब जानते हैं | पिता की अपेक्षा  शिशु की देखभाल लालन पालन बेहतर तरीके से माँ ही   कर सकती है क़ानूनविद  मानते है |महिला पुरुष सामान है संविधान विशेषज्ञ मानते है |क्वचिदपि कुमाता न भवति कहने वालों ने पिता के बदले माँ का नाम लिखने की न तो परंपरा डाली और न ही बदलते परिवेश में किसी ने ऐसी पहल की | पुराने समय पर दोषारोपण अलबत्ता किया जाता रहा है कि भाई पहले स्त्री को संपत्ति  समझा जाता  था उसका क्रय विक्रय किया जाता था ,इसलिये उसका नाम लिखना उचित नही समझा गया । तो,भैया पहले तो आदमियों का भी क्रय विक्रय होता था |शैव्या अकेली नहीं विकी ,रोहिताश्व  बिका ,हरिश्चंद्र भी बिके ,यूसुफ़ बिके और जमीदारी प्रथा की समाप्ति तक खेतिहर मजदूर बिकते थे रहन रखे  जाते थे | (बिक तो वैसे आज भी रहे है पहले गरीब विकता था अब छत्रप,हमारे आका ,देश के कर्णधार बिक रहे है ।
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अच्छा दूसरी बात ,पिता के देहावसान के बाद बचपन से लेकर युवावस्था तक माँ ने नाना प्रकार के त्याग करके ,मेहनत मजदूरी करके ,दूसरों के कपडे सिल कर ,अपने पुत्र को पढ़ाया लिखाया वही पुत्र जब नौकरी के लिए आवेदन देता है तो लिखता है 'पुत्र स्वर्गीय श्री या सन आफ लेट श्री सो एंड सो’ क्या उस माँ का सारा त्याग तपस्या ,उसकी साधना इस बात की भी हकदार नहीं कि पुत्र माँ का नाम लिख कर उसे गौरवान्वित कर सके और खुद भी गौरव का अनुभव कर सके | माँ की मेहनत मजदूरी पर पढ़ लिख कर कोई प्रसिद्धि प्राप्त कराले या उच्च पद पर पहुँच जाए तो तो कहा जाता है पिता का नाम रौशन कर दिया | माँ भी खुश कि बेटा पिता का नाम रौशन कर रहा है {अरे भैया कछू बेटा तौ का करत हैं कै ट्यूब लाईट  पै  बाप कौ नाम लिखा देथें कैन लगे के  बाप को नाम रौशन कर रये हैंगे |}


अच्छा एक बात और, पिता ने पिता होने का कर्तव्य नहीं निभाया हो |जुआ और शराब की लत के कारण बेटे सहित उसकी माँ को गालियाँ और मारपीट के अलावा कुछ भी न दिया हो ,अपनी पुश्तेनी जायदाद बेच कर जुआ शराब के हवाले कर दी हो , और इतने पर भी संतोष न हुआ हो तो स्वर्ग सिधार गया हो |( इसीलिये मेरा मानना यही रहता है कि लड़की की उम्र कितनी ही क्यों न हो जाए ,जब तक वह अपने पैरों पर खड़ी न हो जाए या आर्थिक रूप से समर्थ  न हो जाये उसकी शादी नहीं की जाना चाहिए) | पुरुष प्रधान समाज से इनकार तो नहीं किया जा सकता ,प्राचीन काल में भी और वर्तमान समय में भी | आपको याद होगा  झांसी की रानी लक्ष्मी बाई , क्रांति के अग्रिम पंक्ति की नायिका ,जब कालपी पहुंची  तब वहां तात्या टोपे (रामचंद्र पांडुरंग राव )बांदा के नवाब ,शाहगढ़ ,बानपुर के राजा लोग और दमोह के क्रांतिकारी मौजूद थे उन सब में लक्ष्मी बाई सबसे योग्य थी  लेकिन तांत्या टोपे को छोड़ कर सबने  महिला के नेतृत्व तले काम करने से इनकार कर दिया था |

आज भी यदि लड़की डिप्टी कलेक्टर है और लड़का तहसीलदार है ,तो अव्बल तो सम्बन्ध होगा ही नहीं लड़का लड़की दोनो ही मना कर देंगे और किसी कारण बश ( मसलन मंगल ,शनी ,या छत्तीस गुण मिले वगैरा वगैरा,, वैसे मेरा मानना है की लड़के लड़की के गुण नहीं  अवगुण मिलाये जाना चाहिए मसलन लड़का पीता हो लडकी न पीती हो ,लड़का जुआ खेलता हो लड़की न खेलती हो लड़के की गर्ल फ्रेंड हो लड़की के बॉय फ्रेंड न हो तो कुण्डली कैसे मिलेगी और जहा तक मै समझता हूँ मेरी नजर में ये अवगुण है तो मिलान अवगुणों का होना चाहिए ) रिश्ता हो जाए तो उम्र भर लड़का हीन भावना से ग्रस्त रहेगा |होता है पत्नी पति की तरक्की देख कर खुश होती है और पति पत्नी की तरक्की पर हीन भावना से ग्रस्त हो जाता है ,फिल्म अभिमान के द्वारा आप सब लोग इस मानसिकता से परिचित हैं ही = तो ऐसे माहौल में पुरुष यह कैसे वर्दाश्त कर पायेगा कि उसका बेटा या बेटी उसके बदले माँ का नाम लिखें | यह तो उसके खिलाफ खुली बगावत हुई उसका पौरुष उसे यह सहन करने ही नहीं देगा जबकि जनाब हकीकत तो यह है (माफ़ करना ) कि मातृत्व स्वयम सिद्ध है और पितृत्व अनुमान है "| माँ के साथ तो बच्चे की जन्मत: अनिवार्य पहिचान स्थापित है ही, यदि उसका पिता अपने को प्रकट न भी करे तो समाज में उस बच्चे की पहिचान का संकट खडा नहीं होना चाहिए |

यही आशय दर्शाता एक लेख मैंने पहले भी लिखा था सन १९९३ में | इंदौर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र "" नई दुनियां ""में दिनांक २१ फरवरी को कुछ जगह बच रही होगी तो मेरा लेख प्रकाशित कर दिया और पाठकों को शायद फुर्सत रही होगी तो उन्होंने पढ़  लिया ,बात ख़त्म |""बात तो आज की भी ख़त्म हो ही जायेगी गुड बैटर ,वेस्ट ,नाइस आदि लिख कर ।एकाध सदी बाद फ़िर कोई ऐसा ही लेख लिख जायेगा ,लोग पढ कर लिखेगे बहुत बढिया लिखा है लिखते रहिये ।

Tuesday, April 6, 2010

हाथ से गया

एक दिन कड़ाही मांजते हुए ,अचानक आकर मेरे लेखन कार्य में व्यवधान करती हुई बोलीं -सुनोजी मैंने एक गजल लिखी है । मैं हतप्रभ ! कहा- देखो पहले उच्चारण सही करो | गाफ़ का 'ग' और जीम का 'ज' नहीं चलेगा | नाराज हो गईं। क्या आप भी बाबा आदम के ज़माने की बातें करते है और गाने लगी "मैं का करूं राम मुझे बुड्ढा मिल गया "" फिर स्वत: बोलीं सुनिए जनाब वह ज़माना कभी का लद गया जब दोहे और चौपाइयों की मात्रा गिना करते थे जब छंद के गति ,विराम ,तुक हुआ करते थे और गजल में काफिया ,मक्ता ,मतला आदि हुआ करते थे, इससे कवि के मन में जो प्राकृतिक विचार उठा करते थे उनमे बनावटी पन आ जाता था |तुम्हारे पुरानो की आधी जिन्दगी तो मात्राएं गिनने मे ही चली जाती थी तभी चार छ दिन मे एकाध दोहा या शेर लिख पाते थे ।आज देखो एक एक दिन में चार चार कवितायें ,चार चार गज़लें।एक एक कवि के हिस्से मे एक एक खण्डकाव्य और महाकाव्य आजाये ।

गुस्सा तो मुझे भी आया किन्तु सांड को लाल कपड़ा न दिखाने के मद्देनज़र मैंने कह दिया’" इरशाद" |वो बोलीं =

जो देर रात घर आने लगे
रचनाओं में सर अपना खपाने लगे
पत्र रिश्तेदारों के बदले सम्पादक को लिखने लगे
दाडी बढ़ाके कवि जैसा दिखने लगे
कभी गीत लिखने लगे कभी शेर लिखने लगे
कभी कभी तो व्यंग्य भी लिखने लगे
नाम का पति हर काम से गया
समझ लो वो आपके हाथ से गया

मेरे मुंह से आह ,वाह कुछ निकले इससे पूर्व हे उन्होंने आदाब-अर्ज़ करने की स्टाइल में अपने सीधे हाथ से सर को दो बार छुआ |मेरी इतनी हिम्मत भी न हुई कि पूछूं यह ग़ज़ल है या कविता ? फिर एक दिन रोटी बेलते बेलते, बेलन हाथ में लिए हुए, अचानक भये प्रकट कृपाला की मानिंद प्रकट हुई और बोलीं अभी हाल ही हाल एक ताज़ा तरीन तैयार हुई है | दूध का जला छाछ को फूँक फूँक कर पीता है तथा कारे की पूंछ पर पांव नही धरना चाहिये के द्रष्टिगत मैंने मुक़र्रर इरशाद कह दिया |क्योंकि मैने एक श्रोता को कवि के हाथों पिटते देखा है जो कविता नही सुनना चाह रहा था ,और मैने एक कवि को भी श्रोता के हाथ से पिटते देखा है जो पूरी रचना सुन चुका था ।बोलीं=

खुले आम रिश्वत और भ्रष्टाचार
एक स्वामी यौनाचार में गिरफ्तार
अखबार अस्पतालों की खोलते रहे पोल
नहीं जूँ तक रेंगी बहुत बजाये ढोल

जब सब्र की इन्तहा हो चुकी तो मुझे कहना पड़ा यह कविता है या आप किसी समाचार पत्र की हेड लाइन पढ़ रही है |बोली यह कविता ही है और आधुनिक काल में इसे ही कविता कहते है ,कहकर मेरी तरफ हिकारत की नजर से देखते हुए ग़ालिब सा'ब का शेर पढने लगी "ग़ालिब वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात / दे उनको न दिल और ,तो दे ,मुझको जबां और ""एक पति और एक दफ्तर का मातहत दोनो मजबूर होते है कविता पर वाह वाह करने के लिए |यदि बॉस कहे सुनो श्रीवास्तव मैंने एक शेर लिखा है तो सुन कर बहुत जी चाहता है की कहें वाह हुज़ूर क्या लीद की है मगर कहना पडता है वाह साहब क्या बात है क्या तसब्बुर है क्या जज्वात है |

एक दिन अचानक पूछ बैठीं क्यों जी नेताओं का गावों से कितना ताल्लुक रहता है ? मैंने कहा जैसा चन्द्र का चकोर से , जल का मछली से, तो बोलीं, लेकिन वे तो वहाँ तब ही जातें है जब कोइ घटना घटित हो जाती है | मैंने कहा जाना ही चाहिए वह उनका कार्य क्षेत्र है ,बोलीं यदि वहां कुछ न होगा तो नहीं जायेंगे ?मैंने कहा क्यों जायेगे , तो बोली समझलो वह गाँव उनके हाथ से गया | मैं झुंझला गया =यार ! ये हाथ से गया ,हाथ से गया तुम्हारा तकियाकलाम है क्या ? कवियों को दूसरों की बात सुनने में कम दिलचस्पी होती है अत: वगैर मेरी बात का कोइ उत्तर दिए कहना शुरू कर दिया =

जो गावं ओलों की बर्बादी से बचा
जो गावं सूखा भुखमरी या बाढ़ से बचा
जिस गावं में कभी न कोइ हादसा हुआ
समझो वो गावं नेता के हाथ से गया

धोखे से मेरे मुंह से निकल ही क्या वाह क्या बात है तो वे हाय मैं शर्म से लाल हुई वाले अंदाज में गुलाबी होती हुई बोलीं इसे कहीं अखबार में छपने भेज दीजिये न | मैंने कहा अब साहित्य अखबारों में नहीं छपता वहाँ अभिनेत्रियों के बड़े बड़े फोटो और विज्ञापन छ्पते है और साहित्यिक पत्रिका के पेज भरने के लिए लम्बी रचना की जरूरत होती है और आपकी कविता छोटी है |बोली और बड़ी कर दूंगी |चार लाइन वकील के लिए लिख दूंगी =

नक़ल कहाँ पे मिलती है ,तलवाने कौन लेता है
मन चाही पेशियों के पैसे कौन लेता है
तामील कहाँ पे दबती है ,फ़ाइल कहाँ पे रुकती है
गर आपका फरीक बातें ये सब जान गया
समझो फरीक आप के हाथ से गया

मैने चुनावी वादा किया ,अच्छा भेज देते हैं साथ ही शराबी फिल्म की अमिताभी स्टाइल में कहा "" या तो प्रसिद्ध लेखक छपे या सम्पादक जिसको चांस दे / वरना इन पत्रिकाओ मे छ्प भला सकता है कौन ""और साथ में समझाइश भी दी कि ये पत्रिकाओं में छापने वाले

नए में नहीं प्रसिद्ध में विश्वास रखते है
सादा मे नही बोल्ड में विश्वास रखते है
छापने में कम, फ़ाड फैकने में विश्वास रखते है
खाने में कम लुढकाने में विश्वास रखते है
अगर यह बात सच है तो समझ लो मैडम
यह लिखा हुआ भी आपके हाथ से गया