Friday, May 20, 2011

पत्राचार


आज आदमी की सुविधा के लिये कितने साधन उपलब्ध है, एस. एम. एस, ई -मेल, फेसबुक और भी न जाने क्या क्या। पुराने लोगों ने इस खतोकिताबत के लिये कितने कष्ट झेले है इस सम्बंध में जब सोचता हूं तो आखों में आसूं आजाते है, दिल बैठने लगता है।

बैठ जाता है साहब दिल बैठ जाता है आदमी खडा रहता है और उसका दिल बैठ जाता है, आदमी लेटा रहता है और उसका दिल बल्लियों उछलने लगता है, आदमी चुपचाप बैठा रहता है और उसके कान खडे होजाते हैं, बिना कैंची आदमी, आदमी के कान कतरता रहता है, आदमी ऊंचा रहता है और उसकी मूछ नीची हो जाती है, बिना चाकू छुरी की आदमी की नाक कट जाती है। सूर्पनखा की नाक थोडे ही न कटी थी, काटने वाले चाकू छुरी तलबार आदि कुछ लेकर ही नहीं गये थे वाण थे उनके पास । वाण से भी कहीं नाक कटती है । वो तो क्या हुआ उस रुपसी का- उस षोडसी का ,उस मृगनयनी, चन्द्रबदनी, सुमुखि सुलोचनि का प्रणय निवेदन दौनो भ्राताओं ने ठुकरा दिया तो उसकी घोर इन्सल्ट हुई गोया उसकी नाक कट गई । वो तो आइ.पी.सी. प्रभावशील नहीं थी वरना दफा 500 का दावा ठोंक देती। हां तो आदमी तना रहता है और उसकी गर्दन शर्म से झुक जाती है, महीनों से जो व्यक्ति बिस्तर से हिल नहीं सकता ....
""कल तलक सुनते थे वो बिस्तर से हिल सकते नहीं
आज ये सुनने में आया है कि वो तो चल दिये ""

कितनी परेशानी- कितनी मुश्किलें.-नहर के एक किनारे पर शाहजादे सलीम बैठे है एक कमल के फूल में चिटठी रख कर नहर में डाल देते है दूसरे किनारे पर अनारकलीजी बैठीं हैं इन्तजार कर रहीं हैं और देखिये ," आपके पांव देखे इन्हे जमीन पर मत उतारियेगा मैले हो जायेंगे " और उस चिटठी को पाकीजाजी चांदी की डिबिया मंगवाकर उसमें महफूज रखती हैं।
पहले पोस्ट आफिस का महा नगरों तक ही चलन था जिलों तक भी होगा ,और एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में चिटठी पहुंचाना, तो कोई पत्र बाहक थोडे बहुत पैसों की लालच में ऐसे काम के लिये तैयार होजाता था जो कासिद कहलाता था। बहुत सोच समझ कर लिखना पडता था जनाब , आज कल की तरह नहीं कि इन्टरनेट पर कुछ भी अन्ट बंट शंट लिख दिया बहुत सोचना पडता था साहब ,कोई व्दिअर्थी शव्द न लिखा जाय, कोई गलत शब्द न लिखा जाये। अन्यथा-
"क्या जाने क्या लिख दिया उसे क्या इज्तिराब में
कासिद की लाश आई है खत के जवाब में"
कुछ बच्चे भी इस काम को अन्जाम दे दिया करते थे।" नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुटठी में क्या है" बोले चिटठी है फलां अंकिल ने भिजवाई है फलां दीदी को देने जारहा हूं। फिर शिक्षा का प्रचार प्रसार हुआ तो कापी और किताबों इस हेतु प्रयुक्त होने लगीं।
आज की पीढी कुछ भी कहे मगर वह पीढी बहुत बुध्दिमान थी । इतने भविष्य का अन्दाज हमारे आज के बच्चे नहीं लगा सकते है। देखिये पत्र लिख दिया और भेजने के बाद पुन पत्र लिखने बैठ गये कान्फीडेन्स देखिये ,एक विश्वास ,आत्मबल -
"कासिद के आते आते खत इक और लिख रखूं
मै जानता हूं जो वो लिखेगे जवाब में "

और संतोष देखिये आज की पीढी को बहुत जल्दी तो गुस्सा आता है, जरा में होशो हवास खो देता है । देखिये पत्र भेजा ,उसने पढा और गुस्से में टुकडे टुकडे करके ऐसे फैक दिया जैसे फिल्म सत्ता पे सत्ता में हेमाजी ने तरबूज फैका था । मगर देखिये सेकेन्ड स्टोरी से फैके गये खत के पुरजे बीन रहे है और कह रहे है
"पुर्जे उडा के खते के ये इक पुर्जा लिख दिया
लो अपने एक खत के ये सौ खत जवाब में "
चेहरे पर संतोष है कि कइयों के तो सौ पत्रों का एक भी जवाब नहीं आता और एक हम हैं जिसको एक खत के सौ जवाब आये है और पुरजे इकटठा किये जारहे है। है आजकल किसी में ऐसी गम्भीरता ?

इसके और बहुत पहले ( लॉन्ग लॉन्ग एगो ) कही बादलों के साथ समाचार भेज रहे है, कहीं कबूतरों के साथ ,कितना कष्टदायक समय था फिर कबूतरों ने ये व्यर्थ के काम बन्द कर दिये तो खत में लिखने लगे "चला जा रे लैटर कबूतर की चाल" । कितनी भावुकता सज्जनता कितनी विनम्रता ,दया लिखी रहती थी पत्रों में ""खत लिख रही हूं खून से श्याही न समझना ""और मजा ये कि पत्र नीली श्याही से लिखा जारहा है। आजकल तो ऐसा कोई नहीं लिखता हाय हलो के जमाने में_ लेकिन पहले पत्र की शुरुआत इस शब्द से होती थी "" मेरे प्राणनाथ"" और पत्र का अन्त होता था"" आपके चरणों की दासी ""। मजाल क्या जो इसके विपरीत किसी ने प्रारम्भ"" मेरे चरणदास"" से किया हो और समापन ""आपके प्राणों की प्यासी" से किया गया हो।

Saturday, May 7, 2011

शार्ट कट

शार्ट कट से भी शार्टकट, प्रारंभ से आदमी तलाश करता रहा है ,चलने में -बोलने में, लिखने में , और जिन खोजा तिन्ह पाइया ,उन्हे रास्ता मिला भी । जब आर से काम चलता है तो ए आर इ क्या मतलब। जब यू से काम चल सकता है तो वाय ओ यू का क्या मतलब । और इसी तरह पिताजी पापा होते हुये डैडी से डैड हो गये । शार्टकट रास्ते में कोई टेडा मेडा रास्ता नहीं देखता और शार्टकट भाषा में कोई शुध्दता अशुध्दता नहीं देखता। और वैसे भी शुध्द अंग्रेजी कोई बोल नहीं सकता और शुध्द हिन्दी कोई समझ नहीं सकता तो रोमन ही सही ।

अभी शासकीय कार्यालयों में शार्टकट का प्रयोग शुरु नहीं हुआ है। इ मेल से भी डाक नहीं भेजी जाती फैक्स से भेज कर फिर कन्फर्मेशन कापी डाक से भेजी जाती है, वाकायदा ड्राफट तैयार होता है वह एप्रूव होता है, उंची कुर्सी वाला नीची कुर्सी वाले का ड्राफट एप्रूव करता है, वैसा का वैसा ही एप्रूव कर दिया तो मतलब ही नहीं, कुछ न कुछ गलती तो निकालना आवश्यक है ही। अच्छा एक मजेदार बात शासकीय शब्द कुल 100-150 है उन्ही से हजारों पत्र, परिपत्र, अर्धशासकीय पत्र, तैयार होते रहते है । एक भी विजातीय शब्द इसमें आजाये तो बात अखरनेवाली हो जाती है। ब्लाग पढता रहता हूं तो कुछ शब्द सामर्थ्य बढ गया है,मैने एक दिन एक शब्द का पर्याय बाची शब्द लिख दिया तो मेरी पेशी हो गई देखिये मिस्टर यह कार्यालय है कोई साहित्यिक संगठन या सभा नहीं है, शब्द वही प्रयोग करो जो शासकीय हो। और पता भी चलना चाहिये कि पत्र सरकारी है। अच्छा देखिये मुझे व् और ब का फर्क आज भी समझ नहीं आता लेकिन हजारों ड्राफ्ट ,एप्रूव किये

भैया हम तो गांव के है वही बोली वही लहजा , यध्यपि बच्चों को पसंद नहीं है । मेरी खडी बोली इन्हें रास नहीं आती । हालांकि कुछ कहते नहीं मगर समझ में आही जाता है, इशारों को अगर समझो । और तो और ये भी बच्चों से कहती ही है बेटा तेरे पापा तो शुरु से ही गवांरों जैसा बोलते है भले आदमियों के बीच बिठादो तो नाक कट जाती है। वाह एक न शुद दो शुद .

एक दिन पुत्र रत्न ने कह ही दिया आपकी बोली और लहजे पर मेरे मित्र हंसते है उसी दिन मैने तय किया कि बोलूंगा तो शुध्द हिन्दी ही बोलूँगा नहीं तो नहीं बोलूँगा । की प्रतिज्ञा । पुराने जमाने में लोग प्रतिज्ञा करते ही रहते थे उस समय जब हाथ उठा प्रतिज्ञा कर करते थे तब वादल गरजने लगते थे ,हवा की रफतार तेज हो जाती थी ,विजलियां कडकने लगती थी ,मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ ।

एक दिन घर में मित्र मंडली जमी थी ,मैने पुत्र से जाकर कहा भैया मेरे व्दिचक्र बाहन के पृष्ठचंक्र से पवन प्रसारित होगया है शीघ्रतिशीध्र वायु प्रविष्ठ करवा ला ताकि मुझे कार्यालय प्रस्थान में अत्यधिक विलम्ब न हो। मै तो कह कमरे से चला आया किन्तु मैने सुनली- पुत्र का एक मित्र कह रहा था क्यों रे तेरे पापा का एकाध पेंच ढीला तो नहीं होगया ।

मेरे पडौस में एक बहिनजी रहती है ठेठ देहाती ,प्रायमरी स्कूल में बहिनजी की नौकरी लग गई तो परिवार यहां आगया। एक दिन बहिन जी के स्कूल की अध्यापिकाऐं उनके घर आई तो तो बहिन जी बोलने का लहजा, शब्द सब बदले , बोली बिल्कुल शहरी हो गई, बहिन जी के छोटे भाई बहिन भोचक्के होकर दीदी को देखने लगे । आखिर सबसे छोटी से न रहा गया तो बोल ही उठी काये री जीजी आज तोय का हो गओ आज तू कैसे बोल रई है

मजा तो अब है रोमन भी और शार्टकट भी
लिखा_ चाचा जी अजमेर गया है
पढा _ चाचाजी आज मर गया है