प्रेम-पत्र के पश्चात मैने कुछ लिखा नही ,लिखना सम्भव भी नही होता - इसके पश्चात तो सुनना और भुगतना ही होता है ,मगर मेरी तो तबीयत खराब हो गई थी ।मैने अपने एक परिचित से पूछा यार कोई अच्छा सा चिकित्सक तुम्हारी नजर मे हो तो बताओ -वे तपाक से बोले फलां डाक्टर को बताओ ,फिर अपने हाथ का अंगूठा और तर्जनी के पोरों को मिलाते हुये बोले ,ए-वन ! मेरा तो उन्ही का इलाज चल रहा है , तीन साल से , जुकाम का ।
डाक्टर बनना बहुत ही कठिन है ,प्री फिर पांच साल - फिर प्री -फिर पीजी और डाक्टर बनना बहुत ही सरल है फीस भेजो ,पत्राचार से घर बैठे डाक्टर बन जाओ ।मेरा न जाने कहां से इन्हे पोस्टल पता मालूम हो गया ।दोसाल तक लगातार पत्र व फार्म आते रहे कि घर बैठे काहे के डाक्टर बनना चाह्ते हो तमाम तरह की पैथी के नाम लिखे थे ।
एलोपैथी मे परेशानी ये कि गेल्युसल कहूं या जेल्युसल ,जेरीफोर्ट कहूं या गेरीफोर्ट ,आयुर्वेदिक दबाओं के वारे में तो शरद जोशी जी ने कहा ही था कि इनके नाम ऐसे है जैसे कोई कन्या स्कूल का हाजिरी रजिस्टर हो -बसन्तकुसमाकर ,स्वर्णमालिनी,अश्वकंचुकी और यूनानी के नाम बाप रे ""खमीरागावजवांअम्बरीजबाहिरवालाखास" एक दबा का नाम लिखो तब तक सरकारी डाक्टर तीन मरीज निबटा चुके ( निबटा चुके ,मतलब तीन पेशेन्ट के प्रिस्क्रिप्शन लिख चुके ,क्या करें, एक एक वाक्य के कई कई तो अर्थ होते है)
तो गरज ये कि दो साल तक मेरे पास पत्र आते रहे, अन्त में उन्होने सोचा कि किस बेवकूफ से पाला पड गया ।
अकबर बीरबल के किस्से मशहूर है ,मेरे पास एक किताब है ""अकबर बीरबल विनोद "" लगता है इन्हे कोई काम ही नहीं था अकबर बेतुके सवाल करते और बीरबल बातुके जवाब देते।एक मर्तवा बीरबल के पिता आये ,बीरबल उन्हे महल ले गये ,अकबर के बेतुके सवाल शुरु हो गये -तुम्हारे गावं मे कितने कौए हैं,आसमान मे कितने तारे हैं ,प्रथ्वी का बीचोंबीच कहां है , पिताजी चुप ,बार-बार प्रश्न, मगर कोई रिस्पांस नही,’अकबर झुंझला गये ,किस मूर्ख से पाला पड गया ।बीरबल को बुलाया पूछा क्यों बीरबल किसी मूर्ख से पाला पड जाये तो क्या करना चाहिये बीरबल ने कहा हुजूर वो ही करना चाहिये जो मेरे पिताजी कर रहे हैं ।
तो उन्होने ने भी सोचा किस मूर्ख से पाला पड गया यह लाइफ मे कभी डाक्टर नही बन सकता और वही हुआ भी मै फिर कभी डाक्टर नही बन पाया और आज भी बेडाक्टर हूं
वो तो मैं बन जाता अगर पैसे होते ।उन्होने तो कहा था कि १० हजार मे सिनाप्सिस और ५० हजार मे थीसिस लिखूंगा ,वाकी किसके घर नियमित सब्जी पहुंचा कर हाजिरी देना है व किसको थ्रीस्टार में ठ्हराकर एक बार पार्टी व गिफ्ट देना है यह तुम जानो ।
मानद उपाधि तो मुझे मिलने ही क्यों लगी ।
गरज ये कि मैं डाक्टर नही बन पाया मगर इतना जरूर है मैं अपने गले मे स्टैथ्स्कोप लट्का सकता हूं क्योंकि ऐसा कोई कानून नहीं है जो मुझे मना कर सके । मोटर सायकल पर सवार हो कर कोई हैलमेट न पहने तो उसका चालान हो सकता है किन्तु कोई सायकल पर सवार हो कर हैलमेट पहने तो उसका चालान कैसे होगा ! कानून की भी बडी विचित्र माया है । अपनी भारतीय दण्ड संहिता को ही लो ,एक अपराध ,यदि उसको करने की कोशिश की ,प्रयास किया तो गिरफ़्तार ,चालान भी और सजा भी , किन्तु यदि उस अपराध को घटित कर दिया तो पुलिस का आई जी भी गिरफ़तार नहीं कर सकता सजा का तो प्रश्न ही नहीं । मतलब अपराध के प्रयास _कोशिश मे सजा और अपराध करदो तो कोई सजा नही ।कुल मिलाकर नतीजा यह कि मैं स्टेथस्कोप पहन सकता हूं ।
Friday, October 30, 2009
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