Thursday, July 21, 2011

सबसे पहले और सिर्फ "हम "

एक छोटे से ब्रेक के बाद हम पुन हाजिर होते है कही भी मत जाइयेगा । इस ब्रेक के बाद हम बतलायेंगे आपको एक ऐसे कुआ के बारे में जिसका पानी पीते ही आदमी हिंसक हो जाता है।

केवल हम ही बतला रहे है पहलीबार आपको। जी हां यह कुआ है मध्यप्रदेश के चंम्बल संभाग में । इस कुये ने पैदा किये है अनगिनत डाकू। इस कुये का पानी पीते ही आदमी का खून खौलने लगता है , उसमें बदले की भावना जाग्रत होजाती है और उसके साथ किये गये लोगों के दुर्व्यवहार इस जन्म के और पूर्व जन्म के सभी उसे याद आने लगते है । कुये का पानी पीते ही सबसे पहले उसका ध्यान जाता है बन्दूक की ओर ,और फिर अपने दुश्मन से बदला लेकर कूद जाता है चम्बल के बेहडों में । वह या तो किसी गिरोह में शामिल हो जाता है या फिर अपना स्वयं का गिरोह बनालेता है। जबकि इस कुये का पानी पीने के पहले ऐसी कोई भावना नहीं होती । आदमी सज्जन होता है व्यवहार कुशल होता है , सबसे हिलमिल कर रहता है किन्तु पानी पीते ही उसे क्या हो जाता है यह जांच का विषय है।

पानी जो जीवन है पानी जो नदी में जाता है तो गंगाजल बन जाता है ,पानी जो समुद्र में जाकर खारा हो जाता है कोई चमत्कार हो जाये तो मीठा भी हो जाता है , पानी जो प्रकृति की अनुपम देन है और 15 रुपये में एक बोतल मिलता है , वही पानी इस कुये में पहुंच कर कितना घातक रासायन बन जाता है , अफसोस इस पानी का अभीतक वैज्ञानिक परीक्षण व विश्लेषण नहीं किया गया । इस कुये के पानी का यदि चिकित्सा वैज्ञानिको व्दारा अनुसंधान किया जाता तो इससे डिप्रेशन और फोविया जैसी बीमारियों की दबायें तैयार की जासकतीं थी। मगर हम इस ओर जागृत नहीं है । जी हां यह वही कुआ है जिसका पानी पीते ही आदमी की नसों मे रक्त तेजी से दौडने लगता है । कई आदमी प्यास लगने पर कुआ खोदते है मगर यह पहले से ही खुदा हुआ है कितना प्राचीन है इस पर भी शोध होना जरुरी है।

इस कुये का पानी पीते ही डकैत बनकर उसका ध्यान जाता है अमीरों की ओर उन्हे लूटने का , गरीबों की ओर उन्हे कुछ मदद करने का ताकि बदले में वे उसकी मदद करते रहे । उसकी नजर में आजाते है ऐसे अमीर लोग जिनसे फिरौती बसूल की जा सकती है।

जीं हां ये जो आप देख रहे है यही है वह कुआ । चम्बल के खतरनाक पानी का कुआ । इस कुये ने कई मानसिंह पैदा किये, कई लाखन पैदा किये , कई लहना पैदा किये , कई पुतली बाई पैदा की और निश्चित ही इसी कुये के पानी की नहर गई होगी फूलन के गांव में ।

आइये हम अब इस कुये के पास निवासी लोगों से आपको मिलवाते है कि क्या कारण है कि लोग इस कुये का पानी पीने से कतराते है, क्यों नहीं चाहते कि वे स्वम और उनके बच्चे इस कुये का पानी पियें । इसी गांव के निवासी हैं ये बुजुर्ग , इनसे पूछते हैं -
आप इसी गांव में रहते है - जी हां
क्या उम्र होगी आपकी -- यही कोई 50-60 वर्ष

क्या आप बतलायेंगे कि आखिर क्या बात है ऐसा कौनसा कारण है कि आप इस कुये का पानी पीने से परहेज करते है।
बुजुर्ग - जी कुये में पानी ही नहीं है वर्षो से सूखा पडा हुआ है।

Thursday, July 14, 2011

हाई अलर्ट और बरसात

बरसात का पानी कालोनी में घुटने घुटने भर गया और वह फिल्मी गाना "बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम" व्यर्थ हो गया तो नगरनिगम जाकर निवेदन किया कि वे अलर्ट घोषित करदें ताकि नगर के कर्मचारी अलर्ट हो जायें और पानी के निकास की व्यवस्था करदें। वे नाराज होकर बोले पिछली साल ही तो आपकी कालोनी के लिये अलर्ट घोषित किया गया था । आपको कुछ काम तो है नहीं चले आते हो मुंह उठाये ,और आपको पानी से दिक्कत क्या होरही है। हमने निवेदन किया कि सर सडक दिखाई नहीं देती है । बोले -क्यों देखना चाहते हो सडक ? निवेदन किया कि सडक मे जगह जगह गडढे होरहे है जब वे दिखाई नहीं देंगे तो उनसे बच कर कैसे चलेंगे। बोले -गडढे दिखने लगेंगे तो फिर आजाना कि अलर्ट घोषित करके गडढे भरवा दो।हमें और भी कोई काम है या नहीं या फिर आपका ही काम करते रहे। और आप तो बहुत अच्छी स्थिति में हो , दूसरी कालोनियों में तो कमर कमर पानी भरा हुआ है वे तो नहीं आये शिकायत करने आप बडे जागरुक नागरिक बने हुये है।
खैर साहब किसी तरह पानी के निकास की व्यवस्था तो हो गई परन्तु पुन पानी बरसने तक कालोनी की सडक की "आज रपट जायें तो हमे न उठइयो " वाली स्थिति बनी रहीं ।

प्यारी अंग्रेजी भाषा में एक बहुत प्यारा सा ,दुलारा सा शब्द है ’अलर्ट ’ जो हम होश सम्हाला है तब से(:यदि वास्तव में सम्हाला हो तो:) सुनते आरहे है, जिसके हिन्दी शब्दकोष में भी बहुत प्यारे प्यारे दुलारे दुलारे पर्यायवाची शब्द हमें मिल सकते है मसलन फुर्तीला ,चौकन्ना, तेज, प्रसन्नवदन, जागरुक, सतर्क, आदि इत्यादि।
शब्दकोष में हाइअलर्ट शब्द उपलब्ध नही हो सका । परन्तु प्यारे शब्दों के साथ 'कुछ' लगाने की आवश्यकता हमेशा महसूस की गई जिसे हम विशेषण भी कह सकते हैं की प्रथा बहुत प्राचीन होने से,यथा महान आत्मा, महान पुरुष तो इस अलर्ट के साथ भी एक विशेषण लगाया गया, महान चौकन्ना ,महान जागरुक । चूंकि अलर्ट अंग्रेज़ी का शब्द है तो इसके साथ महान के बदले में हाई का प्रयोग किया गया ।
हाइ अलर्ट होता नहीं है इसे घोषित किया जाता है। इस महान अलर्ट को कब घोषित किया जाना है यह महापुरुष ही तय करते है। जब कोई घटना घटित होजाती है तो इसे घोषित कर दिया जाता है। फिर यह हाइ अलर्ट घीरे धीरे या एकदम कब लो- अलर्ट में परिवर्तित हो जाता है इसका पता ही नहीं चलता । जब पुन हाई अलर्ट घोषित होता है तब पता चलता है कि यह हाइ अलर्ट ,लो अलर्ट हो चुका था । स्वभाविक ही है यदि हाइ अलर्ट चल ही रहा होता तो फिर मोस्ट हाई अलर्ट होना चाहिये था । और चूंकि जब पुन हाई अलर्ट घोषित किया गया है तो इसका अर्थ यही है कि हाइ अलर्ट लो अलर्ट में परिवर्तित हो चुका था ।
यदि अलर्ट का अर्थ जागरुक या सावधान से लगाया जाये तो स्वाभाविक है कि हमेशा कोई भी सावधान नहीं रह सकता उसे विश्राम की आवश्यकता होती है।
अति सर्वत्र वर्जयेत का सिध्दान्त भी लागू होता है जो अति करता है उसकी जगह या तो अस्पताल है या फिर तिहाड।
बचपन मे बच्चे शैतानी करते है दिनभर उधम किया करते है मां चिल्लाती रहती है परन्तु जैसे ही बाप घर में आता है हाइ अलर्ट घोषित हो जाता है। इसी तरह की कुछ कार्यालयों की भी स्थिति होती है।अत कुछ हद तक अलर्ट के लिये बाप बॉस ,बाढ और बरसात का आना जरुरी है। लेकिन अलर्ट होता है इन सब आने के बाद ही। यदि बाढ आने के पहले ही बाढ का इन्तजाम कर लिया तो ?, अब्बल तो बाढ आयेगी ही नहीं और अगर आ भी गई तो कर क्या लेगी । फिर अलर्ट और हाइ अलर्ट का मलतब ही क्या रह जायेगा । अत इस शब्द की सार्थकता बनाये रखने के लिये आवश्यक है कि बाढ , बाप और बॉस और बरसात के आने का इन्तजार किया जाये।

Sunday, June 26, 2011

कवि की कविता शायर के शेर

'नाना भाति राम अवतारा रामायण सत कोटि अपारा' की भाति नाना प्रकार की कवितायें और नाना प्रकार के कवि । दौनो आकृति में, प्रकृति में भिन्न आकार प्रकार में भी ।

कोई श्रंगार रस में तो कोई हास्य रस मे ही डूबे रहते है। कुछ कवि चुटकुलों को कविता के सांचे में ढाल देते है । कुछ कवि आशु कवि होते है इधर कोई बात सुनी उधर कविता तैयार ।

कुछ कवि फुल टाइम और कुछ पार्ट टाइम कवि होते है। सर्विस करने वाले इतवार को कविताऐं करते है वह उनका छुटटी का दिन होता है कविता लिखने का दिन होता है।

एक कविवर के पिताजी का देहान्त हुआ था तो शोक पत्र उन्हौने अपनी स्वरचित कविता में ही छपवाया था।
कुछ कवि बहुत ज्यादा भावुक होते है कवि के सफेद बाल देख कर चंद्रवदनि मृगलोचनी ने बाबा का सम्बोधन कर दिया ,दिल में टीस लगी और कविता प्रारम्भ।

कुछ कवियों की कवितायें समझने मे थोडी देर लगती है । कवि कह रहा था कि' जब भी वह आती है एक रौनक आजाती है और जब भी वह जाती है मायूसी छा जाती है' ये बात वे लाइट के वारे में कह रहे थे।

कुछ लोग कहते है कवि पैदा होता है बनता नहीं है लेकिन यह भी देखा गया है कि बनते भी है और बन भी सकते है" मै कही कवि न बन जाउ तेरी याद में ओ कविता" । और" मै शायर तो नहीं जबसे देखा मैने तुझको मुझको शायरी आगई।"

कुछ कवि पैसे के लिये लिखते है तो कुछ नाम के लिये। कविता के साथ पत्रिका में नाम ओ फोटो भी छप जाना चाहिये । कुछ का कहना है कि नाम से पेट नहीं भरता।

पुराने जमाने में कई कवियों का कविता पर ही गुजारा होता था। वे आश्रयदाता की तारीफे करते रहते थे जैसे भूषण आदि वे राजकवि कहलाते थे । एक कवि प्रथ्वीराज चौहान के पास थे शायद चंद वरदायी या ऐसे ही कुछ उन्हौने प्रथ्वीराज रासो लिखा बिल्कुल आल्हखण्ड की तरह और 11 साल की उम्र होते होते प्रथ्वीराज की 14 शादियां करादी। कवि कविता पढ कर सुना कर जाने लगता था तो राजे महाराजे उसे विदा स्वरुप राशि दिया करते थे यदि किसी को नही देना होता तो वह कवि से कहता महाराज इस कविता का अर्थ बताओ और केशवदास की कविता दे देता था ।" कवि को देन न चहे विदाई पूछो केशव की कविताई "। केशवदास को कठिन काव्य का प्रेत कहा गया है इतनी क्लिष्ठ कि क्या बतायें आपको। उस जमाने की कवितायें राजनीति को भी प्रभावित करती थीं ।कवि ने जब देखा राज्य की व्यवस्था बिगड रही है और राजा रासरंग में डूवा है तो एक दोहा लिख कर राजा तक पहुंचाया ""......अली कली हीं सों लग्यों आगे कौन हवाल"" राजा होश में आगया और राज्य का विधिवत संचालन करने लगा । आज आप कविता क्या एक खण्ड काव्य लिखदो महा काव्य लिखदो कोई फर्क नहीं । हां उसका विमोचन करने आजायेंगे मगर पढेंगे नहीं, फुरसत ही नहीं है
""तुमने क्या काम किया ऐसे अभागों के लिये जिनके वोटों से तुम्हे ताज मिला तख्त मिला
उनके सपनों के जनाजे में तो शामिल होते तुमको शतरंज की चालों से नहीं वख्त मिला ।""

पुराने कवि बडे रसिक भी होते थे । उनकी नायिका झूला झूल रही है । कैसे ? वह वियोग में इतनी क्षीण हो गई है सांस लेती है तो 7 कदम पीछे और सांस छोडती है तो 7 कदम आगे उसका शरीर आजा रहा है। डर है बेचारी अनुलोम विलोम न करने लगे ,बहुत प्रचार प्रसार है इसका।
एक तो बेचारे दूध पीने को तरस गये
'प्रिया के वियोग में प्रियतम बेहाल थे
अन्दर से सांस बहुत ठंडी सी आती थी
दूध का भरा गिलास कई बार उठाया पर
सांसों के लगते ही कुलफी जमजाती थी।'

आदि काल से जितने कवि,शायर ,गीतकार हुये सभी ने बरसात के मौसम पर कुछ ज्यादा ही लिखा है। बादलों पर , रिमझिम फुहारों पर,मोर ,पपीहा सब पर -
यही मौसम क्यों रास आया कवियों को? क्या इस मौसम में बच्चों व्दारा कापी किताब,एडमीशन डोनेशन फीस की मांग नहीं की जाती थी।क्या पत्नियों की ओर से अचार के लिये कच्चे आम और तेल की फरमाइश नहीं की जाती थी? क्या इस मौसम में उनके मकान में सीलन नहीं आती होगी,छत न टपकती होगी? क्या कमरे में पंखे की हवा में कपडे सुखाने ,डोरी बांधने मकान मालिक कील ठोंकने देता होगा ? आखिर इस मौसम पर और इस मौसम में कवितायें ज्यादा रची जाने का कुछ तो कारण होता ही होगा।

हाँ इस मौसम में कवित्व भाव जागृत करने उन्हे वातावरण भी मिलता होगा क्योंकि इन्ही दिनों कीट पतंगे रौशनी की ओर चक्कर लगाते है कवि सोचता होगा एकाध पोस्ट निकलने पर शिक्षित बेरोजगार अपने अपने प्रमाणपत्रों का बंडल लिये हुये चक्कर लगा रहे है।

जगह जगह गडढों में ऐकत्रित हुये पानी को देख कवि सोचता है ऐसे ही कर्मचारी के टेबिल पर फाइले इकटठा होती रहती है। बिजली की चमक ऐसे दिखती होगी जैसे किसी सभा में नेताजी उदधाटन चाटन उपरांत दांत दिखा रहे है या कोई अभिनेत्री किसी टूथपेस्ट का विज्ञापन दे रही हो। बादल की गरज एसी जैसे कोई क्रोधी व्यक्ति पाठ कर रहा है । बडी बडी बूंदे बॉस के गुस्से की तरह और धूप का अभाव जैसे आउट डोर में डाक्टर। कपडे सुखाने तरसते लोग ऐसे दिखते होगे जैसे महगाई भत्ते को कर्मचारी तरसते है।

कवि की तबीयत भी बरसाती हो जाती है वह बूंदों के साथ ऐसे नाचने लगता है जैसे पडौसी के नुक्सान पर पडौसी नाच रहा हो वह मस्त होकर ऐसे गाने लगता है जैसे परीक्षा के दिनों में माइक लगाकर किसी मोहल्ले में हारमोनियम तबला के साथ रात भर अखंड पाठ हो रहा हो। बादलों के साथ उडने लगता है जैसे चुनाव जीत कर लोग हवाईजहाज में उडते है। मोरो के साथ वह ऐसे झूमने लगता है जैसे अपराधी लोगों का कोई बॉस जेल से रिहा हो गया हो। कभी बादल इतने नीचे आजाते है कि आने लगे ' एसी कार से उतर कर मोहल्ले में कोई वोट मांग रहा हो।

बरसात पर सारे गाने लिखे जा चुके और कुछ न बचा तो ""छतरी के नीचे आजा""। आपको तो अनुभव होगा तब का जब आपके पास कार नहीं होती होगी ,छाते खोते बहुत हैं । पानी बरसते में छाता लेकर गये दोपहर बाद पानी बन्द होगया । रोजाना की तरह छै बजते ही दफतर छोड कर भागे छाता भूल गये । दूसरे दिन आकर तलाश करते है। फिर मिलता है क्या ।

मेरे मित्र छाते पर नाम लिखवा रहे थे बोले खोयेगा नहीं । मैने कहा जब कोई इसे ले जायेगा तो यह तेरा लिखा हुआ नाम क्या चिल्ला कर कहेगा कि यह मुझे ले जारहा है। मगर नहीं माने लिखवा ही लिया नाम ।

Friday, June 10, 2011

कवि और कविता

कभीss कभीsss मेरे दिन मेंeeeee खsयाsल आताs है। कभीनहींभीआता है। एसा खयाल क्यों आता है कि पहले की अपेक्षा अब कवितायें ज्यादा लिखी जारही है।

शायद पहले कविता लिखना कठिन था बिल्कुल गणित के सवालों की तरह। कविता एक लेकिन उसे कितने भागों मे विभक्त कर रखा था दोहा, चौपाई, सोरठा, छंद, सवैया, कुण्डलियां और उस पर भी तुर्रा ये कि उनकी मात्राऐं गिनो। अब कैलकुलेटर थे नहीं तो अंगुलियों के पोरों पर मात्राओं की गिनती किया करते थे। दोहा एक दो लाइन का, लेकिन उसके चार भाग । दो भाग मे 11 और दो में 13 मात्राऐं होना आवश्यक । कितनी परेशानी । आधी जिन्दगी तो मात्राऐं गिनने में ही निकल जाये। आपको तो पता नहीं होगा पहले एक रुपया भी कई भागों में विभक्त था । रुपया,अठन्नी,चवन्नी, दुअन्नी, इकन्नी, पैसा, धेला और पाई ।

दूसरी बात पहले शिक्षा का भी अभाव था। कोई बी ए पास हो जाता था तो उसे हाथी पर बिठा कर जलूस निकाला जाता था और वह अपने नाम के साथ बीए लिखता था। आज देखिये एम ऐ पी एच डी शिक्षाकर्मी है और उनको 3500/रुपये तनखा तब मिलती है जब अंगूठा लगा प्रमाणपत्र हैड आफिस पहुंच जाता है कि हां इसने महीना भर डयूटी दी।

किसी कवि से अपने समय की वातावरण की अवहेलना तो होती नहीं है ऐसा वातारण भी होना चाहिये कि कवित्व भाव जाग्रत हो। उस जमाने में इतनी हत्याऐं, डकैती, इतने बलात्कार ,शोषण न थे । अपने समय की धार्मिक , राजनैतिक,सामाजिक , सांस्कृतिक बातों का प्रभाव रचना पर होता ही है इसलिये पहले कवित्व भाव कम था।

"जहां तक मेरा सवाल है मुझे न तो पहले की कविता---
केसव चोंकति सी चितवे छिति पाँ धरके तरके तकि छाहीं
बूझिये और कहे मुख और सु और की और भई छीन माहीं"

समझ आती थी और न आज की कविता

""मै सुनता था नूपुर धुनि
प्रिय
यध्यपि बजती थी चप्पल""

समझ आती है।

तय शुदा बात है कि कार्यक्षमता की भी बृध्दि हुई है।पहले बुध्दि बर्धक टानिक यंत्र तंत्र न थे । आज तो पढाई मत करो यंत्र पहिन लो परीक्षा में सफलता सुनिश्चित है। पहले कोई कहानी लिखता रहता ,तो कोई कविता ही लिखता रहता था । आज विविधता है लेखक ने आज कहानी लिखी ,कल कविता और परसों गजल । कभी कभी तो एक ही दिन में एक कविता और एक गजल दौनो लिख लेते है। पहले कविता लिख कर गुरु को बताई जाती थी और वे यहां का शब्द वहां और यहां की लाइन वहां करवा दिया करते थे जिससे एक नई ही कविता तैयार हो जाती थी।

एक टेलर मास्टर अपनी खटारा सिलाई मशीन से सिलाई कर रहा था । खड खड की आवाज हो रही थी वहीं एक बन्दर वाला खेल दिखाने आगया डुम डुम बजाने लगा । टेलर ने उसे वहां से भगाना चाहा तो उसने अपने पेट का वास्ता दिया । टेलर का कहना था कि वह खड खड और डुम डुम के बीच असुविधा महसूस कर रहा है और काम नहीं कर पारहा है। बन्दर वाले ने उसे आपस में ताल मिलाने को कहा । कुछ मिनट में खड खड डुम डुम की ताल मिल गई दौनो अपना अपना व्यवसाय करते रहे। खेल खत्म करके बन्दर वाला जाने लगा तो बोला क्यों उस्ताद ताल मिल गई थी ? टेलर ने कहा ताल तो मिल गई- मगर शेरवानी की जगह सलवार सिल गई।

उस समय विदेशी साहित्य से भी कम परिचय था तो उनका अनुवाद कर अपनी कविता भी नहीं कह सकते थे। फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियां इनसे भी साहित्य सृजन की प्रेरणा मिली । आइ ए एस नौकरी छोड कर इन कम्पनियों में जाने लगे तो कवि हृदय में कवित्व भाव जाग्रत होता कि उफ कितनी योग्यता ,'कितनी क्रीम देश से बाहर चली जारही है।

मेरे नगर मे नदी नहीं है नाला है तो बरसात में जब नाला चढता है तो लोग उसे ही देखने जाते है ऐसे ही नाला उफान पर था और दर्शक एकत्रित थे एक सज्जन बार बार कह रहे थे उफ कितना पानी व्यर्थ चला जारहा है उफ कितना पानी व्यर्थ चला जारहा है । वे न तो कोई इन्जीनियर थे न जल संरक्षण समिति के सदस्य थे। असल में उनका दूध का व्यवसाय था।

इन्टरनेट में एसी साइड भी है जिनके खुलते ही दर्शक मंत्र मुग्ध हो जाता है और उसमें ऐसा कवित्व भाव जागृत होता है कि कवितायें फूल जैसी झरने लगती है लेख तैयार होने लगते है। अब सम्पादक तो इन्हे पत्रिकाओं मे छापने से रहे और ब्लाग पर मोडरेशन सक्षम है तो फिर इनको कोयला हाथ में लेकर बस स्टेन्ड के बाथरुम और रेलवे के व्दितीय श्रेणी के डब्बे के शौचालयों में जाकर अपनी विव्दता का प्रदर्शन करना पडता है।

कुछ लोगों का यह मानना है कि आजकल साहित्य और सिनेमा में अश्लीलता प्रवेश कर गई है । लेकिन इसके विपरीत तर्क यह दिया जाता है कि अश्लीलता न तो शब्दों में होती है और न दृश्यों में । वह तो श्रोता और दर्शक की मानसिकता में रहती है , इसलिये श्रोता दर्शक और पाठक अनचाहे अर्थ निकाला करते है। ठीक है । जैसा भी है अरे भाई लिखा तो जारहा है यह क्या के है --बैटर दैन नथिंग।

दो पुरानी सहेलियां मिलती हैं
कहो बहिन कैसी हो
अच्छी हूं
और बच्चे कैसे है
वे भी अच्छे है
और पतिदेव कैसे है
न होने से अच्छे है।

पहले ,अलंकारों का प्रयोग होता था फिर व्याकरण -बापरे- "कनक कनक ते सौ गुनी " "सारंग ले सारंग चली" , आज व्याकरण और अलंकारों का भी झंझट नहीं । हिन्दी हो या अंग्रेजी आप ""हू आर यू"" को ""आर यू हू"" बे-धडक लिख सकते है। कोई टोकने वाला ही नहीं है । पहले तो किसी ने दोहा सुनाया और जरा सी त्रुटि पर सुनने वाला बाल खीचने लगता था जैसे कोई गायक किसी गुरु के सामने हारनोमियम पर कोई राग निकाल रहा हो और गलती से एक भी अंगुली शुध्द स्वर की जगह कोमल स्वर को टच कर जाय तो सुनने वाला वहीं अपना सिर ठोकने लगता है। ऐसे ही कविताओं का हाल था।

फिर लोग कहते है कि आजकल कैसा ?? लिखा जारहा है। अरे लिखा तो जारहा है -- कुछ तो लिखा जारहा है

पहले बेटी पूछती थी मां मे जीन्स पहिनलूं
मत पहिन बेटी लोग क्या कहेंगे
आज बेटी पूछती है मां मै स्विम सूट पहिनलू
पहन ले बेटी कुछ तो पहन ले

Friday, May 20, 2011

पत्राचार


आज आदमी की सुविधा के लिये कितने साधन उपलब्ध है, एस. एम. एस, ई -मेल, फेसबुक और भी न जाने क्या क्या। पुराने लोगों ने इस खतोकिताबत के लिये कितने कष्ट झेले है इस सम्बंध में जब सोचता हूं तो आखों में आसूं आजाते है, दिल बैठने लगता है।

बैठ जाता है साहब दिल बैठ जाता है आदमी खडा रहता है और उसका दिल बैठ जाता है, आदमी लेटा रहता है और उसका दिल बल्लियों उछलने लगता है, आदमी चुपचाप बैठा रहता है और उसके कान खडे होजाते हैं, बिना कैंची आदमी, आदमी के कान कतरता रहता है, आदमी ऊंचा रहता है और उसकी मूछ नीची हो जाती है, बिना चाकू छुरी की आदमी की नाक कट जाती है। सूर्पनखा की नाक थोडे ही न कटी थी, काटने वाले चाकू छुरी तलबार आदि कुछ लेकर ही नहीं गये थे वाण थे उनके पास । वाण से भी कहीं नाक कटती है । वो तो क्या हुआ उस रुपसी का- उस षोडसी का ,उस मृगनयनी, चन्द्रबदनी, सुमुखि सुलोचनि का प्रणय निवेदन दौनो भ्राताओं ने ठुकरा दिया तो उसकी घोर इन्सल्ट हुई गोया उसकी नाक कट गई । वो तो आइ.पी.सी. प्रभावशील नहीं थी वरना दफा 500 का दावा ठोंक देती। हां तो आदमी तना रहता है और उसकी गर्दन शर्म से झुक जाती है, महीनों से जो व्यक्ति बिस्तर से हिल नहीं सकता ....
""कल तलक सुनते थे वो बिस्तर से हिल सकते नहीं
आज ये सुनने में आया है कि वो तो चल दिये ""

कितनी परेशानी- कितनी मुश्किलें.-नहर के एक किनारे पर शाहजादे सलीम बैठे है एक कमल के फूल में चिटठी रख कर नहर में डाल देते है दूसरे किनारे पर अनारकलीजी बैठीं हैं इन्तजार कर रहीं हैं और देखिये ," आपके पांव देखे इन्हे जमीन पर मत उतारियेगा मैले हो जायेंगे " और उस चिटठी को पाकीजाजी चांदी की डिबिया मंगवाकर उसमें महफूज रखती हैं।
पहले पोस्ट आफिस का महा नगरों तक ही चलन था जिलों तक भी होगा ,और एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में चिटठी पहुंचाना, तो कोई पत्र बाहक थोडे बहुत पैसों की लालच में ऐसे काम के लिये तैयार होजाता था जो कासिद कहलाता था। बहुत सोच समझ कर लिखना पडता था जनाब , आज कल की तरह नहीं कि इन्टरनेट पर कुछ भी अन्ट बंट शंट लिख दिया बहुत सोचना पडता था साहब ,कोई व्दिअर्थी शव्द न लिखा जाय, कोई गलत शब्द न लिखा जाये। अन्यथा-
"क्या जाने क्या लिख दिया उसे क्या इज्तिराब में
कासिद की लाश आई है खत के जवाब में"
कुछ बच्चे भी इस काम को अन्जाम दे दिया करते थे।" नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुटठी में क्या है" बोले चिटठी है फलां अंकिल ने भिजवाई है फलां दीदी को देने जारहा हूं। फिर शिक्षा का प्रचार प्रसार हुआ तो कापी और किताबों इस हेतु प्रयुक्त होने लगीं।
आज की पीढी कुछ भी कहे मगर वह पीढी बहुत बुध्दिमान थी । इतने भविष्य का अन्दाज हमारे आज के बच्चे नहीं लगा सकते है। देखिये पत्र लिख दिया और भेजने के बाद पुन पत्र लिखने बैठ गये कान्फीडेन्स देखिये ,एक विश्वास ,आत्मबल -
"कासिद के आते आते खत इक और लिख रखूं
मै जानता हूं जो वो लिखेगे जवाब में "

और संतोष देखिये आज की पीढी को बहुत जल्दी तो गुस्सा आता है, जरा में होशो हवास खो देता है । देखिये पत्र भेजा ,उसने पढा और गुस्से में टुकडे टुकडे करके ऐसे फैक दिया जैसे फिल्म सत्ता पे सत्ता में हेमाजी ने तरबूज फैका था । मगर देखिये सेकेन्ड स्टोरी से फैके गये खत के पुरजे बीन रहे है और कह रहे है
"पुर्जे उडा के खते के ये इक पुर्जा लिख दिया
लो अपने एक खत के ये सौ खत जवाब में "
चेहरे पर संतोष है कि कइयों के तो सौ पत्रों का एक भी जवाब नहीं आता और एक हम हैं जिसको एक खत के सौ जवाब आये है और पुरजे इकटठा किये जारहे है। है आजकल किसी में ऐसी गम्भीरता ?

इसके और बहुत पहले ( लॉन्ग लॉन्ग एगो ) कही बादलों के साथ समाचार भेज रहे है, कहीं कबूतरों के साथ ,कितना कष्टदायक समय था फिर कबूतरों ने ये व्यर्थ के काम बन्द कर दिये तो खत में लिखने लगे "चला जा रे लैटर कबूतर की चाल" । कितनी भावुकता सज्जनता कितनी विनम्रता ,दया लिखी रहती थी पत्रों में ""खत लिख रही हूं खून से श्याही न समझना ""और मजा ये कि पत्र नीली श्याही से लिखा जारहा है। आजकल तो ऐसा कोई नहीं लिखता हाय हलो के जमाने में_ लेकिन पहले पत्र की शुरुआत इस शब्द से होती थी "" मेरे प्राणनाथ"" और पत्र का अन्त होता था"" आपके चरणों की दासी ""। मजाल क्या जो इसके विपरीत किसी ने प्रारम्भ"" मेरे चरणदास"" से किया हो और समापन ""आपके प्राणों की प्यासी" से किया गया हो।

Saturday, May 7, 2011

शार्ट कट

शार्ट कट से भी शार्टकट, प्रारंभ से आदमी तलाश करता रहा है ,चलने में -बोलने में, लिखने में , और जिन खोजा तिन्ह पाइया ,उन्हे रास्ता मिला भी । जब आर से काम चलता है तो ए आर इ क्या मतलब। जब यू से काम चल सकता है तो वाय ओ यू का क्या मतलब । और इसी तरह पिताजी पापा होते हुये डैडी से डैड हो गये । शार्टकट रास्ते में कोई टेडा मेडा रास्ता नहीं देखता और शार्टकट भाषा में कोई शुध्दता अशुध्दता नहीं देखता। और वैसे भी शुध्द अंग्रेजी कोई बोल नहीं सकता और शुध्द हिन्दी कोई समझ नहीं सकता तो रोमन ही सही ।

अभी शासकीय कार्यालयों में शार्टकट का प्रयोग शुरु नहीं हुआ है। इ मेल से भी डाक नहीं भेजी जाती फैक्स से भेज कर फिर कन्फर्मेशन कापी डाक से भेजी जाती है, वाकायदा ड्राफट तैयार होता है वह एप्रूव होता है, उंची कुर्सी वाला नीची कुर्सी वाले का ड्राफट एप्रूव करता है, वैसा का वैसा ही एप्रूव कर दिया तो मतलब ही नहीं, कुछ न कुछ गलती तो निकालना आवश्यक है ही। अच्छा एक मजेदार बात शासकीय शब्द कुल 100-150 है उन्ही से हजारों पत्र, परिपत्र, अर्धशासकीय पत्र, तैयार होते रहते है । एक भी विजातीय शब्द इसमें आजाये तो बात अखरनेवाली हो जाती है। ब्लाग पढता रहता हूं तो कुछ शब्द सामर्थ्य बढ गया है,मैने एक दिन एक शब्द का पर्याय बाची शब्द लिख दिया तो मेरी पेशी हो गई देखिये मिस्टर यह कार्यालय है कोई साहित्यिक संगठन या सभा नहीं है, शब्द वही प्रयोग करो जो शासकीय हो। और पता भी चलना चाहिये कि पत्र सरकारी है। अच्छा देखिये मुझे व् और ब का फर्क आज भी समझ नहीं आता लेकिन हजारों ड्राफ्ट ,एप्रूव किये

भैया हम तो गांव के है वही बोली वही लहजा , यध्यपि बच्चों को पसंद नहीं है । मेरी खडी बोली इन्हें रास नहीं आती । हालांकि कुछ कहते नहीं मगर समझ में आही जाता है, इशारों को अगर समझो । और तो और ये भी बच्चों से कहती ही है बेटा तेरे पापा तो शुरु से ही गवांरों जैसा बोलते है भले आदमियों के बीच बिठादो तो नाक कट जाती है। वाह एक न शुद दो शुद .

एक दिन पुत्र रत्न ने कह ही दिया आपकी बोली और लहजे पर मेरे मित्र हंसते है उसी दिन मैने तय किया कि बोलूंगा तो शुध्द हिन्दी ही बोलूँगा नहीं तो नहीं बोलूँगा । की प्रतिज्ञा । पुराने जमाने में लोग प्रतिज्ञा करते ही रहते थे उस समय जब हाथ उठा प्रतिज्ञा कर करते थे तब वादल गरजने लगते थे ,हवा की रफतार तेज हो जाती थी ,विजलियां कडकने लगती थी ,मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ ।

एक दिन घर में मित्र मंडली जमी थी ,मैने पुत्र से जाकर कहा भैया मेरे व्दिचक्र बाहन के पृष्ठचंक्र से पवन प्रसारित होगया है शीघ्रतिशीध्र वायु प्रविष्ठ करवा ला ताकि मुझे कार्यालय प्रस्थान में अत्यधिक विलम्ब न हो। मै तो कह कमरे से चला आया किन्तु मैने सुनली- पुत्र का एक मित्र कह रहा था क्यों रे तेरे पापा का एकाध पेंच ढीला तो नहीं होगया ।

मेरे पडौस में एक बहिनजी रहती है ठेठ देहाती ,प्रायमरी स्कूल में बहिनजी की नौकरी लग गई तो परिवार यहां आगया। एक दिन बहिन जी के स्कूल की अध्यापिकाऐं उनके घर आई तो तो बहिन जी बोलने का लहजा, शब्द सब बदले , बोली बिल्कुल शहरी हो गई, बहिन जी के छोटे भाई बहिन भोचक्के होकर दीदी को देखने लगे । आखिर सबसे छोटी से न रहा गया तो बोल ही उठी काये री जीजी आज तोय का हो गओ आज तू कैसे बोल रई है

मजा तो अब है रोमन भी और शार्टकट भी
लिखा_ चाचा जी अजमेर गया है
पढा _ चाचाजी आज मर गया है

Wednesday, April 13, 2011

आयोजक की खैर नहीं

उस दिन मै बात तो कर रहा था कवि गोष्ठी की मगर न जाने कहां से शेर शायरी और पुराने फिल्मी गानों में उलझ गया ।

जब मुझे जबरन कवि गोष्ठी का श्रोता बनाकर ले जाया जा रहा था तब मै उनसे यह भी न पूछ पाया कि आज की गोष्ठी किस संस्था या संगठन की ओर से है । बात यह है कि मेरे नगर में राजनैतिक दलों से ज्यादा साहित्यिक संस्थायें, संघ, संगठन , मंच इत्यादि है । हर संस्था में एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष , सचिव, कोष नहीं है फिर भी एक कोषाध्यक्ष तो होता ही है और यदि उस संस्था या संघ में चार से ज्यादा कवि हुये तो फिर एक सह सचिव एंक कोई बुजुर्ग हुआ तो संरक्षक इत्यादि इत्यादि ।

जबरन पकड कर लाये गये श्रोताओं के अलावा अन्य श्रोताओं के अभाव में ऐसा प्रतीत होता है जैसे कवि गोष्ठीयों में दिलचस्पी रखने वाला साहित्य प्रेमी आज अनुपलव्ध है क्योंकि श्रोता स्वयं कवि हो चुका है और उसे फिर एक अदद श्रोता की आवश्यकता है।

महत्त्व पूर्ण कवि साथी लगातार ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं क्योंकि वे अपनी बात कहना चाहते है वे उत्सुक है अपनी सुनाने को ,अपनी छपाने को साथ ही उसकी यह शिकायत भी है कि उनकी रूचि अनुकूल श्रोता नहीं मिल पाते हैं कवियों के पास विपुल सामग्री है नगर में साहित्यकारों की कमी नहीं फिर भी कवि गोष्ठियों में श्रोता दिखाई नहीं देते
साहित्य सृजन कर कवि उसे अभिव्यक्त करना चाहे और उसे उपयुक्त पात्र न मिले या मिलने पर उसके सराहना न करे तो साहित्यकार को मृत्यु तुल्य पीड़ा ( वह जैसी भी होती हो ) होना स्वाभाविक है -यही पीड़ा सम्पादकीय अनुकूलता न मिलने पर हुआ करती थी तो फिर कवियों या लेखकों को स्वांत सुखाय लिखने को विवश होना पडा मैं भी पहले लेख लिख कर भेजता था और खेद सहित वापस आजाता था तो उसे स्वांत सुखाय के पैड में बाँध दिया करता था १५ साल पुराने स्वांत सुखाय वाले लेख जब आज पढता हूँ तो लगता है कि सम्पादक सही थे वे लेख पाठक दुखाय ही थे ।

हर कवि कि इच्छा होती है कि वह अपने यहाँ गोष्ठी आयोजित करे मगर या तो वह किराये के मकान में रहता है या पुराने पुश्तैनी मकान में - जिनमें बड़े हाल का अभाव रहता है हालाँकि वह चाय पानी फूल माला सब की व्यवस्था अपनी आर्थिक तंगी के वावजूद करता है मगर उसके बच्चे बच्चियां इसे व्यर्थ का हुल्लड़ कहकर उसकी इच्छा को दवा देते हैं।पत्नियाँ तो खैर पतियों से नाराज़ रहती ही हैं क्योंकि वे गोष्ठियों से देर रात घर लौटते हैं और उनके दुर्भाग्य से और कवि पति के भाग्य से कोई श्रोता घर पर ही आजाय तो चाय बना बना कर परेशान हो जाती है।

कवि गोष्ठियों में आयोजक समय देता है 8 बजे कवि एकत्रित होते हैं दस बजे तक । कुछ कवि तो इतनी देर से पहुँचते हैं के तब तक आधे से ज़्यादा कवि पढ़ चुके होते हैं ।इसमे एक फायदा भी है कि उन्हें ज्यादा देर इंतज़ार नहीं करना पड़ता और जाते ही सुनाने का नंबर लग जाता है ।

गोष्ठियों में अब जो अपनी सुना चुके है वे वहाँ से खिसकने के मूड में होते है अध्यक्ष बेचारा फंस जाता है भाग भी नही सकता और उसे सब से अंत में पढ़वाया जाता है जब तक चार -पाँच लोग ही रह जाते है । मैंने देखा है अखंड रामायण का पाठ -१२ बजे रात तक ढोलक मंजीरे हारमोनियम ,,दो बजे तक तीन चार लोग रह जाते है अब एक जो व्यक्ति तीन बजे फंस गया सो फंस गया सुनसान सब सो गए इधर इधर देखता रहता है और पढता रहता है काश कोई दिख जाए तो उससे पांच मिनट बैठने का कहकर खिसक जाऊँ -मगर कोई नहीं =न बीडी पी सकता है न तम्बाखू खा सकता है ,तीन से पाँच का वक्त बडा कष्ट दाई होता है /सच है भगवान् जिससे प्रेम करते है उसी को कष्ट देते हैं इससे सिद्ध हो जाता है की तीन बजे से पाँच बजे तक पाठ करने हेतु अखंड रामायण में फसने वाले और गोष्ठियों के अध्यक्ष से ही भगवान् प्रेम करते हैं ।

कवि की कविता पूर्ण होने पर दूसरे कवि तालियाँ बजाते है और बीच बीच में वाह वाह करते रहते है वास्तव में तालिया इस बात का द्योतक होती है कि प्रभु माइक छोड़ अपनी सिंहासन पर विराजमान होजाइये मगर जब वह वहीं बैठ कर डायरी के पन्ने पलट कर सुनाने हेतु और कविताये ढूढने लगता है तो शेष कवियों के दिल की धड़कन बढ़ जाती है, उधर कवि भी तो कहता है कि एक छोटी सी रचना सुनाता हूँ और फ़िर शुरू होजाता है और उसकी छोटी सी रचना खत्म होने का नाम नहीं लेती।-शेष कवियों की भी कोई गलती नही वर्दाश्त की भी हद होती है ,क्योंकि कवि का जब तक नम्बर नही आता सुनाने का तब तक उसे बहुत उत्सुकता रहती है और ज्यों ही उसने अपनी सुनाई बोर होने लगता है दूसरे दिन समाचार पत्र में प्रकाशित होता है। कवि सबसे पहले उसमें अपना नाम देखता है इत्तेफाकन किसी कवि का नाम छूट जाए या उसके व्दारा पढी गई लाइन पेपर में न दी जाये तो आयोजक की खैर नहीं ।

Thursday, March 31, 2011

औरु करै अपराध कोऊ

एक दिन घर पहुंचने में जरा देर होगई ,लगभग एक बज गया होगा रात का । दरवाजा खुलवाया तो यू समझ लीजिये साहब कि बिल्कुल आग, और हमें गुनगुनाते हुये , मुस्कराते हुये देख लिया तो बिल्कुल ज्वाला । । टेन्शन में तो थीं ही , बिना बताये धर के बाहर चला जाना और रात एक बजे तक न लौटना गुस्सा स्वभाविक है। तो किसी को मुस्कराते गुनगुनाते देख कर चिढ जाना या और क्रोधित होजाना ,ये तो होना ही था।

गये थे तो खाना खाकर पान खाने मगर कुछ कवित्त रसिक मिल गये मालूम हुआ कवि गोष्ठी रखी है हमसे ही पान खाये और हमे ही पकड लेगये भला इतना अच्छा श्रोता फिर कहां मिलेगा। मगर जैसा कि हर कवि सोचता है ‘

‘झूंठी वाह वाह ही सही दिल तो वहल जाता है,,
वरना हम आपकी वाह वाह को नहीं जानते क्या

मगर उन्हे तो वाह वाह सुनना था ।घर पर फोन से सूचना भी नहीं देने दी भले आदमियों ने ।सोचा होगा सुनने को तो बुलाया ही है इसे भी चांस देदो तो और भी मन लगाकर सुनेगा । हमसे भी कहा कुछ सुनाओ । सुनाया ,तो और लोगों ने तालियां भी बजाई । लोगो ने वाह वाह भी की एसा लगा कि हम बडे कवि होगये इतने लोग हमे सराह रहे है जम कर तालियां बजा रहे है। चेहरे पर स्वाभाविक मुस्कान थी और थोडा थोडा गुव्वारे जैसा भी, तालियों की गडगडाहट से , फूल भी गये थे सो गुनगुनाते हुये घर पहुंचे थे यह जानते हुये भी कि

सच है मेरी बात का क्या एतबार
सच कहूंगा झू्रंठ मानी जायेगी
फिर भी हमने मतलब मैने स्पष्टीकरण देना शुरु कर दिया । कवि गोष्ठी थी हमने रचना सुनाई तो लोगों ने जम कर तालियां बजाई वजाते ही रहे बजाते ही रहे। पूछा कहां थी कवि गोष्ठी , हमने कहा बापू पार्क में । बोली वहां तो मच्छर बहुत है।

ठीक है भैया ऐसा ही सही वे मेरी कविता नही सराह रहे थे बस खुश और करे अपराध कोउ और पाव फल कोउ । गलती तो उन लोगों की है न जो कह गए
।ओ फूलों की रानी बहारों की मलिका तेरा मुस्कराना गजब हो गया। क्या जरुरत थी साहब । चौहदवीं का चाद हो या आफताव हो वाह साहब, अरे जब आफताब कह ही दिया था तो और स्पष्ट भी कर देते कि आफताब मई जून का, नौतपे का बिल्कुल रोहणी नक्षत्र का , मगर नहीं और इससे भी सब्र न हुआ तो कल चौहदवीं की रात थी शव भर रहा चर्चा तेरा ।इनको ऐसी चर्चाओं से ही फुरसत नहीं मिलती थी किसी से कोई मतलव ही नहीं था वस वालों को नागिन कह दिया घटा कह दिया सिमटी तो नागिन फैली तो घटा,और तो और एक शायर साहब पधारे वोले

मेरे जुनू को जुल्फ के साये से दूर रख
रास्ते मे छांव पाके मुसाफिर ठहर न जाये

क्या है ये । भैया जुल्फ हैं या बरगद का दरख्त । तसल्ली फिर भी न हुई तो कहा गया हंस गये आप तो बिजली चमकी कहने वाले यह भूल गये कि इसके बाद एसा डरावना गरजता है कि क्या बताये।घन घमंड नभ गरजत घोरा ...डरपत मन मोरा । गलतियां तो पुरानों ने बहुत की है उसका खामियाजा आज की पीढी भुगत रही है या उस को भुगताया जा रहा है अब उन्हौने गलती की या वह जमाना ही एसा था यह बात जुदागाना है मगर गलती की है तो मानी भी जारही है और फोरफादर्स के कर्मों की सजा अब दी भी,जारही है।

Sunday, February 27, 2011

बुडढा मिल गया

संगम में एक गाना था ,हरिव्दार में नहीं बल्कि फिल्म संगम में
मै का करूं राम मुझे बुडढा मिल गया
।उस गाने को बार बार दुहराती है जब भी किसी बात पर इनका विरोध करो मै का करूं राम बहुत समझाया हंसी में मजाक में व्यंग्य में ताने के रुप में उलाहने के रुप में बार बार इस गाने को नहीं गाना चाहिये इससे पुरुष का मनोबल गिरता है वह मानसिक दुर्वलता का शिकार हो सकता है मगर नहीं साहब। एक बात तो है एक उमर के बाद आदमी सठिया तो जाता है।आश्चर्य तो होगा यह जानकर कि बुडठा बुडढो की बुराई कर रहा है ।तो मेरा कहना यह है कि

यूं .........कि जब धन्नो घोडी होकर तांगा खीच सकती है , वसंती लडकी होकर टांगा चला सकती है तो मै बुडढा होकर बुडढों की बुराई क्यों नहीं कर सकता । वैसे हकीकत वयान करना बुंराई करना थोड़े ही होता है ।
असल में होता क्या है कि ये लोग एक उम्र के वाद सठिया जाते है । सठ को शठ भी सुविधा और संतुलन की दृष्टि से प्रयोग किया जासकता है । शठ सुधर नहीं सकते एसी बात भी नहीं है।
शठ सुधरहि सत संगति पाई कैसे वो ऐसे कि
पारस परस कुधात सुहाई ।

मगर इन बुडढो का आलम यह है कि
तुलसी पारस के छुये कंचन भई तलवार
पर ये तीनो न गये धार मार आकार ।

और उसका भी कारण है ये हमेशा अकडे ही रहे झुके तो केवल बास के सामने वाकी बीबी और बच्चों के लिये तो अकडे ही रहे कमर झुक गई मगर अकड जाती नहीं । रस्सी जल गई पर बल न गया।
वैसे सतसंगति के लिये यहां पारस की कमी भी नहीं है।सतसंगत के लिये टीवी चैनल है ,विगबास है, उसमें विदेश से पधारी हुई बाला एडरसन,बेचारी यहां आई अपना घर परिवार छोड कर सतसंगति देने और उनको मिला क्या मात्र सात करोड। सुना है उनका स्वागत करने एक झलक पाने बहुत तादाद में लोग हवाई अडडे पर गये थें ।फिर अपने यहां क्या कम पारस है अपने यहां भी इन्साफ वाली बाई,और भी अनेक हैं जिनकी विचारधारा यह है कि पुरुष जब कपडे उतार सकता है एक अभिनेता है वे इसी तलाश में रहते है कि कब बनियान फैक कर गाना गाने को मिले आखिर मसल्स बनाये किस लिये है जिम जा जा कर तो फिर लडके और लडकी यह भेद भाव क्यों यहां समानता क्यों नहीं । मगर बुडढों को ये बात समझ में नहीं आती क्योंकि उन्हौने वह जमाना देखा होता है जब बेटी पूछती थी मां जीन्स पहिन लूं क्या तो मां कहती थी मत पहिन बेटी लोग क्या कहेंगे । आज जब बेटी कुछ पहिनने को पूछती है तो मां कहती पहिन ले बेटी कुछ तो पहिन ले।

हां तो मै इन बुडढों की बात कर रहा था ये अकडूचंन्द सौने के होकर भी तलवार बने रहते है । इनकी बातें सुनो कुन्दनलाल और नलिनीजयवन्त की बाते करेंगे साथ ही हमारे जमाने में एक रुपये का सोलह सेर गेहूं आता था । अरे आता होगा हमे क्या लेना देना ।अर्ली टू बैड वाली बात करेंगे अरे इनको कौन समझाये जल्दी सोना जल्दी उठना उस जमाने की बाते हैं आज तो असल चैनल तो रात 12 बजे के बाद ही शुरु होते है। उस पर तुर्रा ये कि घर वाले हमको नजरअंदाज करते है हमारी उपेक्षा करते है और तो और वो भी सात फेरों वाली बच्चों की ही तरफ बोलती है । अरे भइया पहले वह डर के कारण तुम्हारी तरफ बोलती थी अब डर खत्म । बच्चे हो गये कमाने वाले और जमाने का कायदा है आपने भी देखा होगा गमले में पौधे लगाते है पानी डालने का ध्यान रखा जाता है मैने तो नहीं देखा किसी को कि किसी ढूंढ मे पानी डाल रहा हो तो ये समझते ही नहीं कि हम ठूंठ हो चुके है ।

और इनकी बाते देखों जैसे सारे संसार काअनुभव इन्हे ही हो और डाई करके कहेंगे ये कि ये वाल घूप में सफेद नहीं हुये कमाल है। जहां तक मै समझता हूं पुराने लोगो को न तो बात को समझने की क्षमता होती थी न बोलने का तरीका आता था ।
एक ही लेख में ज्यादा बुराई भी नहीं करना चाहिये शेष बुराई आगे के लिये छोडते है।

Saturday, February 19, 2011

गैर हाजिरी मुआफ

जब मेरा स्वास्थ्य खराब हुआ था तभी मै समझ गया था कि न जाने कितने हाथों से गुजरुगा रेल में खरीदे हुये अखबार की तरह और सच ही जो भी तबीयत देखने आया अपने अनुभव और दवाओं की जानकारी साथ लाया । बात मात्र इतनी थी कि पीठ में दर्द हुआ था लेकिन दुष्यंत कुमार जी की मानें तो ** पक्ष औ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं बात इतनी है कि कोई पुल बना है"। पैथियां इतनी प्रचलित है कि मरीज़ दुबिधा में ही रहता है मैं इधर जाउं या उधर जाउं ।और फिर सलाहकार । कहते है संसार में सबसे ज्यादा दी जाने वाली कोई चीज है तो वह है सलाह और सबसे कम ली जाने वाली कोई चीज है तो वह है सलाह

वैसे तो दर्द सभी खराब होते है मगर पीठ का बापरे न उठ सकते न बैठ सकते चीख निकलजाये जरासी हरकत पर । उनका कहना था कि जल्दी से किसी डाक्टर को बतलादो एक्सरे करवालो । मगर तबीयत पूछने आये एक ने कहा भाभी जी इन डाक्टरों के चक्कर में पड मत जाना ।हमारे चाचाजी को ऐसे ही पीठ में दर्द हुआ था न जाने कैसा इन्जेक्शन लगाया कि लकवा हो गया आज तक घिसट रहे है और एलोपैथी में इसका इलाज है भी नहीं कहदेंगे स्लिप डिस्क है आराम करो दबायें खाओ।एक और ने समर्थन किया कि कि सही बात है एक को डाक्टर ने बतादिया वरट्रीब्रा कलेप्स हो गया है और आपरेशन कर दिया बेचारे ने पूरी जिन्दगी व्हील चेयर पर बिताई।मेरी मानो तो होमियोपैथ को दिखालो।
सही भी है होमियोपैथी एक पध्दति है जिसकी दवायें निरापद होती है केवल दवा का नाम मालूम होना चाहिये लाते रहो खाते रहो। इसीलिये होमियोपैथी का डाक्टर कभी मरीज को पर्चा बना कर नहीं देता है न दवा का नाम ही बताता है नाम लिख दिया तो मरीज को जानकारी हो जायेगी और दस रुपये की दवा के पचास बसूल करने में दिक्कत होगी ।
होमियोपैथी है बडी विचित्र इसके नाम जितने अटपटे है उतने आश्चर्यजनक इनके तत्व होते हैं जैसे एक प्रकार का सर्प चेचक का बीज स्पेन का मकडा धतूरा आदि । घतूरा पर से याद आया एक मरीज के लक्षण मानसिक रोगी जैसे नजर आने पर चिकित्सक ने किताबों के अध्ययन से पाया कि इसे स्ट्रेमोनियम दी जाना चाहिये । चूंकि दवा उसके पास खत्म हो गई थी उस दबाई का कन्टेन्ट था धतूरा तो पास में लगे धतूरे के पत्ते निचोड कर मरीज को पिला दिये । इससे मरीज.......।कुछ बाते इशारे में कही जाती है जैसे कि एक युवक ने टंकी में यह देखने के लिये कि इसमें पैट्रोल है या नहीं । माचिस जलाई । पेट्रोल था। आयु 35 वर्ष। धतूरे को कनक कहते है कहते है इसके खाने से आदमी पागल हो जाता है। स्वर्ण को भी कनक कहते है कहा है ‘‘कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय । ये खाये बौरात है वो पाये बौरात । खैर उस चिकित्सक का मुकदमा तो सुप्रिम कोर्ट तक गया



एक सलाहकार और आये बोले बाबूजी कुछ नहीं तुमने कोई बजन उठा लिया होगा तो चोडरा कुसका चला गया है हमारे ग्रामीण क्षेत्र में पीठ के नीचे हिस्से यानी लम्बर रीजन में अचानक दर्द होने लगने को चोडरा चला जाना या कुस्का चला जाना कहा जाता है । मै तलाश करता हूं अगर कोई व्यक्ति उल्टा पैदा हुआ होगा तो उससे आपकी कमर में लात लगवा देंगे दो दिन में आराम हो जायेगा । मुझे याद आया एक थानेदारसाहब का चोडरा चला गया था तो शहर के जितने गुन्डे बदमाश थे सब पहुंच गये हुजूर हम उल्टे पेदा हुये है
गरज यह कि जितने मुह उतनी दबायें।कहीं की मिटटी लपेटी न जाने कहां कहां के पानी से नहाये।जन्तर मन्तर जादू टोना । उसी बीच मालूम हुआ एक स्थान पर मेला लगा है मरीज इधर से खटिया पर लेटा हुआ जाता है और उधर से दौडता हुआ आता है वहां भी गये हालांकि वहां तो कुछ भेंट नहीं ली जाती थी परन्तु ठहरने की जगह व महगाई महानगर से भी ज्यादा ।
कृपया गैर हाजिरी को माफ़ करें