Friday, June 10, 2011

कवि और कविता

कभीss कभीsss मेरे दिन मेंeeeee खsयाsल आताs है। कभीनहींभीआता है। एसा खयाल क्यों आता है कि पहले की अपेक्षा अब कवितायें ज्यादा लिखी जारही है।

शायद पहले कविता लिखना कठिन था बिल्कुल गणित के सवालों की तरह। कविता एक लेकिन उसे कितने भागों मे विभक्त कर रखा था दोहा, चौपाई, सोरठा, छंद, सवैया, कुण्डलियां और उस पर भी तुर्रा ये कि उनकी मात्राऐं गिनो। अब कैलकुलेटर थे नहीं तो अंगुलियों के पोरों पर मात्राओं की गिनती किया करते थे। दोहा एक दो लाइन का, लेकिन उसके चार भाग । दो भाग मे 11 और दो में 13 मात्राऐं होना आवश्यक । कितनी परेशानी । आधी जिन्दगी तो मात्राऐं गिनने में ही निकल जाये। आपको तो पता नहीं होगा पहले एक रुपया भी कई भागों में विभक्त था । रुपया,अठन्नी,चवन्नी, दुअन्नी, इकन्नी, पैसा, धेला और पाई ।

दूसरी बात पहले शिक्षा का भी अभाव था। कोई बी ए पास हो जाता था तो उसे हाथी पर बिठा कर जलूस निकाला जाता था और वह अपने नाम के साथ बीए लिखता था। आज देखिये एम ऐ पी एच डी शिक्षाकर्मी है और उनको 3500/रुपये तनखा तब मिलती है जब अंगूठा लगा प्रमाणपत्र हैड आफिस पहुंच जाता है कि हां इसने महीना भर डयूटी दी।

किसी कवि से अपने समय की वातावरण की अवहेलना तो होती नहीं है ऐसा वातारण भी होना चाहिये कि कवित्व भाव जाग्रत हो। उस जमाने में इतनी हत्याऐं, डकैती, इतने बलात्कार ,शोषण न थे । अपने समय की धार्मिक , राजनैतिक,सामाजिक , सांस्कृतिक बातों का प्रभाव रचना पर होता ही है इसलिये पहले कवित्व भाव कम था।

"जहां तक मेरा सवाल है मुझे न तो पहले की कविता---
केसव चोंकति सी चितवे छिति पाँ धरके तरके तकि छाहीं
बूझिये और कहे मुख और सु और की और भई छीन माहीं"

समझ आती थी और न आज की कविता

""मै सुनता था नूपुर धुनि
प्रिय
यध्यपि बजती थी चप्पल""

समझ आती है।

तय शुदा बात है कि कार्यक्षमता की भी बृध्दि हुई है।पहले बुध्दि बर्धक टानिक यंत्र तंत्र न थे । आज तो पढाई मत करो यंत्र पहिन लो परीक्षा में सफलता सुनिश्चित है। पहले कोई कहानी लिखता रहता ,तो कोई कविता ही लिखता रहता था । आज विविधता है लेखक ने आज कहानी लिखी ,कल कविता और परसों गजल । कभी कभी तो एक ही दिन में एक कविता और एक गजल दौनो लिख लेते है। पहले कविता लिख कर गुरु को बताई जाती थी और वे यहां का शब्द वहां और यहां की लाइन वहां करवा दिया करते थे जिससे एक नई ही कविता तैयार हो जाती थी।

एक टेलर मास्टर अपनी खटारा सिलाई मशीन से सिलाई कर रहा था । खड खड की आवाज हो रही थी वहीं एक बन्दर वाला खेल दिखाने आगया डुम डुम बजाने लगा । टेलर ने उसे वहां से भगाना चाहा तो उसने अपने पेट का वास्ता दिया । टेलर का कहना था कि वह खड खड और डुम डुम के बीच असुविधा महसूस कर रहा है और काम नहीं कर पारहा है। बन्दर वाले ने उसे आपस में ताल मिलाने को कहा । कुछ मिनट में खड खड डुम डुम की ताल मिल गई दौनो अपना अपना व्यवसाय करते रहे। खेल खत्म करके बन्दर वाला जाने लगा तो बोला क्यों उस्ताद ताल मिल गई थी ? टेलर ने कहा ताल तो मिल गई- मगर शेरवानी की जगह सलवार सिल गई।

उस समय विदेशी साहित्य से भी कम परिचय था तो उनका अनुवाद कर अपनी कविता भी नहीं कह सकते थे। फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियां इनसे भी साहित्य सृजन की प्रेरणा मिली । आइ ए एस नौकरी छोड कर इन कम्पनियों में जाने लगे तो कवि हृदय में कवित्व भाव जाग्रत होता कि उफ कितनी योग्यता ,'कितनी क्रीम देश से बाहर चली जारही है।

मेरे नगर मे नदी नहीं है नाला है तो बरसात में जब नाला चढता है तो लोग उसे ही देखने जाते है ऐसे ही नाला उफान पर था और दर्शक एकत्रित थे एक सज्जन बार बार कह रहे थे उफ कितना पानी व्यर्थ चला जारहा है उफ कितना पानी व्यर्थ चला जारहा है । वे न तो कोई इन्जीनियर थे न जल संरक्षण समिति के सदस्य थे। असल में उनका दूध का व्यवसाय था।

इन्टरनेट में एसी साइड भी है जिनके खुलते ही दर्शक मंत्र मुग्ध हो जाता है और उसमें ऐसा कवित्व भाव जागृत होता है कि कवितायें फूल जैसी झरने लगती है लेख तैयार होने लगते है। अब सम्पादक तो इन्हे पत्रिकाओं मे छापने से रहे और ब्लाग पर मोडरेशन सक्षम है तो फिर इनको कोयला हाथ में लेकर बस स्टेन्ड के बाथरुम और रेलवे के व्दितीय श्रेणी के डब्बे के शौचालयों में जाकर अपनी विव्दता का प्रदर्शन करना पडता है।

कुछ लोगों का यह मानना है कि आजकल साहित्य और सिनेमा में अश्लीलता प्रवेश कर गई है । लेकिन इसके विपरीत तर्क यह दिया जाता है कि अश्लीलता न तो शब्दों में होती है और न दृश्यों में । वह तो श्रोता और दर्शक की मानसिकता में रहती है , इसलिये श्रोता दर्शक और पाठक अनचाहे अर्थ निकाला करते है। ठीक है । जैसा भी है अरे भाई लिखा तो जारहा है यह क्या के है --बैटर दैन नथिंग।

दो पुरानी सहेलियां मिलती हैं
कहो बहिन कैसी हो
अच्छी हूं
और बच्चे कैसे है
वे भी अच्छे है
और पतिदेव कैसे है
न होने से अच्छे है।

पहले ,अलंकारों का प्रयोग होता था फिर व्याकरण -बापरे- "कनक कनक ते सौ गुनी " "सारंग ले सारंग चली" , आज व्याकरण और अलंकारों का भी झंझट नहीं । हिन्दी हो या अंग्रेजी आप ""हू आर यू"" को ""आर यू हू"" बे-धडक लिख सकते है। कोई टोकने वाला ही नहीं है । पहले तो किसी ने दोहा सुनाया और जरा सी त्रुटि पर सुनने वाला बाल खीचने लगता था जैसे कोई गायक किसी गुरु के सामने हारनोमियम पर कोई राग निकाल रहा हो और गलती से एक भी अंगुली शुध्द स्वर की जगह कोमल स्वर को टच कर जाय तो सुनने वाला वहीं अपना सिर ठोकने लगता है। ऐसे ही कविताओं का हाल था।

फिर लोग कहते है कि आजकल कैसा ?? लिखा जारहा है। अरे लिखा तो जारहा है -- कुछ तो लिखा जारहा है

पहले बेटी पूछती थी मां मे जीन्स पहिनलूं
मत पहिन बेटी लोग क्या कहेंगे
आज बेटी पूछती है मां मै स्विम सूट पहिनलू
पहन ले बेटी कुछ तो पहन ले

40 comments:

Alpana Verma said...

:))) बहुत मजेदार व्यंग्य है !
बहुत ही बढ़िया ताल-मेल बैठाया है नूतन -पुरातन व्यवहारों का ..
बहुत सटीक लगी आप की हर बात..दोहा ,सोरठा,कुंडलियाँ सब दुर्लभ सी ही हो गयी हैं.

आज कल शोर्ट कट का/इंस्टेंट का ज़माना है फुर्सत नहीं है मात्राएँ गिनकर उन्हें रचने की -अलंकारों को ध्यान में रखने आदि की ..इसीलिये आज कल प्रचलन है गद्यात्मक कविता या क्षणिका का ..

Smart Indian said...

ताल तो मिल गई
मगर
शेरवानी की जगह
सलवार सिल गई

वाह, वाह! आजकल मात्राओं वाला काम शायरी, त्रिवेणी, ताका, हाइकू आदि नवागंतुक विधाओं में होता है। बहुत सी कविताओं में तो (मात्रा का) हिसाब कविता से भी बेहतर होता है।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत बढ़िया व्यंगात्मक लेखा.जोखा तैयार किया है आपने........... सारी बातें कुछ अलग होकर भी जुडी हुई लग रही हैं..... 'बैटर दैन नथिंग' अच्छा लगा.....

Sunil Kumar said...

अश्लीलता न तो शब्दों में होती है और न दृश्यों में । वह तो श्रोता और दर्शक की मानसिकता में रहती है
आदरणीय श्रीवास्तव भाई साहेब व्यंग्य तो है ही आपने तो यथार्थ के भी दर्शन करा दिए |आपसे मेरी आत्मीयता होने के दो कारण है जैसे ब्लागर भाई और जाति भाई इसके सिवा दूसरे भाई ना आप है ना मैं हूँ

दिगम्बर नासवा said...

आपके व्यंग की धार तो सच में कमाल है ... पर सही है जिस बेतहाशा गति से कवि और कविताएँ बाद रही हैं उसकी कोई बानगी नही ....और सच में जब जब नेट खुलता है .. ब्लॉग आते हैं .. मन कवि हो जाता है ...

अशोक सलूजा said...

भाई जी, बहुत देर लगा दी आने में ..
अब किस-किस की तारीफ करूं ...?
पढाने की या खूब हँसाने की |

आप की टिप्पणी यहा है :-

इस पर क्लिक कीजिए

नीरज गोस्वामी said...

बदलते मूल्यों पर आपकी ये पोस्ट बेजोड़ है बीच बीच में आप द्वारा लगाया हास्य का तड़का विलक्षण है...

नीरज

पूनम श्रीवास्तव said...

Adarniy sir,
adhunik kaviyon aur unki rachnaon par lajavab vyangya likha hai apne....ab to lig yahi samajhte hain ki kuchh bhi likh do vo kavita hai......jabki yadi dhyan diya jay to in akavitaon men bhi ek lay hoti hai....
Poonam

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

सच कहा, आज कुछ भी लिखो कविता के नाम पर, सब कुछ चलता है, कविता, अकविता,कुकविता के नाम पर :)

vijai Rajbali Mathur said...

आपकी यथार्थ बातों को लोग व्यंग्य कह कर हवा में उड़ा रहे हैं बगैर कुछ समझने या सीखने के.

Asha Joglekar said...

क्या व्यंगात्मक तुलना की है आपने नये और पुराने काव्य की और अंतिम, पहन ले बेटी कुछ तो पहन ले , जोरदार ।

Jyoti Mishra said...

a very intense, deep thought behind this humorous post.
Nice read !!

Dr Varsha Singh said...

दिलचस्प व्यंग्य ....सार्थक लेखन के साथ विचारणीय प्रश्न भी ....
वाकई गद्यात्मक कविता ने गीत को हाशिये पर रख दिया है.
हार्दिक धन्यवाद एवं आभार।

निवेदिता श्रीवास्तव said...

ये भी खूब रही .....

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सुंदर काव्‍य चर्चा।

---------
हॉट मॉडल केली ब्रुक...
लूट कर ले जाएगी मेरे पसीने का मज़ा।

महेन्‍द्र वर्मा said...

व्यंग्य के माध्यम से आप बहुत अच्छी सीख भी दे देते हैं। कुछ बाते विशेष रूप से विचारणीय हैं।

virendra sharma said...

वाह व्यंग्य मोहन जी हर जगह व्यंग्य -विनोद बड़ा सटीक बड़ा यथार्थ -पहन ले बेटी कुछ तो पहनले ....और पति कैसे हैं ,न होने से अच्छे है ,...आभार ऐसे सार्थक लेखन के लिए .

Suman said...

वाकई कल में आज में बहुत कुछ बदल गया है !
आज की कविताओंमे काव्य कहाँ है सर जी
मुक्त छंद के नाम पर कुछ भी लिख सकते है
बस थोडीसी rhyme होनी चाहिए !
अच्छा लगा व्यंगात्मक लेख !

Suman said...
This comment has been removed by the author.
Rachana said...

bahut karara vyang hai
'बैटर दैन नथिंग' bahut achchha laga
rachana

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

दोहे,छंद,चौपाई,सवैया,सोरठा आदि में बंध कर लिखना बहुत कठिन कार्य है. फिर भावों का प्रवाह भी बना रहे,गति,यति,गेयता भी बरक़रार रहे, इन सारे नियमों का पालन करें , तब जाकर जन्म लेती है कोई कविता . इस प्रक्रिया में कवि को प्रसव पीड़ा -सी वेदना सहनी पड़ती है. ऐसी कविता के कवि आज भी हैं, गिनती के ही सही , हैं तो सही. कालांतर तक इन्ही कवियों की कवितायेँ जीवित रहेंगी. व्यंग्य के जरिये आपने अपनी पीड़ा भी व्यक्त कर दी और हँसा भी दिया. व्यंग्य विधा का अनुपम उदहारण.

Abhishek Ojha said...

हा हा, गजब.
सीरियस नोट पर एक असहमति है कविता लिखना अगर गणित के सवालों की तरह आसान होता तो हम भी २-४ तो लिख ही डाले होते अब तक :)

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

सार्थक तथ्यों को समाहित कर अभिव्यक्ति देता सुन्दर व्यंग ....

बहुत ही लालित्यपूर्ण शैली एवं प्रवाहयुत........प्रारंभ से अंत तक पाठक को बांधे रहने में सक्षम |

अभिषेक मिश्र said...

Kavitaai ki vidanbanaon ka sarthak varnan kiya hai aapne apni vishisht shaili mein.

Amrita Tanmay said...

""मै सुनता था नूपुर धुनि
प्रिय
यध्यपि बजती थी चप्पल..अलंकृत शब्दों में प्रशंसा करने के स्थान पर कहना चाहूंगी..नतमस्तक हूँ आपके आगे..आपकी लेखनी के आगे.. उठते उद्दगार को कृपया स्वीकार करें..

रंजना said...

"आज की तथाकथित कविता" ने बड़े दिनों से मन भारी व्यथित कर रखा था... इसपर कलम उठाने को मन बार बार लतिया रहा था...पर इसे पढ़ सोच रही हूँ,किसी जनम में ऐसा लिख पाती ????

क्या जो लिखा है ना आपने.....बस, नतमस्तक हूँ...

जैसे बात को पकड़ कर विवेचित किया है न आपने...ओह !!!!

क्या कहूँ प्रशंसा में ????

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बृजमोहन जी, इस शमा का जलाए रखें।

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ब्‍लॉग समीक्षा की 20वीं कड़ी...
आई साइबोर्ग, नैतिकता की धज्जियाँ...

Alpana Verma said...

मेरे ब्लॉग 'भारत दर्शन' पर आप के विस्तृत कमेन्ट मिले ,बहुत ख़ुशी हुई यह जानकार कि आप इतनी अधिक जगहों का भ्रमण कर चुके हैं .
जिन स्थानों का आप ने ज़िक्र किया है उन्हें अगली कड़ी में प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगी.
सादर,
अल्पना

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

अलग अंदाज मे लिखा व्यंग.. वाह

गिरिजा कुलश्रेष्ठ said...

एकदम सटीक व्यंग्य । मेरी रचनाओं को आपका आशीर्वाद मिलता है यह मेरे लिये बडी बात है ।

वीना श्रीवास्तव said...

बहुत ही मजेदार रहा ये व्यंग...मजा आ गया पढ़कर...

virendra sharma said...

नहीं आपकी बेटी आपके बराबर लगती है .बहुत सार्थक जोक्स ला रहें हैं आप .शुक्रिया .

अनामिका की सदायें ...... said...

mere blog par aa kar badhiya comment de gaye...
shukriya ki is tarah apne ghar ka marg bata gaye...

khatti mitthi baato me sare vyangye baan chala gaye...
jor ka jhatka dheere se de gaye.

ek bar fir se shukriya.

Dr (Miss) Sharad Singh said...

अच्छा व्यंगात्मक लेख .....

hem pandey said...

हमेशा की तरह मजेदार व्यंग्य |

Urmi said...

बहुत ही बढ़िया, शानदार और दिलचस्प व्यंग्य रहा! उम्दा लेख!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

यह तो बहुत उच्चकोटि का व्यंग्य लिखा है आपने!
--
आश्चर्य है कि इतने दिनों तक मेरी नजर में क्यों नहीं आया यह ब्लॉग।
--
अब आता रहूँगा!

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" said...

aapke blog pe aake bahut accha laga...aapka profile padkhar bhi accha laga..वे छापते थे मैं लिखता था ,मैं लिखता था वे छापते थे ,उन्होंने छापना बंद कर दिया मैंने लिखना बंद कर दिया...ye panktiyan bhi aapne hasya bhare andaz mein hi likhi hai...pranam ke sath

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" said...

aapke blog pe aake accha laga.. वे छापते थे मैं लिखता था ,मैं लिखता था वे छापते थे ,उन्होंने छापना बंद कर दिया मैंने लिखना बंद कर दिया..ye baat bhi aapne bade behtarin andaz mein likhi hai..ab aapke blog pe aana jana hota rahega...sadar pranam

Swami Sharan Verma said...

AKHIRI CHAR LINE KI JARURAT NAHI THI. PAR APKO BHI ITEM DANCE KA KHAYAL AYA HOGA, SHAYAD ISILIYE DAL DI. VAISE ALEKH ACHCHHA LAGA.