Sunday, March 15, 2009

हम कुछ सोचें

एक दस वर्षीय वालिका मिनी स्कर्ट और टॉप पहने नृत्य कर रही है -उसके माता पिता अपनी होनहार बालिका का नृत्य देख कर आनंद मग्न हो रहे हैं -डेक पर केसेट बज रहा है""कजरारे कजरारे तेरे नैना ""गाने के बोल के अनुसार ही बालिका का अंग संचालन हो रहा है - देश की इस भावी कर्णधार -समाज में नारी समुदाय का नेतृत्व करने वाली बालिका की भाव भंगिमा ने पिता का सर गर्व से ऊंचा उठा दिया है - और पिता की प्रसन्नता देख माताजी भी भाव विभोर हो रही हैं

यह सुना ही था की साहित्य समाज का दर्पण है आज प्रत्यक्ष देख भी लिया -वस्त्रों और अंगों पर लिखा जा रहा फिल्मी साहित्य अब गर्व की वस्तु होने लगी है -

साहित्य और संस्कृति पर विविध रूपों में प्रहार होता रहा है चाहे वह अश्लील गीत हो या द्विअर्थी संबाद हो -पहले द्विअर्थी संबाद का अर्थ व्यंग्य होता था अब वे अश्लीलता का पर्याय है -सवाल यह नहीं है की वे किसने लिखे सवाल ये है की वे चले क्यों

आज का बच्चा बेड बिस्तर समझ जाता है _शायद ""खटिया"" नहीं समझता ,ठंड कोल्ड समझता है मगर ""जाड़ा""नहीं समझ पाता है मगर बेचारे की विवशता है कि गाना सुनना पड़ रहा है उसे ,चाहे वह सरकालेओ का अर्थ समझता हो या न समझता हो /
एक तर्कशास्त्र के प्रकांड पंडित कह रहे थे बच्चे ऐसे गाने सुनते ही क्यों है जब रिमोट उनके हाथ में है तो चेनल बदल क्यों नहीं लेते / माँ बाप देखने ही क्यों देते है ? साहित्य और संस्कृति पर विविध रूपों में प्रहार होता रहा है चाहे वह अश्लील गीत हो या द्विअर्थी संबाद हो -पहले द्विअर्थी संबाद का अर्थ व्यंग्य होता था अब वे अश्लीलता का पर्याय है -सवाल यह नहीं है की वे किसने लिखे सवाल ये है की वे चले क्यों यह बात वे सुनने को तयार नहींएक गाना और चला था "" तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त ""किसी लडकी या नारी को देख कर चीज़ कहना कुत्सित मानसिकता का प्रतीक है -फूहड़ और अश्लील नाच पर सीटी बजा कर हुल्लड मचाने वालों की भाषा संस्कार में आरही है लडके आज उस धुन पर गा रहे हैं और लडकियां उस धुन पर झूम रही हैं -इससे ज़्यादा शर्मनाक क्या हो सकता है
नारी चाहे पत्नी हो -माँ हो बहिन हो पुत्री हो या कोई भी हो उसे तेजस्वनी दामिनी बनाया जासकता है उसे प्रतिभासंपन्न तेजपुंज युक्त और सामर्थ वान बन ने की प्रेरणा दी जा सकती है =अत्याचार और अन्याय -शोषण और उत्पीड़न के विरोध में खडा होना सिखाया जा सकता है -उसे मंत्री से लेकर सरपंच और पंच बन ने तक की प्रेरणा देना चाहिए मगर नारी के प्रति अशोभनीय वाक्यांशों का प्रतिकार होना
चाहिए

वाक एवम लेखन की स्वंत्रता है -जब स्वतंत्रता निरपेक्ष और दायित्वहीन हो जाती है तो स्वेच्छाचारिता हो जाती है वहा यह बात ध्यान में नहीं रखी जाती है की यह स्वतंत्रता विधि सम्मत नहीं है और किसी दूसरे की स्वन्त्न्त्र्ता में बाधक तो नहीं है =ज्ञान और भावों का भण्डार ,समाज का दर्पण -ज्ञान राशी का संचित कोष यदि मानव कल्याणकारी नहीं है तो उसे में साहित्य कैसे कहा जा सकता है /फिल्मी गाने क्या साहित्य की श्रेणी में नहीं आते इस और भी साहित्य कारों का ध्यान आकर्षित होना चाहिए

19 comments:

Alpana Verma said...

आप ने बहुत ही विचारणीय विषय उठाया है.
आज अभिभावकों की अपेक्षाएं इतनी अधिक हो गयी हैं एक दुसरे से आगे बढ़ने और अति-आधुनिक दिखने की होड़ में यह भी भूल रहे हैं की बच्चों को क्या सिखा रहे हैं.
आप ने यहाँ नृत्य -गीत-संवाद की बात की --जब मैं छोटे बच्चों को टी वी चनलों पर द्विअर्थी चुटकले बोलते हुए सुनती और वहां बैठे सभी बड़ों को प्रशंशा भरी नज़रों से उसे निहारते और ठहाके लगते देखती हूँ तो मन बहुत खराब होता है..समझ नहीं आता आधुनिक दिखने-बनने की यह होड़ कहाँ ले जा रही है ..??.
कब नैतिक मूल्यों का कैसे ह्रास हो रहा है..जानने की कोशिश नहीं की जाती.
भविष्य में इस के परिणाम अच्छे नहीं होंगे यह भी तय है.

विजय तिवारी " किसलय " said...

बृज मोहन जी
नमस्कार
"हम कुछ सोचें " आलेख पढ़ कर ऐसा लगा जैसे ब्लॉग भी एक माध्यम हो सामजिक चेतना का..... पर क्या सारे ब्लागर्स ऐसा सोचते हैं कि हम सकारात्मक और दिशा बोधी पोस्ट के माध्यम से अपनी लेखनी को भी धन्य कर पायें..
आपकी सोच और आप की कलम से बह निकली टीस और आक्रोश की धारा ने मेरे अंतस को भी भिगो दिया .
हम ऐसे भाव और लेखनी वाले का वंदन करते हैं.
- विजय

hem pandey said...

समस्या नासूर बनती जा रही है, लेकिन उसपर नियंत्रण का कोई प्रयास नजर नहीं आ रहा है.एल्क्ट्रोनिक मीडिया ने सामाजिक मूल्यों के क्षरण में विशेष योगदान दिया है. लोग इससे चिंतित भी नजर आते हैं,लेकिन लाचार हैं.

कडुवासच said...

पहले बच्चे माता,पिता,गुरुजन व आस-पास के वातावरण से शिक्षा प्राप्त करते थे किंतु अब टेलीविजन से शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, और अब टेलीविजन का तो कोई जबाव ही नही है !

पूनम श्रीवास्तव said...

आदरणीय श्रीवास्तव जी ,
बहुत अच्छे और अज के सन्दर्भ में विचारणीय प्रश्न उठाये हैं अपने अपने लेख में .आज हमारे समाज ,संस्कृति को गर्त में ले जाने के लिए पाश्चात्य संस्कृति ,चैनल्स तो जिम्मेदार हैं ही ...इसके साथ अभिभावक भी जिम्मेदार हैं जो अपनी संतानों को ऐसे गीतों पर ठुमके लगते देख कर खुश होते हैं ...
क्या वो उन्हें शास्त्रीय ,लोक नृत्यों गीतों से जुड़ने की प्रेरणा नहीं दे सकते ?अच्छे वैचारिक लेख के लिए बधाई.

March 15, 2009 10:46 AM

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

आदरणीय श्रीवास्तव जी ,
अपने बिलकुल ठीक लिखा है ...माता पिता ..खुश होते हैं अपने बच्चों को ऐसे गीतों पर नाचते देख कर जिनका मतलब भी वो बच्चे नहीं समझते ..हमें इस मुद्दे पर विचार करना होगा .
अच्छे लेख के लिए बधाई.
हेमंत कुमार

Smart Indian said...

सत्य वचन!

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

आपने बिलकुल सही लिखा है..............सच तो यह है कि आदमी अपने बच्चों में जाने-अनजाने बहुत से संस्कार यूँ ही हंसी-मजाक में बो देता है....बचपने में जो चीज़ें अच्छी दिखाई देती हैं.. बड़े हो जाने पर वही भयावह हो जाती हैं.....लेकिन कहते हैं ना जो बोए वोही काटे......सो यही होता है....यही हो भी रहा है.....!!

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

श्रीवास्तव जी,आज समाज में सब तरफ़ फैलती चरित्रहीनता एवं अश्लीलता का रूप इतना भयानक हो चुका है कि कभी कभी सोच कर ही डर लगता है कि आगे चलकर हम अपने बच्चों को जिस परिवेश में बड़ा होता हुआ देखेंगे वह कितना भयानक होगा! और वे कैसे बनेंगे?? सरकार,मीडिया,अभिवावक हम सब इसके लिए कहीं न कहीं दोषी हैं.
इसी संदर्भ में मुझे दुष्यंत कुमार का एक शेर याद आ रहा है----
"हो चुकी है घाट पर पूरी व्यवस्था
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है!"

Vineeta Yashsavi said...

wastav mai ye behad gambhir samshya hai...

mata-pita ko in baato ko samjhna chahiye nahi to ye samshya aur badhti jayegi...

kumar Dheeraj said...

समाज के अन्दर हो रहे ज्वलंत मुद्दे को आपने झकझोरने का प्रयास किया है । समाज में आज किस तरह का साहित्य परोसा जा रहा है उसे देखने वाले औऱ सुनने वाले कम नही है लेकिन हकीकत यह भी है कि इसमें उस बच्ची के माता पिता भी शामिल होते है । फिर किसी एक को दोषी नही ठहराया जा सकता है । वैसे नारियों के प्रति हमारे समाज की जो मंशा रही है किसी से छुपा नही है शुक्रिया

अनुपम अग्रवाल said...

विचारणीय प्रश्न .

आप जैसे जागरूक विचारोँ से ही जागरूकता आयेगी,
ऐसा मेरा विश्वास है

रंजना said...

सच कहा.....समय कितना बदल गया.......बहुत पहले की बात नहीं,कि यदि किसी लडकी/स्त्री को सेक्सी कह दिया जाता था तो तलवारे खिंच जाती थीं....अब लड़कियां अपने लिए सेक्सी का तमगा पा...मुस्कुराकर थैंक्स कहती हैं....और जो न कहा जाय तो बुरा तक मान जाती हैं,क्षुब्ध हो जाती हैं कि उन्हें सेक्सी क्यों न माना कहा गया.

छोटे छोटे बच्चों से टी वी पर अश्लील संवाद बुलवा प्रतियोगिता जितवाने वाले अभिभावक बचों का भविष्य किस और ले जा रहे हैं,समझ नहीं आता...

Vivek Ranjan Shrivastava said...

o k hai ji !

shama said...

Sundar aalekh hai...mai alagse kya kahun? Mere pehle kayi paathak keh chuke hain!
Aapki mere " kavita" blogpe tippaneeke liye dhanyawad !
R
"Ruh" to zinda logonke bheetarbhee hotee haina ? Ham kehte hain<" mai apnee ruhtak kaanpa gaya...!" To "Birhanme" us "ruh"kaa zikr hai...ruh jo ek patthardil insaanke bheetarbhi hoti hai....bas itnaahee kehnaa chahungi...baaqee aap mujhse kaheen zyada aalim hain...mai to behad adna-si wyakyi hun...na lekhak naa kavi...yehee sach hai !
" Chindi chindi" pebhi ab dheere, dheere post daalne lagee hun...recycling maqsad hai.

Urmi said...

बहुत बढिया!! इसी तरह से लिखते रहिए !

Urmi said...

बहुत ही खुबसूरत लिखा है आपने !

vijay kumar sappatti said...

brij ji ,

aapne bahut hi sanvedalsheel muddha utaya hai ... sochne par majboor karta hua..

is lekh ke liye aapko badhai..


maine bhi kuch naya likha hai . padhiyenga jarur..

विजय
http://poemsofvijay.blogspot.com

shama said...

Aapse pooree tarah sehmat hun...kayee mata-pita ko dekha hai...apnee bachhee, jise geetke shayad arthbhee nahee pata, uspe badhee garv se nachate hue...
Aur filmee geet ek zamanetak uchh sahity kee shreneeme aate the..."kajraare",likhne wale Gulzaar nehee " hamne dekhee hai un aankhonki mehektee khushboo", jaise geet likhe hain...
Puranee filmen, kin kin ko yaad dilaoon, chahe katha bakwaas ho, sundar geetonke adharpe bach jaatee theen..."jagruti" filmkaa ekek geet sahityik rachna hai.."rudalee"ke geet aur sangeet donohee behtareen hain..."Mehbooba" film chahe bakwaas ho, "mere nayna sawan bhaadon.." ye Lataji ka ek geehee kaafee hai, Khaiyyam ko taumr yaad rakhneke liye...geetkaarka naam nahee yaad aa raha..Kishor se adhik mushkil tarz Lataake geetkee hai.
Aapki shukrguzaar hun, tippaneeke liye...sujhaav bheee behtareen hain...dekhtee hun, isme tabdeelee karke dekhtee hun..phir aapki raay loongee...
Shayad ye mera alas hai, ki mai, ekhee baarme chahe gady ho yaa pady likh detee hun...yaa swabhavhee hai, jo meree kalamebhi nazar aata hai..mai kabhi udhedtee nahee....
Aapne ekbaar mere " chindichindi" blogkee " namaujoodgeepe" tippanee dee thee...ab uspe kaafee kuchh hai..."fiber art" mebhi hai..mujhe naheee pata ki, aap in sabme ruchi rakhte hani yaa nahee..lekin kabhi samay mile to ek nazar daal sakte hain?
"aaj tak yahaan tak" me shayad aapko adhik dilchaspee ho...