कभी कभी सोचता हूँ मुझे नहीं कहना चाहिए था , फिर विचार आता है कि कह दिया तो कह दिया , उस वक्त परिस्थिति ही कुछ ऐसी थी ,आगया कहने में , फिर सोचता हूँ , ऐसा न हो कि उनकी भविष्य की जिन्दगी बर्वाद होजाय , फिर सोचता हूँ , हो जाये तो हो जाये वैसे कौनसी आबाद है यद्यपि कह कर मैंने अपनी मानसिक उलझनें बढा ली हैं =दर-असल बात यह थी कि =
एक युवती ( पत्नी ) आयु लगभग ३५ -३६ ,जमीन पर अधलेटी अवस्था में , पति के क्रोधी स्वाभाव से परिचित , रो - रो कर कह रही थी आज मैं तुम्हारे साथ नहीं जाऊंगी तुम मुझे मार डालोगे स्थान पत्नी का मायका , पति एक हाथ से पत्नी के बाल पकडे हुए दूसरे , हाथ से कभी गला दबाता ,कभी चेहरा दबाता और कभी थप्पड़ मारता ,पत्नी गिडगिडा रही थी , तुम रोज़ मुझे कमरे में बंद करके मारते हो ,मैंने मायके में अभी तक नहीं बताया, आज तुम मुझे यही मार रहे हो ,एक दो दिन बाद चली चलूंगी ,आज तुम बहुत गुस्से में हो , चली तो तुम रस्ते में ही मार कर फैंक दोगे
लोकलाज भी क्या चीज है ,बुढिया माँ और बूढा बाप चुप-चाप हैं ,यह और कोशिश कर रहे हैं कि बाहर मोहल्ले का कोई सुन न ले खैर
तो मैंने उससे कहा
तुझे मार डालेगा !अरे तू जिन्दा ही कब है जो तुझे मार डालेगा मुर्दों को नहीं मारा जाता मगर तू तो फिल्म क्रांतिबीर के नाना पाटेकर की डायलोग बनी हुई है ""भगवान् ने हाथ दिए लगे फैलाने ,मुह दिया लगे गिडगिडाने "" क्या तुम्हे तंदूर में फिकने ,मार खाने , रसोई गेस दुर्घटना में मरने हेतु हाथ ,पाँव ,नाखून ,दांत देकर भेजा गया है
तू कहती है तुझे कमरे में दरवाज़ा बंद करके मारता है दीवार फिल्म नहीं देखी क्या ? एक बार तू बनजा अमिताभ ,दरवाज़ा बंद कर ,सांकल चडा , ताला लगा और चाभी फैंक कर कह ""पीटर ले ये चाभी , तेरी जेब में रखले ,अब मैं तेरी जेब से चाभी निकाल कर ही ताला खोलूंगी
अरी शोषित उपेक्षित ,, तुझसे तो ’चालबाज ’' की श्रीदेवी अच्छी ,मालूम है उसने अनुपमखैर से क्या कहा था " ले त्रिभुवन ये चूडी पहनले ,कल तक तेरे हाथ में चाबुक था और मेरे हाथ में चूडियाँ आज मेरे हाथ में चाबुक है , ले पहिन चूडियाँ
फिर ये तो देख तुझे मार कौन रहा है ? तुझ पर हाथ कौन उठा रहा है ? मालूम है ‘आन ‘ में शत्रुघ्नसिन्हा ने जैकी श्राफ से क्या कहा था ?" सुन बालिया औरत पर हाथ उठाना नामर्द की पहली निशानी है" देखले जीना है तो जी , वरना रोज रोज मरने से एक दिन मर ही जा मगर ऐसे मरना की कम से कम चार महिलाओं को जीने का मार्ग बतला जाना
मैंने सुना है
श्रीमानजी की शादी हुई पहले ही दिन यानी पहली ही रात जैसे ही नवबधु ने घूंघट उठाया ,गाल पर एक जोरदार थप्पड़ ,बधू रुआंसी होकर बोली ""कईं अन्नदाता की भयो ,म्हार से कुणसी गलती हो गई ""बोले -यह तो बिना कोई गलती किये का है ,गलती की तो फिर समझ लेना
एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि कहते है चींटी भी दब जाने पर काट लेती है ,लेकिन ये विशिष्ठ ऐतिहासिक परंपरा न जाने कब से चली आ रही है अब इस ऐतिहासिक बर्बरता और हिंसा के लिए किसे दोष दिया जाय वैसे तो हम कहते फिरते हैं दूसरों के साथ वह व्यबहार न करो जो अपने लिए पसंद न हो बिदुर जी ने भी कहा ""आत्म प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत "" बाइबिल में कहा गया ""डू नोट डू अन्टू अदर्स ""सिकंदर ने पुरु से राजाओ जैसा व्यव्हार किया आज भी एक मंत्री पूर्व मंत्री से राजाओ जैसा व्यव्हार करता है किन्तु स्त्री ! वह तो अपनी है , दूसरों के साथ अच्छा व्यव्हार करने की बात कही गई है
ये माना की कई लोग ऐसे भी होते है वे किसी से ही सद्व्यवहार नहीं करते है पत्नी बेटा पडौसी कोई भी हो
मैंने सुना है
एक श्रीमानजी एक दिन प्रात :काल बरामदे में बैठे किसी किताब में तल्लीन थे ,उनके परिचित निकले पूछा कहिये किव्ला क्या हो रहा है ?तल्लीनता में व्यवधान !क्रोध आगया आजाता है ,शंकरजी को भी कामदेव के ऊपर आगया था ,राम ने भी "अस कही रघुपति चाप चडावा "" तो इनको भी आगया , बोले तेरा सर हो रहा है, दिखाई नहीं देता किताब पढ़ रहा हूँ कौन सी किताब पढ़ रहे हो ? एक तो व्यवधान ऊपर से जिरह यानी कूट परीक्षण यानी क्रोस एक्जामिनेशन बोले तू नहीं समझेगा यार तू जा फिर भी हुज़ूर ? क्रोध की सीमा पार ""व्यवहार शास्त्र " पढ़ रहा हूँ तेरे बाप ने भी इस किताब का नाम सुना है ?
मेरा आशय केवल मात्र इतना है की कभी कभी मुंह लगने पर भी आदमी का क्रोध बढ़ जाता है और वह अपना आपा खो देता है लेकिन हमेशा ही तनाव में या क्रोधित रहना कि पत्नी घर में अशांति और बैचेनी महसूस करे ,एक अज्ञात भय और असुरक्षा की भावना उसमे रहे ऐसा तो नहीं होना चाहिए इसीलिये मैंने उपरोक्त बात कह दी थी ,वरना मेरा आशय घरों में अशांति फैलाने का नहीं था
Tuesday, September 22, 2009
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13 comments:
एक बार कहीं जा रही थी....सड़क किनारे जो दृश्य देखा तो पाँव ठिठक गए....एक मर्द और औरत आपस में गुंथे हुए थे...जितनी ताकत लगा वह पुरुष स्त्री को मार रहा था उतना ही जोर लगा सामने में जो कुछ भी मिल जा रहा था उसे उठा वह औरत भी उसपर फेंक रही थी...उनसे कुछ दूर हटकर तीन बच्चे तमाशबीन बने खड़े थे....
दो मिनट में ही समझ आ गया कि यह युद्ध पति पत्नी के बीच छिड़ा था जिसके दिग्दर्शक उनके बच्चे थे...आम तौर पर हिंसा से किनारा रखने वाली हूँ पर सच कहूँ तो बड़ा ही आनंद आया....
बहुत निचले या बहुत ऊंचे स्तर पर स्त्री पुरुष बराबरी का भाव रखते हैं परन्तु मारा जाता है मध्य वर्ग...संस्कार संस्कृति परंपरा परिवार की लाज आदि आदि निभाने का पूरा दायित्व मध्यमवर्गीय नारी के जिम्मे होता है और पिटने को अपनी नियति बालपन से ही स्वीकार कर चुकी होती है...जिन्दगी तीन घंटे का सिनेमा नहीं होता कि पीटकर निकल लिए...यहाँ चाहे कितनी भी पीडिता क्यों न हो उसका पति को पीटा जाना कोई बर्दाश्त नहीं करता....और फिर पराश्रित जाये तो कहाँ.........
सही कहा आपने, जैसे को तैसा तो सिखाना ही पडेगा वरना वह समझेगा कैसे?
हर तरह से ठीक कहा ...मैंने "अर्थी तो उठी .." ये आलेख शमा जी के तथा नीरज जी के, सांझा ब्लॉग पे पढ़ा ...जहाँ तसनीम की सच्ची कहानी 3 कड़ियों में बयान की है ..ज़रूर पढ़ें ... "एक सवाल तुम करो " इस सामाजिक सरोकार को मद्दे नज़र रख बने ब्लॉग का आपको अगली टिप्पणी मे लिंक देती हूँ .
' बिखरे सितारे ' पे शायद आज लिख दूँगी ...पूजा तथा उसके परिवार की कुछ अन्य तस्वीरों के लिए रुकी थी ..मिलभी गयीं हैं ...लेकिन मै out of station हूँ !अपने घर नही हूँ..जहाँ हूँ, वहाँ scanner नही है...होता भी तो तस्वीरें कहीँ अन्यत्र पडी हैं!
अगली कड़ी से उसके जीवन का एक अलग अध्याय शुरू होगा...तस्वीरों के साथ पुष्टी होती तो अधिक अच्छा रहता...पर उसके लिए मुझे और १०/१२ दिन रुकना पड़ेगा..और तबतक रुकाये रखना अपने पाठकों के साथ अन्याय है..
Aapkaa maan rakh liya hai..14 vee kadee haazir hai..yebhee kah dun, ki, aage kee kadiyan ab pooja swayam likhegee...uske man me aur adhik jhaank ke likhna mumkin nahee..kamse kam kuchh kadiyaa to use likhnee hee hongee...
आपने तो बिलकुल सही कहा. ऐसा हो तो फिर बहुत अच्छा हो. बिना जूता खाए कैसे सीख्नेगे ऐसे लोग? और लोक-लज्जा वाली बात पर क्या कहें यही तो दिक्कत है सबकुछ होते भी लोग चाहते हैं कि बात किसी को पता ना चले... ये कैसी लोक-लज्जा है !
बहुत अच्छा लगा आपका लेख्। आज के समाज और परिवारों का पूरा खाका खींच दिया आपने।जुर्म सहते जाना भी एक तरह का अपराध ही है----और लगातर जुर्म सहने -- अत्याचार झेलते जाने की परम्परा को खतम स्त्री ही करेगी----आपकी बतों से मैं सहमत हूं
हेमन्त कुमार
achchi prastuti hai.
achchi prastuti hai.
आपका सुझाव सर्वथा उचित है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! बिल्कुल सही फ़रमाया है और सही मुद्दे को लेकर बड़े ही सुंदर रूप से आपने प्रस्तुत किया है ! नवरात्री की हार्दिक शुभकामनायें!
SAHI LIKHA HAI AAPNE .... SAMAY BADALTA JAA RAHA HAI ... JAANVAR BHI EK HAD TAK HI BARDAASH KARTA HAI FIR AURAT KI KYA BAAT HAI .... JAB BHI JAAGEGI HAAL KHARAAB KAR DEGI PURUSH JAATI KA ...... AAPKI VYANGAATMAN SHILI BAHOOT ACHEE HAI .........
बृजमोहन जी ........
आप मेरे ब्लॉग पर आये .... इसी बहाने POORI ग़ज़ल को पढ़ा, ये मेरे लिए सोभाग्य की बात है ........ हास्य दृष्टि से आपने कुछ गलत नहीं लिखा ..... हर बात में हास्य ढूंढ़ना हर किसी के बस की बात नहीं है .........मुझे अच्छा लगा आपका लिखना ........
मार्मिक लेख , सोचने को विवश करती यह रचना , आपका यह रूप अच्छा लगा !
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