एस एम् एस और ई मेल युग के पूर्व का समय प्रेम-पत्र का स्वर्णकाल कहलाता है बड़ा क्रेज़ था प्रेम-पत्र का ,बड़े चाव से लिखे-पढ़े जाते थे सिनेमा ने भी इनका खूब उपयोग व उपभोग किया है फूल तुम्हे भेजा है ख़त में,, तो मुगले आज़म में सलीम ने फूल में ही पत्र रख कर नेहर के माध्यम से भेजा राजकुमार ने तो पाकीजा में केवल इतना भर लिखा था,, की आपके पाँव देखे ......जमीन पर मत उतारियेगा ,,मगर पाकीजा जी ने तो उस पत्र को चांदी की डिबिया में ही रख लिया । रखते हैं साहब बड़े सम्हाल कर रखते हैं ,जीवन पर्यन्त रखते हैं ,तभी तो मरने की बाद ""चन्द फोटो और चन्द हसीनों के खतूत " निकलते हैं देखिये =ये मेरा प्रेम पत्र पढ़ कर कि तुम नाराज़ न होना , क्यों भैयाजी क्यों नहीं होंगे नाराज़ जब तू अनर्गल कुछ तो भी लिखेगा लड़किया -लड़के पत्र लिखते थे तो ,,लिखते थे, चला जा रे लेटर कबूतर की चाल ,क्यों भैया कबूतर से ज्यादा तेज़ चाल वाला और कोई पक्षी नज़र नहीं आया ,उस पर तुर्रा ये की पत्र के अंत में लिखा जाता था ""खत लिख रहा हूँ या लिख रही हूँ जो भी स्थिति रही हो खैर , तो खत लिख रही हूँ खून से स्याही न समझना अरे तू जब नीले पेन से लिख रही है तो कैसे न समझना ?
एक बात और उस ज़माने में प्रेम-पत्र कैसे लिखें नामक किताब भी उपलब्ध थी , ठीक हारमोनियम शिक्षा ,तबला गाईड ।बांसुरी शिक्षा ,सावरी मन्त्र ,सेवडे का जादू की तरह एक श्रीमानजी के पास वह किताब थी । उसमे से छांट कर एक प्रेम पत्र लिख कर भेजा गया ,बड़ी उम्मीद थी उत्तर की उत्तर तो आया मगर छोटी सी स्लिप के रूप में, लिखा था "उत्तर के लिए कृपया पेज ९८ के पत्र क्रमांक १२२ का अवलोकन करने का कष्ट करें" ।शिक्षा का भी अभाव था तो प्रेमिकाएं या पत्नियाँ पोस्ट मेन से ही पत्र लिखवा लिया करती थी ""ख़त लिखदे संवरिया के नाम बाबू कोरे कागद पे लिखदे सलाम आदि इत्यादि॥
छोटे छोटे बच्चे ,प्यारे प्यारे बच्चे, दुलारे बच्चे, कापियों और किताबों में पत्र रख कर आपस में आदान प्रदान किया करते थे "" नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है ?"" बोले चिट्ठी है फलां ने दी है फलां के पास पहुँचाना है ।ऐसी बात भी नहीं कि ख़त चोरी छिपे ही भेजे जाते हों ,कुछ बच्चियां ख़त ऐलानियाँ भेज कर गाती भी थी ""हमने सनम को ख़त लिखा ,ख़त में लिखा ......." और खत मे क्या लिखा है वे न भी बतलाना चाहे तो भी "खत का मन्जमू भाप लेते है लिफ़ाफ़ा देख कर "" फिर इन्क्वारी भी होती है "" तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किसका था न था रकीब तो आखिर वो नाम किसका था ?"" जवाब देना मुश्किल हो जाता है ।
उस ज़माने मे एक बात जरूर मह्सूस की गयी कि यदि किसी से प्रेम हो जाये तो उसे अनेतिक सम्बन्ध या नाज़ायज सम्बन्ध कहा जाता था किन्तु प्रेम पत्र को किसी ने अनैतिक प्रेम पत्र या नाज़ायज प्रेम् पत्र कहा हो ऐसा मुझे ध्यान नही है ।
मैंने सुना है
एक बिलकुल सत्य घटना ,कल्पना नहीं ,फ़साना नहीं ,हकीकत उस स्वर्णकाल की बात है ,श्रीमानजी को मोहल्ले की किसी से इकतरफा इश्क हो गया हो जाता है साहिब, एकतरफा डिक्री की तरह ,मालूम तब होता है जब कोर्ट से कुर्की वारंट आजाता है ,तो श्रीमान जी ने प्रेम पत्र लिखे ,कागज़ नहीं मिला तो बच्चों की पुरानी कापी किताबे रखी थी उनमे ही लिख डाला ,भेजने की हिम्मत हुई नहीं --अब क्या हुआ कि बच्चों ने रद्दी मोहल्ले के हलबाई को बेचदीं ,अब इत्तेफाक देखिये उन महिला ने समोसे मंगवाए तो वह कागज़ समोसे में लिपटा उनके पास पहुँच गया ।कुछ लोगों की आदत होती है कि मिठाई या नमकीन जिस कागज़ में या अखवार में आया है उसको पढने लगते हैं ऐसे आदत क्यों होती है यह तो पता नहीं मगर होती है ,किसी फिल्म में नसरुद्दीनशाह को भी ऐसे ही पढ़ते दिखलाया गया है शायद उस फिल्म का नाम है जाने भी दो यारो खैर
अब देखिये जनाब क्या हंगामा वरपा है ,जितना कि उस वक्त भी न बरपा होगा जब थोड़ी सी पी ली है ,उससे भी ज्यादा 'कि सिर्फ हंगामा खडा करना मेरा मकसद नहीं "" और ’हंगामा’ फिल्म से भी ज्यादा
अब जो श्रीमान जी की ठुकाई पिटाई उस महिला और श्रीमान जी की श्रीमती जी द्वारा की गई तो यूं समझो के मज़ा आगया जिंदगी का तब मैंने नेक सलाह लोगों को दी थी कि अव्वल तो शादी शुदा होते हुए किसी से प्रेम न करे और अगर करे भी तो मोहल्ले की किसी महिला से न करे और अगर करे तो उसे पत्र न लिखे और अगर पत्र भी लिखे तो बच्चो की कापियो मे न लिखे और अगर लिखे भी तो उसे रद्दी वाले को न बेचे
Sunday, September 27, 2009
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14 comments:
ऐसे sms युग में ' फूल तुम्हें भेजा है ख़त में, ' या 'चंदा रे मेरी पतियाँ ले जा,'...ऐसे गीत इतिहास जमा हो गए...न वो इंतज़ार रहा न वो रोमांच...फूल भी नक़ली और चाँद भी नक़ली..सब कुछ sms में हाज़िर है...
मन को गुदगुदाने वाले इस लेख के लिए धन्यवाद.
वाह बहुत बढ़िया लिखा है आपने! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई! दशहरे की हार्दिक शुभकामनायें!
बड़ी पुरानी यादें दिला दी आपने, शुभकामनायें भाई जी !
एस एम् एस और ई मेल के युग में दशहरे के पर्व पर प्रेम पत्र का क्या जादुई व्यंगात्मक टॉनिक दिया है पढ़कर मजा आ गया / दशहरे की हाद्रिक शुभ कामनाये /
भाई जी,
अब तो "शार्ट कट" जमाना है, वो पुराने खतों के मजमून भला अब लिखे जा सकते हैं क्या........
please भी pz हो गया है और भी न जाने क्या क्या.........लगता है प्यार के वो लम्बे रास्ते भी छोटे हो गए हैं, और तो और प्यार के वो लह्में भी तो छोटे होते जा रहे हैं, हर कोई टेंशन और मोबाईल की घंटियों से त्रस्त है....
कुल मिला कर आपका यह लेख भी पहले ही की तरह काफी रोचक रहा.
हार्दिक बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
एक बार और फ्लो वाली पोस्ट पढ़कर मजा आया. रद्दी वाला किस्सा मजेदार रहा :) खैर अब तो वो ज़माना ही चला गया.
bhaisaheb,
sach to yah he ki me aapke blog par bahut dino baad aayaa/ pataa nahi kyo, in dino kaafi busy rahaa, net bhi mujhe tanmg kartaa rahaa aour ve blog chhootate rahe jinse mujhe pyaar he, jinhe padhh kar mujhe achhaa lagtaa he/ aaj jab aayaa to dekhaa aapne kaafi saari post daal rakhi he, pahle to itminaan se sab padhhunga/
aapka mere blog par aanaa mere liye sabse keemati hota he/
khat se mera bahut gahara rishta ,aapke lekh padhkar poorani yaade taaza ho gayi ,is silsile ko maine aaj bhi barkaraar rakkha hai .happy dashahara .
आपके इस रंगीन आलेख को पढ़ हंसते हंसते पेट में ममोडा पड़ गया..
लाजवाब लिखा है......वाह !!
prempatr ki chutili dastan bhut achi lgi .
abhar
आदरणीय बृज सर,
क्या बात कही है प्रेमपत्रों की दास्तानें। मजा आया, गुदगुदी हुई, कुछ यादों ने तड़पाया, कुछ अधूरे प्रेमपत्र याद आने लगे......।
हम भी अपने कॉलेज के दौर में अपने ही साथी के लिये पत्रवाहक का पुनीत कार्य संपन्न कर चुके हैं इसिलिये व्यंग्य की बारीकियों का लुत्फ पूरा ले पाये।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
शायाद अब आपको कम्पूयटर पर हिन्दी पढ़ने में समस्या नही आ रही हो?
दस्तान-ए-प्रेमपत्र बढिया रही....:)
लाजवाब !!
गज़ब का आलेख है मगर मेरा ख़त सबको पढाने से भला क्या होगा?
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