आज सुबह मै मध्यप्रदेश का समाचार दैनिक भास्कर पढ़ रहा था कि एक समाचार पर मेरी नजर गई ""दीवारों के आर पार देख सकेगा मोबाइल ""दीवार के उस पार कौन है और क्या हो रहा है यह मोबाईल के द्वारा देखा जा सकेगा इस तकनीक के उपयोग के लिए नोकिया कंपनी से समझौता किया गया है |
पहले तो दीवारों के कान होने से ही लोग परेशान थे और अब 'एक न शुद दो शुद ' | वैसे आपको ध्यान होगा दीवार के उस पार देखे जाने वाला यंत्र हम हज़ारों लाखो वर्ष पूर्व तैयार कर चुके और उसका नाम "खिड़की " रख चुके है | इतना तो विश्वास है कि जिनके पास ऐसे मोबाइल होंगे वे दूसरों के घरों में तांका झांकी नहीं करेंगे क्योंकि कहा गया है कि जिनके खुद के घर कांच के होते है वे दूसरों के घर पत्थर नहीं फैकते ,कहा तो यह भी गया है कि जिनके घर कांच के होते है वे लाईट बंद करके कपड़े बालते है |
साहित्य दीवार से बहुत प्रभावित रहा है मसलन 'भाई मेरे हिस्से का आँगन भी तू ले ले मगर बीच की दीवार गिरादे ' किसी ने गाया 'दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है ' किसी ने ठंडी सांस लेकर आपबीती सुनाई 'दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की ,लोगों ने आने जाने के रस्ते बना लिए 'किसी ने तरस खा कर कहा 'वो धूप से बच कर चला आया तो है लिकिन ,गिरती हुई दीवार के साए में खडा है |ग़ालिब साहब कहा करते थे 'वे दरो दीवार का इक घर बनाया चाहिए ' उधर कोइ गाने लगा 'इस अंजुमन में आप को बार बार आना है ,दीवारों दर को गौर से पहिचान लीजिये 'किसी ने "दीवार "नाम के फिल्म ही बना दी तो कोई प्रेम में असफल दुखी हो गया 'चांदी की दीवार न तोडी प्यार भरा दिल तोड़ दिया '|
साहित्य ही नहीं देख का प्रमुख स्तम्भ न्याय पालिका भी इससे प्रभावित है |पचास फी सदी दीवानी मुकदमो की बजह दीवारें है |रात दिन लेख ,समाचार, पत्र प्रकाशित होते है- अदालतों में इतने मुकदमे लंबित है यह भी कहा जाता है कि जस्टिस डिलेड -जस्टिस डिनाइड " हालांकि दीवारों के साथ न्यायाधीश गण की कमी भी इसका कारण हो सकता है आपको सं १९७१ का सेन्सस याद होगा जिसके अनुसार प्रतिमिलियन जनसंख्या पर जजेज का रेशो अपने यहाँ १०.५ था जबकि यह रेशो आस्ट्रेलिया में ४२.६,इंग्लेंड में ५०.९ .केनेडा में ७५.२ तथा यूनाइटेड स्टेट में १०७ था और वर्तमान में भी कोइ विशेष बढ़ोतरी इस क्षेत्र में नहीं हुई है |खैर यह अपना न तो सब्जेक्ट है न क्षेत्र |लेकिन इतना अवश्य है दीवारों को गिरा दीजिये मुकदमों की संख्या आधी रहा जायेगी ,इन दीवारों में पार्टीशन वाल .नफ़रत की दीवार चांदी की दीवार ,कुरीतियों की दीवार सब शामिल है |
जहां तक नफ़रत की दीवार का ताल्लुक है - मैंने बचपन में एक एक कविता पढ़ी थी ""बीबी से शौहर ,शौहर से बीबी है बदगुमाँ, है बाप का बना हुआ बेटा उदूंजां , हिन्दोस्ताँ के घर हुए खाली सुकून से , हैं दीवारें रंगी हुई पड़ौसी के खों से " यह बचपन में पढ़ी थी आज मै रिटायर्ड हूँ कमोवेश वही हालात आज भी है | वैसे हम दुःख को रोकने अपने चारों ओर दीवार खडी कर लेते है वे दीवारें सुख को भी बाहर ही रोक देती है
दीवार गिराते ही व्यक्ति पूर्णता शान्ति ,स्थिरता प्राप्त कर लेता है | जो आता है उसे आने दो जो जाता है उसे जाने दो .जो हो रहा है उसे देखते रहो गवाह बन कर | पुराने जमाने में लोगों को दीवारों में चुनवाया जाता था यह काम बड़े जोरशोर से होता था और दीवारों में धन गाढ़ने का काम चोरी छुपे होता था |कई जगह पुराणी इमारतों की दीवारे गिरतीं है तो धन निकलता है ,इसे दफीना कहा जाता है ,कई लोग पुराने मकान ,खंडहर महल में दफीना खोदने तैयार रहते है , त्तान्त्रिकों के चक्कर में दिन रात लगे रहते है ,इन्हें हर जगह दफीना ही नजर आता है ,सपने भी उसी के देखते है ,अगर इन्हें सपना आजाये कि दीवार में दफीना है तो यह माकन मालिक की चार इंची पार्टीशन की दीवार तोड़ डालें |
लोगों ने गढ़ा धन देखने के काजल बना लिए है - अभी ये लोग काजल के वारे में कम ही जानते है |एक गाना है ""छुप गए तारे .........तूने काजल लगाया दिन में रात हो गई ""गोया काजल लगाते ही दिखना बंद . जब कुछ दिखाई नहीं देगा तो रात ही तो कहलायेगी |किसी सूरदास से पूछो भैया दिन है कि रात ?बोले -भैया हमें तो रात दिन एक से ही हैं | अत: ऐसा काजल न लगा लेना कि दिन में ही रात हो जाए |
वैसे जब क़ानून बनाता है तो उसको तोड़ने के दस तरीके भी ईजाद हो जाते हैं , हो सकता है ऐसा सीमेंट ,बार्निश ,पालिश तैयार हो जाए जो इस तकनीक को विफल करदे |
Wednesday, March 10, 2010
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15 comments:
Baap re baap! Aise mobile se kaise chhutkara milega...
Waise geet bade achhe yaad dila diye!
हा! हा !हा!वाह ! खूब लिखा है!
दिमाग की खिड़कियाँ खुलने लगी हैं!
और ख़बर भी जबरदस्त है.
---एक कैमरा आया था मार्केट में कुछ ऐसा..और थोड़े ही दिनों में मार्केट से हटा लिया गया था.
अब यह मोबाइल क्रांति क्या क्या न करवाएगी~!
***दीवार पर इतने गानों में आप वो गज़ल भूल गए..ममता फिल्म की --'' ठोकर न लगाना हम खुद हैं गिरती हुई दीवारों की तरह..''
==//==नफ़रत की दीवार कब गिरी हैं?हर नयी दीवार पहले से मजबूत बन गयी है ..
और कानून की दीवारों में सेंध लगाना उतना ही आसान कर दिया है तकनीक ने जितना इन दीवारों को बनाना.
***ध्यान से देखो तो हर दीवार में अनदेखे सुराख़ हैं...नज़रों का बस फेर है...तरह तरह के सुरमा इजाद हो गए हैं..रात को दिन ,दिन को रात बनने वाले..***
आईफोन में एक ऐप है कपड़ों के पीछे देखने वाला :) क्या ज़माना आ गया है भाई !
है राम अब क्या होगा ???
यूँ तो आपके लेखन की क्या कहूँ....पर यह वाक्य - " दुःख से बचने के लिए खड़ी की गयी दीवारें सुख को भी बाहर ही रोक लेती हैं " मनोमस्तिष्क में अंकित हो गयीं हैं...
काश कि, भ्रष्टाचारियों को पकड़ने और दण्डित करने वाले किसी यन्त्र को भी कोई ईजाद करता....
लाजवाब लिखा है आपने लाजवाब...किस बात को पकडूँ और किसे छोडूं.....
काफी दिन बाद आपको पढ़ा , एक प्रार्थना है भाई जी ! आपका फोटो चाहिए यहाँ , हो सके तो भाभी जी का भी साथ लगा देना !
आशा है संजीदगी से विचार करोगे
aapki post jyo jyo padhti gayi hansi aape se baahar hoti gayi ,yahan to kaan se baachna mushkil raha aankho se bachkar kahan jaayenge ,ye na kahiye sheeshe ke ghar wale saavdhani bartte hai ,kuchh apvaad bhi hote hai ,jo aage peechhe nahi sochte .kul milakar khabar post dono hi laazwaab .
अभी तो ज़रूरत नफरत की दीवार गिराने की है।
abhi tak to mobil par asani se jhooth bol lete hai aur use jayj bhi mante hai .jab pardarshi mobail hoga to kya hoga ?
bhrhal bdhiya post
...बहुत खूब, जबरदस्त अभिव्यक्ति .... मजहबी दीवारें गिर जायें तो सुकून हो!!!
"शुक्रिया आपका ! बहुत दिनों बाद आपका व्यंग पढ़ने को मिला आनन्द आया, साथ में प्रेरणा भी मिली ऐसे मोबाइलों से दूर रहने की........."
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com
मैंने एक कहानी दूरदर्शन में देखी थी जिसमे एक सुखी आदमी को कबाड़ी की दुकान से एक चश्मा मिल जाता है जिसे पहन कर वह सबके मन की बात जान जाता है ! चश्मा खरीदते ही वह दुनियाँ का सबसे दुखी आदमी बन जाता है क्योकि उसे पता चल जाता है कि उसके घर वाले भी उसके बारे में खराब राय रखते हैं.
...देखें विज्ञान का चमत्कार क्या-क्या गुल खिलाता है !
बहुत ही सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने शानदार लिखा है! उम्दा प्रस्तुती!
एक सशक्त लेख के लिए आभार.वैसे विज्ञान के इन अविष्कारों से बचने के लिए भी विज्ञान का ही सहारा लेना पड़ेगा
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