एक दिन कड़ाही मांजते हुए ,अचानक आकर मेरे लेखन कार्य में व्यवधान करती हुई बोलीं -सुनोजी मैंने एक गजल लिखी है । मैं हतप्रभ ! कहा- देखो पहले उच्चारण सही करो | गाफ़ का 'ग' और जीम का 'ज' नहीं चलेगा | नाराज हो गईं। क्या आप भी बाबा आदम के ज़माने की बातें करते है और गाने लगी "मैं का करूं राम मुझे बुड्ढा मिल गया "" फिर स्वत: बोलीं सुनिए जनाब वह ज़माना कभी का लद गया जब दोहे और चौपाइयों की मात्रा गिना करते थे जब छंद के गति ,विराम ,तुक हुआ करते थे और गजल में काफिया ,मक्ता ,मतला आदि हुआ करते थे, इससे कवि के मन में जो प्राकृतिक विचार उठा करते थे उनमे बनावटी पन आ जाता था |तुम्हारे पुरानो की आधी जिन्दगी तो मात्राएं गिनने मे ही चली जाती थी तभी चार छ दिन मे एकाध दोहा या शेर लिख पाते थे ।आज देखो एक एक दिन में चार चार कवितायें ,चार चार गज़लें।एक एक कवि के हिस्से मे एक एक खण्डकाव्य और महाकाव्य आजाये ।
गुस्सा तो मुझे भी आया किन्तु सांड को लाल कपड़ा न दिखाने के मद्देनज़र मैंने कह दिया’" इरशाद" |वो बोलीं =
जो देर रात घर आने लगे
रचनाओं में सर अपना खपाने लगे
पत्र रिश्तेदारों के बदले सम्पादक को लिखने लगे
दाडी बढ़ाके कवि जैसा दिखने लगे
कभी गीत लिखने लगे कभी शेर लिखने लगे
कभी कभी तो व्यंग्य भी लिखने लगे
नाम का पति हर काम से गया
समझ लो वो आपके हाथ से गया
मेरे मुंह से आह ,वाह कुछ निकले इससे पूर्व हे उन्होंने आदाब-अर्ज़ करने की स्टाइल में अपने सीधे हाथ से सर को दो बार छुआ |मेरी इतनी हिम्मत भी न हुई कि पूछूं यह ग़ज़ल है या कविता ? फिर एक दिन रोटी बेलते बेलते, बेलन हाथ में लिए हुए, अचानक भये प्रकट कृपाला की मानिंद प्रकट हुई और बोलीं अभी हाल ही हाल एक ताज़ा तरीन तैयार हुई है | दूध का जला छाछ को फूँक फूँक कर पीता है तथा कारे की पूंछ पर पांव नही धरना चाहिये के द्रष्टिगत मैंने मुक़र्रर इरशाद कह दिया |क्योंकि मैने एक श्रोता को कवि के हाथों पिटते देखा है जो कविता नही सुनना चाह रहा था ,और मैने एक कवि को भी श्रोता के हाथ से पिटते देखा है जो पूरी रचना सुन चुका था ।बोलीं=
खुले आम रिश्वत और भ्रष्टाचार
एक स्वामी यौनाचार में गिरफ्तार
अखबार अस्पतालों की खोलते रहे पोल
नहीं जूँ तक रेंगी बहुत बजाये ढोल
जब सब्र की इन्तहा हो चुकी तो मुझे कहना पड़ा यह कविता है या आप किसी समाचार पत्र की हेड लाइन पढ़ रही है |बोली यह कविता ही है और आधुनिक काल में इसे ही कविता कहते है ,कहकर मेरी तरफ हिकारत की नजर से देखते हुए ग़ालिब सा'ब का शेर पढने लगी "ग़ालिब वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात / दे उनको न दिल और ,तो दे ,मुझको जबां और ""एक पति और एक दफ्तर का मातहत दोनो मजबूर होते है कविता पर वाह वाह करने के लिए |यदि बॉस कहे सुनो श्रीवास्तव मैंने एक शेर लिखा है तो सुन कर बहुत जी चाहता है की कहें वाह हुज़ूर क्या लीद की है मगर कहना पडता है वाह साहब क्या बात है क्या तसब्बुर है क्या जज्वात है |
एक दिन अचानक पूछ बैठीं क्यों जी नेताओं का गावों से कितना ताल्लुक रहता है ? मैंने कहा जैसा चन्द्र का चकोर से , जल का मछली से, तो बोलीं, लेकिन वे तो वहाँ तब ही जातें है जब कोइ घटना घटित हो जाती है | मैंने कहा जाना ही चाहिए वह उनका कार्य क्षेत्र है ,बोलीं यदि वहां कुछ न होगा तो नहीं जायेंगे ?मैंने कहा क्यों जायेगे , तो बोली समझलो वह गाँव उनके हाथ से गया | मैं झुंझला गया =यार ! ये हाथ से गया ,हाथ से गया तुम्हारा तकियाकलाम है क्या ? कवियों को दूसरों की बात सुनने में कम दिलचस्पी होती है अत: वगैर मेरी बात का कोइ उत्तर दिए कहना शुरू कर दिया =
जो गावं ओलों की बर्बादी से बचा
जो गावं सूखा भुखमरी या बाढ़ से बचा
जिस गावं में कभी न कोइ हादसा हुआ
समझो वो गावं नेता के हाथ से गया
धोखे से मेरे मुंह से निकल ही क्या वाह क्या बात है तो वे हाय मैं शर्म से लाल हुई वाले अंदाज में गुलाबी होती हुई बोलीं इसे कहीं अखबार में छपने भेज दीजिये न | मैंने कहा अब साहित्य अखबारों में नहीं छपता वहाँ अभिनेत्रियों के बड़े बड़े फोटो और विज्ञापन छ्पते है और साहित्यिक पत्रिका के पेज भरने के लिए लम्बी रचना की जरूरत होती है और आपकी कविता छोटी है |बोली और बड़ी कर दूंगी |चार लाइन वकील के लिए लिख दूंगी =
नक़ल कहाँ पे मिलती है ,तलवाने कौन लेता है
मन चाही पेशियों के पैसे कौन लेता है
तामील कहाँ पे दबती है ,फ़ाइल कहाँ पे रुकती है
गर आपका फरीक बातें ये सब जान गया
समझो फरीक आप के हाथ से गया
मैने चुनावी वादा किया ,अच्छा भेज देते हैं साथ ही शराबी फिल्म की अमिताभी स्टाइल में कहा "" या तो प्रसिद्ध लेखक छपे या सम्पादक जिसको चांस दे / वरना इन पत्रिकाओ मे छ्प भला सकता है कौन ""और साथ में समझाइश भी दी कि ये पत्रिकाओं में छापने वाले
नए में नहीं प्रसिद्ध में विश्वास रखते है
सादा मे नही बोल्ड में विश्वास रखते है
छापने में कम, फ़ाड फैकने में विश्वास रखते है
खाने में कम लुढकाने में विश्वास रखते है
अगर यह बात सच है तो समझ लो मैडम
यह लिखा हुआ भी आपके हाथ से गया
Tuesday, April 6, 2010
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26 comments:
क्या दिलचस्प और प्रवाहमय व्यंग है.....मज़ा आ गया.."
धोखे से मेरे मुंह से निकल ही क्या वाह क्या बात है तो वे हाय मैं शर्म से लाल हुई वाले अंदाज में गुलाबी होती हुई बोलीं इसे कहीं अखबार में छपने भेज दीजिये न | मैंने कहा अब साहित्य अखबारों में नहीं छपता वहाँ अभिनेत्रियों के बड़े बड़े फोटो और विज्ञापन छ्पते है और साहित्यिक पत्रिका के पेज भरने के लिए लम्बी रचना की जरूरत होती है और आपकी कविता छोटी है |बोली और बड़ी कर दूंगी |चार लाइन वकील के लिए लिख दूंगी =
Ha,ha,ha...bada maza aaya padhke..apni patni ko badhayi zaroor dena! Aalekh dilchasp to unke karan bana!:)
बहुत ही जबरदस्त लिखा आपने. शुभकामनाएं.
रामराम.
वेसे रचना तो सारी अच्छी ही है, ओर अगर आप वाह वाह ना करते तो कडही जरुर मांजते, फ़िर बेलने खाते जी. बहुत सुंदर लिखा आप दोनो ने
अरे ये तो पूरी भूमिका-व्याख्या के साथ है. बहुत बढ़िया.
"आपके हाथ से गया "
वाह! क्या बात है, मज़ा आ गया!
खुले आम रिश्वत और भ्रष्टाचार
एक स्वामी यौनाचार में गिरफ्तार
अखबार अस्पतालों की खोलते रहे पोल
नहीं जूँ तक रेंगी बहुत बजाये ढोल
bahut khoob aur shaandaar rachna .vyang ka to jawab nahi
" तुम्हारे पुरानो की आधी जिन्दगी तो मात्राएं गिनने मे ही चली जाती थी तभी चार छ दिन मे एकाध दोहा या शेर लिख पाते थे ।आज देखो एक एक दिन में चार चार कवितायें ,चार चार गज़लें।एक एक कवि के हिस्से मे एक एक खण्डकाव्य और महाकाव्य आजाये ।
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मैने एक श्रोता को कवि के हाथों पिटते देखा है जो कविता नही सुनना चाह रहा था ,और मैने एक कवि को भी श्रोता के हाथ से पिटते देखा है जो पूरी रचना सुन चुका था |
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मुझे कहना पड़ा यह कविता है या आप किसी समाचार पत्र की हेड लाइन पढ़ रही है |बोली यह कविता ही है और आधुनिक काल में इसे ही कविता कहते है |
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यदि बॉस कहे सुनो श्रीवास्तव मैंने एक शेर लिखा है तो सुन कर बहुत जी चाहता है की कहें वाह हुज़ूर क्या लीद की है मगर कहना पडता है वाह साहब क्या बात है क्या तसब्बुर है क्या जज्वात है |
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जो गावं ओलों की बर्बादी से बचा
जो गावं सूखा भुखमरी या बाढ़ से बचा
जिस गावं में कभी न कोइ हादसा हुआ
समझो वो गावं नेता के हाथ से गया !!!
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अब क्या कहूँ......हंस हंस कर हाल बेहाल हो गया !!!
बेजोड़ लाजवाब पर अति सार्थक और गूढ़ व्यंग्य...
आह, मन प्रसन्न हो गया...
आपकी chinchat dhara evam lekhan kala kee main kayal hun....
और kewal lekhan hi nahi,आपकी tippaniyan bhi sada hi aalekh kee poorak hua kartee हैं...isiliye तो inkee vyagrata से prateeksha rahtee है...
aapke adwiteey aalekh और anmol tippaniyon ke liye atishay aabhar...
अखबार अस्पतालों की खोलते रहे पोल
नहीं जूँ तक रेंगी बहुत बजाये ढोल
Bahut hi yatharprak rachna.... Bahare bhala kab sunte hain, unhen to sabkuch achha dikhta hai..
जो गावं ओलों की बर्बादी से बचा
जो गावं सूखा भुखमरी या बाढ़ से बचा
जिस गावं में कभी न कोइ हादसा हुआ
समझो वो गावं नेता के हाथ से गया
Raajniti ka yahi to khel sare aam chalta rahata hai... Janta ka kya vote dekar fursat....
तामील कहाँ पे दबती है ,फ़ाइल कहाँ पे रुकती है
गर आपका फरीक बातें ये सब जान गया
समझो फरीक आप के हाथ से गया
Buhut sahi ibarat prastut kee hai aapne... akhir aam adami nya kee guhar lekar jaye bhi to kahan jaye....
Samajik sarokar se saji aam janta ko jagruk karti karti rachna ke liye bahut dhanyavaad.
श्रीवास्तव जी
बहुत मज़ेदार प्रस्तुति...........अच्छे तंज़ कसे हैं आपने....!शानदार प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार
बहुत ही मज़ेदार लेख है...
बनावटी कवियों/ग़ज़लकारों की भी खूब ख़बर ली.
***एक उभरती हुई कवियत्री जी से परिचय बहुत बढ़िया लगा .
पढ़ते पढ़ते बहुत हंसी आई...वैसे भी अतुकांत कविता लिखना आसान है.इस में कोई शक नहीं .
***ये पत्रिकाओं में छापने वाले क्या सोचते हैं इस का भी खूब सही बखान किया है.
आज जो मैं लिखा चाहता था , कमेंट्स पढ़ते देखा की रंजना जी ने उन सभी लाइनें पहले ही लिख दी हैं ! हँसते हँसते आनंद आ गया भाई जी !
सादर
वाह बृजमोहन जी .. आपके उन्ह से वाह कहते कहते रुका पर हमारे हुंग से हर बार वाह वाह ... क्या बात है ... निकलता ही गया ..., निकलता ही गया ... ये समाचार की हेडलाइन्स नही जनाब ... समाज की कविता है ... धारा प्रवाह ... और ये सच बोला आपने की आजकल पत्रिकाओं में नेत्रियों के बड़े बड़े चित्र छपते हैं ... विगयापन होते हैं ... वहाँ रचनाओं का क्या काम ...
बहुत ही अच्छा व्यंग है .. अर्थवाली रचनाओं के साथ ...
वाह! वाह! वाह!----ये बास या पत्नी वाली मज़बूरी की वाह नहीं है---सचमुच.
गुस्सा तो मुझे भी आया किन्तु सांड को लाल कपड़ा न दिखाने के मद्देनज़र मैंने कह दिया’" इरशाद"
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नाम का पति हर काम से गया
समझ लो वो आपके हाथ से गया
अचानक भये प्रकट कृपाला की मानिंद प्रकट हुई और बोलीं--
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जो गावं ओलों की बर्बादी से बचा
जो गावं सूखा भुखमरी या बाढ़ से बचा
जिस गावं में कभी न कोइ हादसा हुआ
समझो वो गावं नेता के हाथ से गया
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----मजेदार व्यंग्य है। कुछ अत्यधिक rochak लाइनें यहाँ और दिल में भी कट-पेस्ट हो गईं।
--बधाई।
अच्छी प्रस्तुति..बधाई
Bahuy sundar aur pravahamaya vyangya.....achchhaa laga--
दिलचस्प! कलम के धनी हैं आप!
behad pasand aaya aapkka ye hasya vyang se bhara lekh.
samajhane wale samajh gaye
na samajhe vo anadi hai.
poonam
bahut acchha vynagye. badhayi.
aapne mere blog ABHIVYAKTIYA me kuchh pucchha tha uska reply vahi de diya he. dekh lijiyega.shukriya.
Phir ekbaar padhke lutf uthaya!
एक दिन कड़ाही मांजते हुए ,अचानक आकर मेरे लेखन कार्य में व्यवधान करती हुई बोलीं -सुनोजी मैंने एक गजल लिखी है । मैं हतप्रभ ! कहा- देखो पहले उच्चारण सही करो |
ham to isi pahli line se hi bharma gaye ki kadahi aap se aakar ye sab boli...aadhi rachna padh li tab samajh me aaya ki aapki VO boli.(ha.ha.ha.)
bahut chhilke utare hai bichare vakil aur neta ke to apki vo ne..
bahut mazedaar rahi puri rachna. dhanyewad ise post karne k liye.
Hah hah hah hah hah.....
Saans lene ke pashchaat....
Hah hah hah hah hah.................
achchi lagi gady aur kavita ek saath.
aadarniy sir,aapke lekh ko padh kar achha laga. ye parampara to sadiyo se chali aarahi hai,log shayad isi liye bete ki chahat bhi rakhte the ki unke vansh ka naam lene wala koi ho.shad tabhi se maaki apexha bachche ke saath pita ka naam joda jaane laga.maato janm datri hone ke saath har tarah ke sagharsh kasaamna karti hai,par kahi jaaiye to naam pita ka hi puchha jaata hai,josambhvatah aage bhi kayam rahega.
poonam
आदरणीय बृजमोहन जी
आया तो आज आपकी रचनाएं पढने के लिए परन्तु काफी अरसे से कुछ लिखा न होने के कारण चिंताग्रस्त हूँ आप कैसे हो,स्वास्थ्य ठीक है,इसलिए तुरंत एक मेल या सन्देश से अपनी राजी ख़ुशी भेजने का कष्ट करें
सदैव आपका सुभचिन्तक
सुरेन्द्र अभिन्न
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