Wednesday, April 13, 2011

आयोजक की खैर नहीं

उस दिन मै बात तो कर रहा था कवि गोष्ठी की मगर न जाने कहां से शेर शायरी और पुराने फिल्मी गानों में उलझ गया ।

जब मुझे जबरन कवि गोष्ठी का श्रोता बनाकर ले जाया जा रहा था तब मै उनसे यह भी न पूछ पाया कि आज की गोष्ठी किस संस्था या संगठन की ओर से है । बात यह है कि मेरे नगर में राजनैतिक दलों से ज्यादा साहित्यिक संस्थायें, संघ, संगठन , मंच इत्यादि है । हर संस्था में एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष , सचिव, कोष नहीं है फिर भी एक कोषाध्यक्ष तो होता ही है और यदि उस संस्था या संघ में चार से ज्यादा कवि हुये तो फिर एक सह सचिव एंक कोई बुजुर्ग हुआ तो संरक्षक इत्यादि इत्यादि ।

जबरन पकड कर लाये गये श्रोताओं के अलावा अन्य श्रोताओं के अभाव में ऐसा प्रतीत होता है जैसे कवि गोष्ठीयों में दिलचस्पी रखने वाला साहित्य प्रेमी आज अनुपलव्ध है क्योंकि श्रोता स्वयं कवि हो चुका है और उसे फिर एक अदद श्रोता की आवश्यकता है।

महत्त्व पूर्ण कवि साथी लगातार ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं क्योंकि वे अपनी बात कहना चाहते है वे उत्सुक है अपनी सुनाने को ,अपनी छपाने को साथ ही उसकी यह शिकायत भी है कि उनकी रूचि अनुकूल श्रोता नहीं मिल पाते हैं कवियों के पास विपुल सामग्री है नगर में साहित्यकारों की कमी नहीं फिर भी कवि गोष्ठियों में श्रोता दिखाई नहीं देते
साहित्य सृजन कर कवि उसे अभिव्यक्त करना चाहे और उसे उपयुक्त पात्र न मिले या मिलने पर उसके सराहना न करे तो साहित्यकार को मृत्यु तुल्य पीड़ा ( वह जैसी भी होती हो ) होना स्वाभाविक है -यही पीड़ा सम्पादकीय अनुकूलता न मिलने पर हुआ करती थी तो फिर कवियों या लेखकों को स्वांत सुखाय लिखने को विवश होना पडा मैं भी पहले लेख लिख कर भेजता था और खेद सहित वापस आजाता था तो उसे स्वांत सुखाय के पैड में बाँध दिया करता था १५ साल पुराने स्वांत सुखाय वाले लेख जब आज पढता हूँ तो लगता है कि सम्पादक सही थे वे लेख पाठक दुखाय ही थे ।

हर कवि कि इच्छा होती है कि वह अपने यहाँ गोष्ठी आयोजित करे मगर या तो वह किराये के मकान में रहता है या पुराने पुश्तैनी मकान में - जिनमें बड़े हाल का अभाव रहता है हालाँकि वह चाय पानी फूल माला सब की व्यवस्था अपनी आर्थिक तंगी के वावजूद करता है मगर उसके बच्चे बच्चियां इसे व्यर्थ का हुल्लड़ कहकर उसकी इच्छा को दवा देते हैं।पत्नियाँ तो खैर पतियों से नाराज़ रहती ही हैं क्योंकि वे गोष्ठियों से देर रात घर लौटते हैं और उनके दुर्भाग्य से और कवि पति के भाग्य से कोई श्रोता घर पर ही आजाय तो चाय बना बना कर परेशान हो जाती है।

कवि गोष्ठियों में आयोजक समय देता है 8 बजे कवि एकत्रित होते हैं दस बजे तक । कुछ कवि तो इतनी देर से पहुँचते हैं के तब तक आधे से ज़्यादा कवि पढ़ चुके होते हैं ।इसमे एक फायदा भी है कि उन्हें ज्यादा देर इंतज़ार नहीं करना पड़ता और जाते ही सुनाने का नंबर लग जाता है ।

गोष्ठियों में अब जो अपनी सुना चुके है वे वहाँ से खिसकने के मूड में होते है अध्यक्ष बेचारा फंस जाता है भाग भी नही सकता और उसे सब से अंत में पढ़वाया जाता है जब तक चार -पाँच लोग ही रह जाते है । मैंने देखा है अखंड रामायण का पाठ -१२ बजे रात तक ढोलक मंजीरे हारमोनियम ,,दो बजे तक तीन चार लोग रह जाते है अब एक जो व्यक्ति तीन बजे फंस गया सो फंस गया सुनसान सब सो गए इधर इधर देखता रहता है और पढता रहता है काश कोई दिख जाए तो उससे पांच मिनट बैठने का कहकर खिसक जाऊँ -मगर कोई नहीं =न बीडी पी सकता है न तम्बाखू खा सकता है ,तीन से पाँच का वक्त बडा कष्ट दाई होता है /सच है भगवान् जिससे प्रेम करते है उसी को कष्ट देते हैं इससे सिद्ध हो जाता है की तीन बजे से पाँच बजे तक पाठ करने हेतु अखंड रामायण में फसने वाले और गोष्ठियों के अध्यक्ष से ही भगवान् प्रेम करते हैं ।

कवि की कविता पूर्ण होने पर दूसरे कवि तालियाँ बजाते है और बीच बीच में वाह वाह करते रहते है वास्तव में तालिया इस बात का द्योतक होती है कि प्रभु माइक छोड़ अपनी सिंहासन पर विराजमान होजाइये मगर जब वह वहीं बैठ कर डायरी के पन्ने पलट कर सुनाने हेतु और कविताये ढूढने लगता है तो शेष कवियों के दिल की धड़कन बढ़ जाती है, उधर कवि भी तो कहता है कि एक छोटी सी रचना सुनाता हूँ और फ़िर शुरू होजाता है और उसकी छोटी सी रचना खत्म होने का नाम नहीं लेती।-शेष कवियों की भी कोई गलती नही वर्दाश्त की भी हद होती है ,क्योंकि कवि का जब तक नम्बर नही आता सुनाने का तब तक उसे बहुत उत्सुकता रहती है और ज्यों ही उसने अपनी सुनाई बोर होने लगता है दूसरे दिन समाचार पत्र में प्रकाशित होता है। कवि सबसे पहले उसमें अपना नाम देखता है इत्तेफाकन किसी कवि का नाम छूट जाए या उसके व्दारा पढी गई लाइन पेपर में न दी जाये तो आयोजक की खैर नहीं ।

32 comments:

kshama said...

Ha,ha,ha! Padhte hue to hansee chhoot gayee! Lekin gar aise aayojan me kabhee jaane anjaane phans jayen to boltee band ho jaye....boriyat se! Huee bhee hai!

Abhishek Ojha said...

पाठक दुखाय. सही है.
हा हा.

डॉ टी एस दराल said...

हा हा हा ! काव्य गोष्ठियों पर सही व्यंग है।
ऐसा ही होता है।

हरकीरत ' हीर' said...

@ अध्यक्ष बेचारा फंस जाता है भाग भी नही सकता और उसे सब से अंत में पढ़वाया जाता है जब तक चार -पाँच लोग ही रह जाते है ।
@ अध्यक्ष बेचारा फंस जाता है भाग भी नही सकता और उसे सब से अंत में पढ़वाया जाता है जब तक चार -पाँच लोग ही रह जाते है ।
@ मगर जब वह वहीं बैठ कर डायरी के पन्ने पलट कर सुनाने हेतु और कविताये ढूढने लगता है तो शेष कवियों के दिल की धड़कन बढ़ जाती है, उधर कवि भी तो कहता है कि एक छोटी सी रचना सुनाता हूँ और फ़िर शुरू होजाता है और उसकी छोटी सी रचना खत्म होने का नाम नहीं लेती।-

हा...हा...हा.....
बृजमोहन जी कभी बुरी तरह फंसे हैं लगता है ...
व्यंग की धार रोचक है ....वाह....!!

महेन्‍द्र वर्मा said...

मैं ऐसे ही प्रसंगों का साक्षात गवाह हूं।

वन्दना अवस्थी दुबे said...

क्या बात है! बढिया व्यंग्य, कवि गोष्ठियों पर.

Arvind Mishra said...

"अब एक जो व्यक्ति तीन बजे फंस गया सो फंस गया सुनसान सब सो गए इधर इधर देखता रहता है और पढता रहता है काश कोई दिख जाए तो उससे पांच मिनट बैठने का कहकर खिसक जाऊँ -मगर कोई नहीं =न बीडी पी सकता है न तम्बाखू खा सकता है ,तीन से पाँच का वक्त बडा कष्ट दाई होता है "
ये कैसा भोगा हुआ यथार्थ वर्णित कर दिया आपने ....
फंस चुका हूँ क्या कहूँ !

Smart Indian said...

आखिर इस दर्द की दवा क्या है?

देवेन्द्र पाण्डेय said...

सही-सही लिख दो बढ़िया व्यंग्य हो जाता है।
खूब आनंद आया पढ़कर। काव्य गोष्ठियों का पुराना दर्द उभर आया।

Sunil Kumar said...

व्यंग्य की तलवार ,उस पर धार जोरदार , बहुत खूब यह वास्विकता है एक बार का अनुभव मुझे भी है|श्रीवास्तव जी एक बात और बता दूँ कि कवि तालियों के बहुत लालची होते है मगर सीधे सीधे नहीं मांगते कहते है| आपका ध्यान चाहूँगा , पूरे सदन का आशीर्वाद चाहूँगा , मंच का ध्यान चाहूँगा एक मिसरे कि कामयाबी कि सनद चाहूँगा |

Satish Saxena said...

हमेशा की तरह हसायमान रचना ! शुभकामनायें भाई जी !!

ज्योति सिंह said...

सच है भगवान् जिससे प्रेम करते है उसी को कष्ट देते हैं इससे सिद्ध हो जाता है की तीन बजे से पाँच बजे तक पाठ करने हेतु अखंड रामायण में फसने वाले और गोष्ठियों के अध्यक्ष से ही भगवान् प्रेम करते हैं ।
kya kahne ,harkirat ji ki baate main bhi dohrati hoon .

Dr. Yogendra Pal said...

पाबला जी के ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी देखी

असल में कोई परेशानी वाली बात नहीं है आपने गलती से show hidden character / nonprinting character बटन को दबा दिया है

टूलबार में आपको उल्टे P जैसा चिन्ह दिखाई देगा उसको दबा दीजिए सब कुछ सामान्य हो जायेगा

Dr. Yogendra Pal said...

तकनीकी समस्या के लिए आप मेरे तकनीकी ब्लॉग को देखें, वीडियो के जरिये आपकी समस्याओं का समाधान किया जाता है, जिससे आपको सीखने में आसानी रहती है

Mohinder56 said...

अरे भईया... ब्लोगिंग श्रोताओं के आभाव को पाठकों से पूरा करता है... आप खूब शायरी कीजिये... पढने वाले बहुतेरे हुये... अगर बात में दम हुआ तो

रेखा said...

आपने तम्बाकू और बीडी लिखा .. चाय भी लिख देते आज कल यह भी एक तलब है ...
"एक कुख्यात कवियों के सम्मलेन का वर्णन" शीर्षक मेरी और से

डॉ. मोनिका शर्मा said...

एकदम सटीक व्यंगात्मक लेख..... सच की बानगी है यह प्रस्तुति....

Patali-The-Village said...

कवि गोष्ठियों पर बढिया व्यंग्य|

Dr (Miss) Sharad Singh said...

काव्य गोष्ठियों पर करारा व्यंग्य...
बहुत खूब...

Asha Lata Saxena said...

अच्छा व्यंग |
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आभार
आशा

रंजना said...

ऐसा सटीक चित्रण किया है आपने कि क्या कहूँ...एकदम जबरदस्त..

हँसते हँसते बुरा हाल हो गया..

बहुत बहुत आभार आपका...

पूनम श्रीवास्तव said...

Sir,
Bahut badhiya vyangya likha hai apne kaviyon,kavi goshthiyon aur unke ayojanon par..anand aa gaya padhkar..ek bar ek goshthi men sab chale gaye..ant men keval ek shrota bacha...jab antim kavi kavita padhne pahunche to unhonne us shrota ki sarahna karate huye kaha ki---is shahar men shayad ap akele sahitya premi han jo ab tak baithe hain.
to shrota mahodaya ka uttar tha..saheb main kavita sunane ke lye nahin apni dariyan aur masanad uthane ke liye baitha hun....

kshama said...

आपने जिस पंक्ती की और इंगित किया है,उसका मतलब है: "गर रिश्ता खून का ना हो तो उसका मोल कम ना समझना."
(' Rishte'rachana me!)

Unknown said...

srahniya viang hai

Unknown said...

sarhaniya rachana hai

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