Wednesday, October 1, 2008

सान्त्वना

घर में कोहराम ,तीन साल की बिटिया
रोते रोते ये समझाया ,मम्मी तेरी बन गई चिडिया
रोज़ पेड़ पर चिडिया आती /बिटिया मम्मी समझ बुलाती /
जीवन मरण समझ न पाती
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भूल गई बातें सब पिछली ,जनम मरण का भेद समझ कर
रोकर हंसकर ,पढ़कर लिखकर ,बाईस साल गुजारे मिलकर
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शादी विदा और मन बेटी का =
निर्बल बाप अकेला होगा ,सन्नाटा घर पसरा होगा
कभी अकेला रह न पाया ,मायूसी में मन बहलाया
इस बूढे का अब क्या होगा
रोते रोते आई ,कह गई
पापा तुम हो नहीं अकेले ,आती ही होंगी मम्मी चिडिया बन कर, इसी पेड़ पर /
इसे भी कभी ऐसे ही समझाया था
सोचते हुए
कमज़ोर नज़रों में सूखे आंसू लिए ,
मैं बैठ गया घर की देहरी पर
और सचमुच तलाशने लगा कोई आक्रति
आँगन में लगे आम के पेड़ पर

6 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया रचना है बधाई।

शोभा said...

उनके ब्लॉग पर जाना तो इक बहाना था
हमें तो अपने ब्लॉग पर उन्हें बुलाना था
aapka uddeshya purn hua. badhayi.

Straight Bend said...

This poem is amazing! I am speechless!

RC
(Poetry is subjective)

Straight Bend said...

इतनी सारी माफ़ी मांगे वाली कोई बात नहीं! मुझे तो किसी बात का बुरा नहीं लगा! जहाँ तक उम्र का सवाल है, ६०-६५ तक तो मैं कभी नहीं पहुंचूंगी ये मुझे मालूम हैं :-)

मार्गदर्शन का तो सवाल ही नहीं, मैं ख़ुद सीख रही हूँ,...... अपनी राय दे सकती हूँ बस ! भाषा का ज्ञान मेरा भी सीमित है क्योंकि मेरी मातृभाषा हिन्दी नहीं है .. सो मुझसे जहाँ तक हो सके, आपकी मदद करती रहूंगी ...
RC

रंजना said...

बहुत सुंदर लिखा है आपने.....मार्मिक पंक्तियाँ मन बोझिल कर गई .

Unknown said...

bahut marmsparshi likha hai.....dil ko choo gaya .badhaee ho.....