आज आदमी की सुविधा के लिये कितने साधन उपलब्ध है, एस. एम. एस, ई -मेल, फेसबुक और भी न जाने क्या क्या। पुराने लोगों ने इस खतोकिताबत के लिये कितने कष्ट झेले है इस सम्बंध में जब सोचता हूं तो आखों में आसूं आजाते है, दिल बैठने लगता है।
बैठ जाता है साहब दिल बैठ जाता है आदमी खडा रहता है और उसका दिल बैठ जाता है, आदमी लेटा रहता है और उसका दिल बल्लियों उछलने लगता है, आदमी चुपचाप बैठा रहता है और उसके कान खडे होजाते हैं, बिना कैंची आदमी, आदमी के कान कतरता रहता है, आदमी ऊंचा रहता है और उसकी मूछ नीची हो जाती है, बिना चाकू छुरी की आदमी की नाक कट जाती है। सूर्पनखा की नाक थोडे ही न कटी थी, काटने वाले चाकू छुरी तलबार आदि कुछ लेकर ही नहीं गये थे वाण थे उनके पास । वाण से भी कहीं नाक कटती है । वो तो क्या हुआ उस रुपसी का- उस षोडसी का ,उस मृगनयनी, चन्द्रबदनी, सुमुखि सुलोचनि का प्रणय निवेदन दौनो भ्राताओं ने ठुकरा दिया तो उसकी घोर इन्सल्ट हुई गोया उसकी नाक कट गई । वो तो आइ.पी.सी. प्रभावशील नहीं थी वरना दफा 500 का दावा ठोंक देती। हां तो आदमी तना रहता है और उसकी गर्दन शर्म से झुक जाती है, महीनों से जो व्यक्ति बिस्तर से हिल नहीं सकता ....
""कल तलक सुनते थे वो बिस्तर से हिल सकते नहीं
आज ये सुनने में आया है कि वो तो चल दिये ""
कितनी परेशानी- कितनी मुश्किलें.-नहर के एक किनारे पर शाहजादे सलीम बैठे है एक कमल के फूल में चिटठी रख कर नहर में डाल देते है दूसरे किनारे पर अनारकलीजी बैठीं हैं इन्तजार कर रहीं हैं और देखिये ," आपके पांव देखे इन्हे जमीन पर मत उतारियेगा मैले हो जायेंगे " और उस चिटठी को पाकीजाजी चांदी की डिबिया मंगवाकर उसमें महफूज रखती हैं।
पहले पोस्ट आफिस का महा नगरों तक ही चलन था जिलों तक भी होगा ,और एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में चिटठी पहुंचाना, तो कोई पत्र बाहक थोडे बहुत पैसों की लालच में ऐसे काम के लिये तैयार होजाता था जो कासिद कहलाता था। बहुत सोच समझ कर लिखना पडता था जनाब , आज कल की तरह नहीं कि इन्टरनेट पर कुछ भी अन्ट बंट शंट लिख दिया बहुत सोचना पडता था साहब ,कोई व्दिअर्थी शव्द न लिखा जाय, कोई गलत शब्द न लिखा जाये। अन्यथा-
"क्या जाने क्या लिख दिया उसे क्या इज्तिराब में
कासिद की लाश आई है खत के जवाब में"
कुछ बच्चे भी इस काम को अन्जाम दे दिया करते थे।" नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुटठी में क्या है" बोले चिटठी है फलां अंकिल ने भिजवाई है फलां दीदी को देने जारहा हूं। फिर शिक्षा का प्रचार प्रसार हुआ तो कापी और किताबों इस हेतु प्रयुक्त होने लगीं।
आज की पीढी कुछ भी कहे मगर वह पीढी बहुत बुध्दिमान थी । इतने भविष्य का अन्दाज हमारे आज के बच्चे नहीं लगा सकते है। देखिये पत्र लिख दिया और भेजने के बाद पुन पत्र लिखने बैठ गये कान्फीडेन्स देखिये ,एक विश्वास ,आत्मबल -
"कासिद के आते आते खत इक और लिख रखूं
मै जानता हूं जो वो लिखेगे जवाब में "
और संतोष देखिये आज की पीढी को बहुत जल्दी तो गुस्सा आता है, जरा में होशो हवास खो देता है । देखिये पत्र भेजा ,उसने पढा और गुस्से में टुकडे टुकडे करके ऐसे फैक दिया जैसे फिल्म सत्ता पे सत्ता में हेमाजी ने तरबूज फैका था । मगर देखिये सेकेन्ड स्टोरी से फैके गये खत के पुरजे बीन रहे है और कह रहे है
"पुर्जे उडा के खते के ये इक पुर्जा लिख दिया
लो अपने एक खत के ये सौ खत जवाब में "
चेहरे पर संतोष है कि कइयों के तो सौ पत्रों का एक भी जवाब नहीं आता और एक हम हैं जिसको एक खत के सौ जवाब आये है और पुरजे इकटठा किये जारहे है। है आजकल किसी में ऐसी गम्भीरता ?
इसके और बहुत पहले ( लॉन्ग लॉन्ग एगो ) कही बादलों के साथ समाचार भेज रहे है, कहीं कबूतरों के साथ ,कितना कष्टदायक समय था फिर कबूतरों ने ये व्यर्थ के काम बन्द कर दिये तो खत में लिखने लगे "चला जा रे लैटर कबूतर की चाल" । कितनी भावुकता सज्जनता कितनी विनम्रता ,दया लिखी रहती थी पत्रों में ""खत लिख रही हूं खून से श्याही न समझना ""और मजा ये कि पत्र नीली श्याही से लिखा जारहा है। आजकल तो ऐसा कोई नहीं लिखता हाय हलो के जमाने में_ लेकिन पहले पत्र की शुरुआत इस शब्द से होती थी "" मेरे प्राणनाथ"" और पत्र का अन्त होता था"" आपके चरणों की दासी ""। मजाल क्या जो इसके विपरीत किसी ने प्रारम्भ"" मेरे चरणदास"" से किया हो और समापन ""आपके प्राणों की प्यासी" से किया गया हो।
45 comments:
कल तलक सुनते थे वो बिस्तर से हिल सकते नहीं
आज ये सुनने में आया है कि वो तो चल दिये ""
वाह !
सभी शे 'र अच्छे लिखे हैं ।
ज़माने की तो अब क्या कहें ज़नाब
वो चैट भी करते हैं तो बिना मूंह खोले ।
Ab wo geet kahan..."phool tumhen bheja hai khatme...!"Ya phir "chanda re mori patiyan le ja...! Ab to sms aur bahut hua to e-mail!"Phone to hai hee!
पहले हम कहते थे एक घंटे से दिमाग चाट रहा था अब कहते है चैटिंग कर रहें है | ज़माना बदल गया है श्रीवास्तव जी !
मज़ा आ गया ब्रजमोहन जी। और अब खतो-किताबत की बात आई तो आपका मुखारविन्द भी नज़र आ गया। बहुत बढिया!
अपने बचपन में सुनी कहानियाँ ,
और करी नादानियाँ, को पत्राचार में पढ़ कर
अच्छा लगा ,फिर बचपन लौट आया!
आशीर्वाद देते-देते थक गया था|
नमस्कार भाई जी !अच्छा लगा |
अशोक सलूजा|
मै जानता हूं जो वो लिखेगे जवाब में "
अब टिप्पणी भी जान लीजिये -लिखने की जहमत क्यों उठायी जाय :)
आप तो मजमून लिफाफा देखकर ही भांप जाने वाले छुपे रुस्तम निकले :)
आंसू न बहा, फरियाद न कर
खत लिखता है तो लिखने दे :)
बहुत बढिया!
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
bahut khoob..
आपकी पोस्ट तबियत हरियाने वाले हुआ करते हैं...इसलिए तो हम बेसब्री से इन्तजार करते रहते हैं...
बातों के छोर को कहाँ से पकड़ कहाँ कहाँ घुमाकर फिर कहाँ ले जाकर समेट देतें हैं....बस लाजवाब....आनंद आ जाता है..
अब क्या करें ! ना चाहते हुए भी टिपण्णी कीबोर्ड से ही टाईप करना पड़ रहा है. :)
त्रेता युग से शुरू कर के अपनी बात इन्टरनेट युग तक ले आये ,हमने भी एक ही साँस में गटक लिया.बीच में साँस लेने का जालिम ने मौका ही नहीं दिया.खुदा का शुक्र है कि खाते में साँसे क्रेडिट बैलेंस में थी.वरना जान को कुर्क किये बगैर आप भला क्या मानते ! बेहतरीन व्यंग्य लिखा है आपने.सच में,,, पढना शुरू किया तो आखिर तक खुद को रोक न पाया.
वाह !!! जी वाह लाजवाब.बहुत अच्छा अंदाज़ और शिकवे शिकायत.
" मजाल क्या जो इसके विपरीत किसी ने प्रारम्भ"" मेरे चरणदास"" से किया हो और समापन ""आपके प्राणों की प्यासी" से किया गया हो।"
ये सब लिखने की बातें नहीं समझने की होती हैं हा... हा... हा...सही कहा न
The changed world... very nicely depicted.
सही कहा आपने। उन पत्रों की मिठास कुछ और ही हुआ करती थी। पर कहते हैं न कि वक्त की हर शै गुलाम...
---------
हंसते रहो भाई, हंसाने वाला आ गया।
अब क्या दोगे प्यार की परिभाषा?
वाह लाजवाब.बहुत अच्छा अंदाज़
वाह ... बहुत ही अच्छा लिखा है आपने .. आभार ।
वाह जी वाह! मुझे तो मस्त कर दिया जनाब आपकी चटपटी बातों ने.आपकी टेडी तिरछी बातों से तो 'मोहन' होता है 'ब्रिज मोहन जी '.
मेरे ब्लॉग पर आपके आने का शुक्रिया.
चुटीली शैली। सरल भाषा में स्तरीय व्यंग्य रचनाएं। शब्द शक्तियों का अच्छा उपयोग। प्राचीन मुद्दे और नवीन उपमान। संधिकाल में समकालीन शब्दवली के प्रयोग द्वारा अच्छा बिंब विधान।
पत्र और कलम दवात के दिन तो कब के लद गए। अब तो मोबाइल पर अंगूठा चलता है, संदेश भेजने के लिए। अब सामने वाला या वाली जवाब में अंगूठा दिखाए या अंगूठी, यह किस्मत पर निर्भर करता है।
बेहतरीन व्यंग्य।
शुभकामनाएं।
मजेदार व्यंग्य |
आगे जाते हुए काफी कुछ पीछे छूट जाता है एक टीस देकर जो कभी गीत बनती है तो कभी व्यंग्य । काफी अच्छा लगा इस रचना को पढ कर ।
पर इतना सब होने के बावजूद इतना तो तय है की जो मज़ा पहले खतो-किताबत में था वो आज कल नही है ... जहाँ तक प्राण-नाथ और चरण-दास का सवाल है ... ये तो ऐसा है की ... सबको मालूम है ज़माने की हक़ीकत लेकिन ... लेकिन कोई बोलता नही ... असली में तो पति क्या होते हैं सब को मालूम है ...
aadarniy sir
aapki har post kahin na kahin hansa hi deti hai .
gmbhir baat ko bhi badi hi sarlta v sahjta ke saath likh dete hain .waqai ye aapka kammal hi to hai.
pahle aur ab ke jamane me bahut hi antar aa gaya hai .patr ki baat to chhodiye log jhat kah baithte hai ki are! itni fursat kahan ki hale -dil bayan karun so ek ghante ka kaam paanch minut me hi nikal gaya na. ab log khat ka nahi mail -e-mail par jawab lete dete rahte hain .khair, aaj ki is bhaga doudi ke jivan me itna bhi ho pata hai to samjhiye ki bahut hai.kyon ki khat ka intjaar to koi karta hi nahi .
bahut bahut pasand aai
aapki yah prastuti
hardik abhinandan
ponam
बहुत बढ़िया हास्य व्यंग्य लेख....
विचारों का प्रकटन एवं शब्दों का चयन सराहनीय ..
बहुत अच्छा लगा , एक स्तरीय हास्य व्यंग्य लेख पढ़कर
सही कहा आपने। उन पत्रों की मिठास कुछ और ही हुआ करती थी। बेहतरीन व्यंग्य।
कल तलक सुनते थे वो बिस्तर से हिल सकते नहीं
आज ये सुनने में आया है कि वो तो चल दिये ""
वाह ! वाह जी बहुत सुंदर मजे दार... अब आना जाना लगा रहेगा...
बहुत मजेदार लगी सर आपकी पोस्ट !
मेरे ब्लॉग पर आने का बहुत बहुत आभार !
वाह! क्या बात है! बहुत बढ़िया लिखा है आपने! उम्दा प्रस्तुती!
बन्धुवर ब्रजमोहन श्रीवास्तव जी ! आपके इस पत्राचार का कायल हूँ । बतकही में आपने बहुत कुछ कह दिया ।बहुत पुरानी यादों में लेते गए आप !1975 के भी कुछ ख़त सँभाल कर रखे हुए हैं आगामी पीढ़ी को दिखाने के लिए कि कभी हम खत भी लिखा करते थे। ।1994 से 2005 तक = 11 वर्ष मध्य प्रदेश में भी रहा । बहुत से लोगों से मधुर स्मृतियाँ जुड़ी हैं ।आपके लेख ने बहुत कुछ बीता फिर ताज़ा कर दिया ऽअपका बहुत-बहुत आभार !
बहुत खूब ! लाज़वाब....
badhiya lilka hai .
आदरणीय ब्रिजमोहन जी श्रीवास्तव साहब
सादर प्रणाम !
बहुत रोचक और बांधे रखने वाला लेखन है आपका ...
शुरू से आखिर तक एक एक पंक्ति गुदगुदाने में सफल है .
जितनी प्रशंसा की जाए ... कम !
याद नहीं , पहले आया कि नहीं ... अब आते रहना पड़ेगा :)
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
maza aa gaya ........
अच्छा लगा बहुत दिनों के बाद आपको पढना।
---------
कौमार्य के प्रमाण पत्र की ज़रूरत किसे है?
ब्लॉग समीक्षा का 17वाँ एपीसोड।
अच्छा लगा बहुत दिनों के बाद आपको पढना।
---------
कौमार्य के प्रमाण पत्र की ज़रूरत किसे है?
ब्लॉग समीक्षा का 17वाँ एपीसोड।
Beautiful satire.
"कासिद के आते आते खत इक और लिख रखूं
मै जानता हूं जो वो लिखेगे जवाब में "
bahut khoob
अच्छा लिखा है सर , मुझे मुकेश जी का गीत याद आ गया ,
"मुझे क्या पता था कभी इश्क़ में
रक़ीबों को कासिद बनाते नहीं
खता हो गई मुझसे कासिद मेरे
तेरे हाथ पैगाम क्यों दे दिया "
अब इस तरह की कोई समस्या नहीं है :)
---आशीष श्रीवास्तव
कमाल का व्यंग्य . गिने चुने व्यंग्यकारों की लेखनी में ही ये शैली नजर आती है.
हाँ साहब पुराने पत्राचारों की बात दूसरी थी-'पिता के पत्र पुत्री के नाम 'तो इतिहास और भूगोल सब सिखा देते हैं.अब कहाँ ऐसा है?
आपके तमाम पोस्ट पुराने को नए से तौलतें हैं .बेहद गहन प्रेक्षण विश्लेषण ,ला -ज़वाब .आभार आपका आप नए पुराने दोनों युगों के समकालीन हैं .हम तो सिर्फ कालीन हैं .
so beautiful , liked it
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Honestly, this is one article that gives me incredible information and is very useful and very helpful
maybe I will visit this site again to find other articles that can be useful for me :)
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