Friday, September 12, 2008

कवि गोष्ठी

यह कविता नहीं तुक बंदी है
मात्र शव्दों की जुगल बंदी है
श्रोता बिचारा 'मुसीवत का मारा
प्रेम से बुलाया 'लिहाज से आया
उवासी लेता रहा कभी आह कभी वह करता रहा
भागने का मौका तलाश करता रहा
कवि की करूँ रचना से भावुक श्रोता सिसकने लगते हैं
और गोष्ठी के कुछ कवि अपनी सुना कर खिसकने लगते हैं
जो नहीं सुना पाये उनका रुकना ज़रूरी है
अपने नंबर का इंतजार उनकी मजबूरी है
जिसने सुनादी उसका तो काम बन जाता है
जिसे अध्यक्ष बनाया वो फंस जाता है
गोष्ठी समापन तक उसका रुकना लाजिम है
और अध्यक्ष दे नाते यह बात भी बाजिब है

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