यह कविता नहीं तुक बंदी है
मात्र शव्दों की जुगल बंदी है
श्रोता बिचारा 'मुसीवत का मारा
प्रेम से बुलाया 'लिहाज से आया
उवासी लेता रहा कभी आह कभी वह करता रहा
भागने का मौका तलाश करता रहा
कवि की करूँ रचना से भावुक श्रोता सिसकने लगते हैं
और गोष्ठी के कुछ कवि अपनी सुना कर खिसकने लगते हैं
जो नहीं सुना पाये उनका रुकना ज़रूरी है
अपने नंबर का इंतजार उनकी मजबूरी है
जिसने सुनादी उसका तो काम बन जाता है
जिसे अध्यक्ष बनाया वो फंस जाता है
गोष्ठी समापन तक उसका रुकना लाजिम है
और अध्यक्ष दे नाते यह बात भी बाजिब है
Friday, September 12, 2008
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